अरुण कुमार चौबे
सत्ता की सियासत में शह और मात का खेल आज से नहीं युगों से चल रहा है, इस खेल में मूलतः वो अपने ही प्यादों और वजीरों के हाथ मारा जाता है,जो सत्ता में आने के योग्य होने लगता है अर्थात आज के समय में जिसका राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव परिपक्व हो जाता है,उसे सियासत का खेल तुरंत सबसे नीचे की पायदान पर ढकेल देता है। द्वापर युग में भी ज्येष्ठ होने के नाते धृतराष्ट्र को सिंहासन पर बैठाना समय काल और परस्थिति की मजबूरी थी,शिक्षा दीक्षा के बाद कौरव और पांडव राजकुमारों की योग्यता की परीक्षा की गई तो पांडव राजकुमार सिंहासन पर बैठने के योग्य सिद्ध हुए थे, राजहठ और पुत्रमोह के कारण वो सिंहासन पर नहीं बैठ सके राज्य का विभाजन हुआ और अलग अलग राज्य बन गए। जिस तरह से वर्तमान राजनीति की कमजोरी अथवा योग्यता भ्रष्ट आचरण है,उसी प्रकार से कौरव और पांडवों के आचरण का कलंक द्रुत क्रीड़ा थी,द्रुत क्रीड़ा में नैतिकता की अपेक्षा रखना मूर्खता है। अपनी जीत के लिए कोई भी पक्ष निम्न्ता की हद से ज्यादा नीचे गिर जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि,द्रुत क्रीड़ा,वैश्या का बाजार और शराब का मैखाना ये दुराचार के स्थान हैं। इन स्थानों पर नैतिकता की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती है। ये किसी के भी पतन का कारण हो सकते हैं। इसी द्रुत क्रीड़ा के वशीभूत होकर पांडव शकुनी,दुर्योधन,दुशासन की छली कपटी चाल से हारकर राजपाट,पत्नी,धन, मान प्रतिष्ठा और वैभव सब कुछ खो बैठे,इस खेल के पर्यवेक्षक धृतराष्ट्र थे वो पुत्र मोह के वशीभूत होकर पक्षपात का रवैया अपनाए रहे और पांडवों की लुटती लाज पर आत्ममुग्ध होते रहे, जहां द्रुत क्रीड़ा हो वहां सारी नैतिकताएं, योग्यताएं अनुभव,शोर्य, वीरता और साहस लाचार हो जाते हैं,चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते हैं,देख कर भी अनदेखा करना चाहते हैं,पाप देखना भी पाप करने के बराबर होता है,जब निहित स्वार्थ,सत्ता की महत्वकांक्षा,धन मोह,पुत्र मोह का परदा आंख और अक्ल पर पड़ जाता है,तो पाप भी पुण्य से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।
त्रेता युग में भी सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को विश्वामित्र ने ईर्ष्या के कारण राजा हरिश्चंद्र से छल,कपट से राजपाट लेकर उन्हें दर दर भटकने पर मजबूर कर दिया,बल्कि ढाई भार सोने की दक्षिणा के लिए,हरिश्चंद्र को अपनी पत्नी तारामति को काशी के भरे बाजार में बेचना पड़ा था।
श्री राम को भी सभी तरह से योग्य पाकर राजा दशरथ अपने जीते जी उन्हें राजपाट देना चाहते थे,सब कुछ तैयार था, एक ही रात में मंथरा और कैकई की छली,कपटी चालों ने,सारा खेल बदल दिया, राजा दशरथ भी अनुभवी पुण्य प्रतापी थे।
अपने ही घर में अपनी ही पत्नी की छल,कपट,धूर्तता के आगे विवश हो गए,उनके पास सारी शक्तियां निहित थीं, त्रिया हठ ने उन्हें शक्तिविहीन बना दिया, भरत की कोई महत्वकांक्षा नहीं थी,कैकई को मंद मति मंथरा ने अपने वशीभूत कर लिया और दशरथ के जीते जी श्रीराम सिंहासन पर नहीं बैठ सके,सारी रामकथा सर्वविदित है।
वर्तमान और अतीत की राजनीति का परिदृश्य भी भिन्न नहीं है। आजादी के बाद नेहरू के युग से अपने समकक्ष अथवा अनुभवी और योग्य को रसातल में ले जाने की संतानकालीन परंपरा सियासत में यथावत है।
