प्रो. एमपी सिंह
नई शिक्षा नीति (एनईपी)-2020 क्रियान्वयन के चौथे बरस के सफर पर तेजी से अग्रसर है। यह किसी बड़े सपने के साकार होने के मानिंद है। हालांकि, नई शिक्षा नीति की राह अभी चुनौतियों से भरी नजर आती है। इन चुनौतियों से पार पाने को मंथन की दरकार है। बारहवीं के बाद किसी विद्यार्थी के महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के बाद वहां से बाहर निकलने की राह को सुगम किया गया है। कम समय में योग्यता की कसौटी पर खरा उतरने के साथ ही पाठ्यक्रम की अवधि को अप्रत्याशित रूप से परिवर्तित किया गया है। यह निश्चित तौर पर अभूतपूर्व कदम है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि किसी विद्यार्थी ने प्रथम वर्ष किसी अमुक विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण किया है, लेकिन यदि प्रथम वर्ष के बाद विद्यार्थी वह संबंधित संस्थान को छोड़ देता है, तो उस संस्थान पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस बात को इस तरह भी समझ सकते हैं कि नई शिक्षा नीति में प्रदत्त प्रावधान के तहत यदि किसी विश्वविद्यालय में 100 विद्यार्थियों की क्षमता है, लेकिन प्रथम वर्ष उत्तीर्ण कर लेने के बाद ही यदि 30 से 40 फीसदी विद्यार्थी संबंधित संस्थान को छोड़ देते हैं, तो ऐसी स्थिति में संस्थान के सामने द्वितीय वर्ष में अपने संसाधनों के प्रबंधन की चुनौती होगी। शिक्षकों से लेकर शैक्षणिक कर्मचारियों एवं संस्थान की अन्यान्य व्यवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव होगा। अकादमिक स्तर भी प्रभावित होगा। संस्थानों की इस चुनौती के समाधान को मंथन आवश्यक है। धरातल स्तर पर कार्य किए जाने की दरकार है। हमें इस तरह से कार्य योजना बनाने की आवश्यकता होगी। इससे इन संस्थानों में शिक्षकों की संख्या से लेकर दीगर इंस्टीट्यूट्स के बीच संतुलन व्यवस्थित किया जा सके।
चुनौती के समाधान के क्रम में पहला है कि पाठ्यक्रम के बीच में संस्थान छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या को सीमित या निर्धारित किया जाए। द्वितीय शुल्क निर्धारण करते समय शुल्क को घटते क्रम में रखे, जिससे संस्थान/पाठ्यक्रम को बीच मे छोड़ने की प्रवृत्ति को घटाया जा सके। अंततः इसके फलस्वरूप सकल नामांकन अनुपात (GER) को 2035 तक वर्तमान 27 प्रतिशत से बढ़ाकर निर्धारित लक्ष्य 50 प्रतिशत तक किया जा सके। इसके क्रियान्वयन के बाद भविष्य की चुनौतियों पर अभी से कार्य योजना बनाकर समाधान की राह तलाशनी है। दूसरे क्रम में अब नई शिक्षा नीति-2020 में प्रदत्त प्रावधान के तहत क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण कार्य करने पर पुरजोर वकालत की गई है। यह पूरी तरह सबके अनुकूल है। निज भाषा में निश्चित तौर पर विद्यार्थी विषय को बेहतर समझ सकता है। लेकिन दूसरे पक्ष पर गौर करें तो क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई करने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा में विद्यार्थियों को गंभीर चुनौतियों का सामना करने का अंदेशा है। देश के साथ ही विदेश में भविष्य को आकार देने की मंशा रखने वाले स्टुडेंट्स के सामने भाषा की चुनौती अवरोध बन सकती है। यहां किसी भाषा पर सवालिया निशान नहीं है, लेकिन इस बिंदु पर भी गौर करने की आवश्यकता है, मौजूदा अधिकांश पाठ्यक्रम अंग्रेजी में पढ़ाया एवं लिखाया जा रहा है। भाषा संबंधी यह चुनौती कहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे महत्व को कमतर न साबित कर दे। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
तीसरी और महत्वपूर्ण बात कि नई शिक्षा नीति के मुताबिक हमारे शिक्षकों को भी तैयार होना होगा। यूं भी एक अच्छा शिक्षक वही है, जो पूरी तैयारी के साथ अपने विद्यार्थियों का ज्ञानार्जन करे। यदि हम आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत में छात्र-छात्राओं की कुल संख्या लगभग 35 से 40 करोड़ होगी। यानी, हमारी कुल जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत। नई शिक्षा नीति को धरातल पर क्रियान्वित करने में सबसे अहम भूमिका हमारे शिक्षकों की ही है। पुरानी शिक्षा पद्धति में रचे- बसे शिक्षकों को मौजूदा ढांचे के अनुसार तैयारी करनी होगी। प्रतिस्पर्द्धी युग में अब विद्यार्थियों के बेहतर कल का निर्माण करने को शिक्षकों को भी तैयार होना होगा। प्रशिक्षण के आधार पर शिक्षकों को नई शिक्षा नीति के सांचे में स्वयं को ढालने की आवश्यकता होगी, अन्यथा नई शिक्षा नीति की सार्थकता को सिद्ध होने में कठिनाई हो सकती है। इसी क्रम में यूजीसी की ओर से स्थापित 111 मदन मोहन मालवीय अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना एक मील का पत्थर साबित होगा। इनके माध्यम से अगले 3 वर्षों में 15 लाख गुरुजनों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। चतुर्थ और अंतिम बात यह है, अभी आईआईटी जैसी संस्था को हम इंजीनियरिंग की पढ़ाई के रूप में पहचानते हैं। आईआईएम को मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए जानते हैं। इन उच्च संस्थानों की मूल संरचना और इनका अध्यापन इसी दिशा पर कार्य करता है। अंदेशा है, अब ऐसे बहु प्रतिष्ठित संस्थानों को बहु-विषयक बनाने पर कहीं ये अपनी मूल संरचना और मूल भावना से विरत न हो जाएं। ऐसा न हो कि अधिकतम के चलते न्यूनतम भी अर्जित होने से रह जाए। हालांकि, फिलहाल तो ऐसा नजर नहीं आता। बावजूद इसके अध्ययन और अध्यापन के दौरान इन बिंदुओं की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है ।
(लेखक आईआईएम, अहमदाबाद के पूर्व छात्र एवम् तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद (यूपी) में निदेशक – छात्र कल्याण हैं। लेखक के ये अपने निजी विचार हैं।)