कई अनुभवी,समर्पित राजनीतिज्ञ सियासी चालों के कारण अर्श से फर्श पर आ गए,कुछ समझ गए,कुछ समझ नहीं पाए। इंदिरा गांधी जिस समय देश की प्रधानमंत्री थीं, उस समय उत्तरप्रदेश में कोई भी मुख्यमंत्री पूरे पांच साल टिक ही नहीं पाता था,कभी विधायक टांग खींचते थे,तो कभी केंद्र की दृष्टि वक्र हो जाती थी।
सियासत के इसी खेल में अविभाजित उत्तरप्रदेश में उस समय के युवा श्री हेमवतीनंदन बहुगुणा उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने, उनमें कुछ अच्छा कर गुजरने की क्षमता थी,वो अपने प्रभाव से उत्तरप्रदेश के लिए नई योजनाएं लाने लगे,केंद्र सरकार से कई योजनाएं मंजूर कराने का प्रयास किया,उनकी कार्यशैली से राजनीतिक हलकों में ऐसा आभास होने लगा था कि वो अपने पूर्ववर्ती रहे मुख्यमंत्रियों के अपेक्षा बहुत अच्छा काम कर रहे हैं,उनकी प्रशासनिक पकड़,राजनीतिक पकड़ और कांग्रेस हाईकमान की मेहरबानी उन पर थी,सारा मार्ग लगभग निष्कंटक था, ग्रह, वार,तिथि सभी अनुकूल थे। एक दिन नईदिल्ली के सेंट्रल हॉल में उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी सासंद बैठे चर्चारत थे तभी आपसी वार्तालाप में सांसदों ने कहा कि उत्तरप्रदेश हमेशा ही देश को नए नए प्रधानमंत्री देता आया है,हमने श्री हेमवतीनंदन बहुगुणा के रूप में देश का नया प्रधानमंत्री तैयार कर लिया है,मुल्क जब चाहे मांग ले।
ये सियासत है,इसमें अच्छा करने वाला भी अपनों से ही मात खा जाता है,राजनीतिक खुसुर फुसुर और कानाफूसी ने कांग्रेस हाईकमान के कान भरना शुरू कर दिए, उस समय इंदिरा गांधी कांग्रेस और देश की हाईकमान थीं। वो जो चाहें हो जाता था। कवि श्री निर्भय हाथरसी ने अपने आशु काव्य में टोरी कॉर्नर इंदौर के कवि सम्मेलन के मंच से कहा था कि ” हे मां! तुम इंदिरा हो के दुर्गा, हम सब तुमरे मुर्गी और मुर्गा तो हार गई तुझसे काली कलकत्ते वाली,तेरा वचन न जाए खाली,बच्चों बजाओ ताली, इंदिराजी का सत्ता का आलम था। वो भारत की राजनीति में शक्ति स्वरूपा थीं आल्लद्दीन के चिराग का जिन्न भी उनके वश में था, वो जो चाहती थीं वो चुटकी बजाते हो जाता था। उनके दरबार में रथी महारथी,स्वार्थी,चापलूस सभी टकटकी लगाए बैठे रहते की कब उनकी नजरें इनायत हो जाय,उनका रहमो करम बना रहे। हंस और बगुले एक ही जाजम पर बैठते है,कई बार हंसों को दाना दुनका नहीं मिलता था,बगुले और कौवे मोती चुगाते थे। राजनीति भी सच पर नहीं झूठ पर चलती है और झूठ के पैर नहीं होते हैं,कई बार झूठ सच पर भारी पड़ जाती है,हेमवती नंदन बहुगुणा में जो चक्रवर्ती सम्राट के लक्षण उभरने लगे थे,वो उन चापलूसों को चुभने लगे जो रोज इंदीराजी की चौखट पर नाक रगड़ते नहीं अघाते थे,रोज दिल्ली जाकर कानाफूसी करना,बहुगुणा की महिमा का बखान उस शैली में करना कि वो हाईकमान की आंख का कांटा या किरकिरी बन जाए, बस जिस दिन यह षड्यंत्र सफल हुआ उसी दिन श्री हेमवती नंदन बहुगुणा तुरंत मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए,जिस व्यक्ति की भावी प्रधानमंत्री के तौर पर परिकल्पना की गई थी,वो कहीं का नहीं रहा और राजनीति के बियाबान में गोते खाता सदा के लिए अस्त हो गया। जब तीस साल बाद कांग्रेस की हार के बाद केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उस समय भी अटलजी ही प्रधानमंत्री पद के योग्य थे,जनता पार्टी में प्रधानमंत्री बनने योग्य जगजीवनराम, चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई भी थे।
अतः मोरारजी देसाई सर्वसम्मति से देश के प्रधानमंत्री बने
गांधीवादी ईमानदार छवि के धनी थे,चौधरी चरण सिंह उत्तरप्रदेश की राजनीति के खिलाड़ी थे, उन्होंने ऐसी चल चली कि ढाई साल में मोरारजी की सरकार चली गई और अल्प समय के लिए चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री रहे। जिस समय देश में जनता पार्टी का राज था,तब मध्यप्रदेश में भी जनता पार्टी की सरकार बनी थी,श्री कैलाश जोशी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे,वो फकत ईमानदार थे,उनके राज में न सांप्रदायिक दंगा हुआ और न ही महंगाई बढ़ी,राजनीति में ईमानदारी ही सबसे बड़ी अयोग्यता होती है और कैलाश जोशी को भी मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और मध्यप्रदेश में जनसंघ की संविद सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे श्री वीरेन्द्र कुमार सखलेचा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने,वीरेंद्र कुमार सखलेचा की प्रशासन पर मजबूत पकड़,राजनीति पर मजबूत पकड़ थी,राजनीतिक विरोधी भी उनके आगे पस्त थे,सारे अविभाजित मध्यप्रदेश में उनका नाम था,
छत्तीसगढ़,महाकौशल,विंध्य,बघेलखंड,बुंदेलखंड,मालवा, निमाड़ सभी दूर उनका खासा प्रभाव था,उनका व्यक्तित्व योग्यता और अनुभव सभी बहुत प्रभावी थे,ऐसा लगता था कि मुख्यमंत्री के तौर पर ये लंबी पारी खेल सकते हैं,उनके लिए भी उस समय प्रकाशित धर्मयुग के सचित्र आलेख में लिखा था कि ये उर्जवान हैं प्रशासनिक पकड़ और अनुभव मजबूत है,यदि जनता पार्टी की सरकार दोबारा बनती है तो इस बार प्रधानमंत्री मध्यप्रदेश से वीरेंद्र कुमार सखलेचा हो सकते हैं। वीरेंद्र कुमार सखलेचा के समय सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण था,जब उन्होंने भोपाल के निर्वाचित विधायक डॉक्टर हमीद कुरैशी को अपने राज्य मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया था,तब उस समय मध्यप्रदेश के प्रमुख हिन्दी दैनिक नईदुनियां की मुख पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था कि पुराने भोपाल के नए मंत्री,इसकी कई समाचार पत्रों में प्रशंसा भी हुई थी। कहते हैं न की सभी दिन एक समान नहीं होते हैं पल में प्यादे वजीर हो जाते हैं और वजीर किसी तहखाने का इतिहास बन जाते हैं। जनता पार्टी की सरकार के विघटन के बाद लोकसभा के चुनाव हुए और अविभाजित मध्यप्रदेश की चालीस में से छत्तीस सीटों पर कांग्रेस के सासंद निर्वाचित हुए, केंद्र की सरकार में कांग्रेस की वापसी होकर इंदिरा गांधी फिर से देश की प्रधानमंत्री बन गईं थी। जनता पार्टी की हार हो गई थी और हार का ठीकरा वीरेन्द्र कुमार सख्चलेचा के सर मढ दिया गया और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा,सुंदरलाल पटवा और वीरेंद्र कुमार सखलेचा के रिश्ते भी तल्खी भरे थे,एक दल जनसंघ में होकर भी वो आपस में एकमत नहीं थे, जनता पार्टी में उनके प्रति इतनी तल्खी बढ़ी कि उन्हें जनता पार्टी छोड़ना पड़ी और उन्होंने मध्यप्रदेशीय जनता पार्टी स्थापित की,सुंदरलाल पटवा फरवरी 1980 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने और मात्र २८ दिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे,क्योंकि केंद्र सरकार मध्यप्रदेश सहित नौ राज्यों की विधानसभा भंग कर दी थी। वीरेंद्र कुमार सखलेचा यदि भाजपा से दूर थे तो श्यामाचरण शुक्ल को भी कांग्रेस ने दूर ही रखा था। श्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा ने जनसंघ को मध्यप्रदेश में स्थापित करने में खासा योगदान किया था,वो आजीवन जनसंघ/भाजपा के प्रवर्तक रहे, परंतु सुंदरलाल पटवा की प्रतिद्वंदिता के कारण उन्हें लंबे समय तक हासिए पर रहना पड़ा। 1998 के लोकसभा चुनाव में उनका राजनीतिक वनवास समाप्त तो हुआ, उन्हें सतना से लोकसभा का टिकट अर्जुन सिंह के सामने दिया गया, तब सतना से बहुजन समाज पार्टी के सुखलाल कुशवाह जीते थे और सखलेचा और अर्जुन सिंह दोनों ही चुनाव हार गए थे। ये श्री सखलेचा का वनवास खत्म नहीं हुआ था बल्कि जानबूझ कर उन्हें हारने वाली सीट से प्रत्याशी बनाया गया।यदि राजनीति में श्री सखलेचा का पुनर्वास करना होता तो उन्हें मंदसौर अथवा विदिशा से प्रत्याशी बनाया जाता तो वो जीत सकते थे, पटवाजी उन्हें उभरने ही नहीं देना चाहते थे,एक योग्य अनुभवी राजनीति के दिग्गज को अपनों ने ही बुरी तरह धाराशायी कर दिया।
मध्यप्रदेश में 1998 के विधानसभा चुनाव में भी वीरेंद्र कुमार सखलेचा के प्रति सुंदरलाल पटवा की तल्खी ने मालवा में कांग्रेस की जीत का मार्ग प्रशस्त किया था।
जब 2003 में मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो सुश्री उमा भारती मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं,उनके कार्यकाल में 2004 का सिंहस्थ सफल रहा था,परंतु वो भी अपने तल्ख तेवरों के कारण ज्यादा समय मुख्यमंत्री नहीं रहीं और श्री बाबूलाल गौर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने,उनकी अपनों और धुर विरोधियों में भी सम्मानजनक छवि थी, उन्हें भी मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा और 2005 में श्री श्री शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। श्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में सबसे लंबी पारी मुख्यमंत्री के रूप में खेली सबसे लंबे समय तक मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहने वाले वो पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे हैं l इनसे पहले द्विग्विजय सिंह दस साल मुख्यमंत्री रहे दूसरे क्रम पर हैं। श्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने लम्बे कार्यकाल में मध्यप्रदेश के जन जन में अपनी छवि बनाई और मामा और भैया के रूप में सारे मध्यप्रदेश में विख्यात हैं। उनका सबसे लम्बा प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभव भी कहीं न कहीं भाजपा के गलियारों में यह आभास करा रहा था कि ये भी देश में प्रधानमंत्री का विकल्प सकते हैं,बस यहीं से उनके राजनीतिक ढलान की इभारत इस प्रकार से लिखी जाने लगी कि उन्हें भी इसका आभास बहुत देर से हुआ। 2022 के स्थानीय निकायों के चुनावों में कई जगह कांग्रेस के महापौर निर्वाचित हुए,यह भाजपा हाईकमान को चुभने लगा,इसके बाद से कुछ इस प्रकार का मायाजाल बिछाया गया और निरूपित किया गया कि शिवराज कमजोर मुख्यमंत्री हैं और उनके नाम पर मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर सकती है,इसी मायाजाल को कांग्रेस अपनी मजबूती मान बैठी और चारों खाने चित्त हो गई। भाजपा ने ही शिवराज कमजोर का ऐसा माहौल बनाया कि भाजपा ने कहा कि यह चुनाव मुख्यमंत्री के चेहरे ही बगैर लड़ा जाएगा और मुख्यमंत्री पद के कई विकल्प जब चुनाव में उतारे गए तब शिवराज को आभास हुआ कि भाजपा उन्हें अगला मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती है। ये भाजपा का नारा था कि मोदी के मन में मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के में मोदी,मध्यप्रदेश के गांव गांव और खेत खलिहानों तक विख्यात था मध्यप्रदेश के मन में शिवराज और शिवराज के मन में मध्यप्रदेश इसी कारण से भाजपा को मध्यप्रदेश में अप्रत्याशित बहुमत मिला इस जीत में भाजपा का छोटे से छोटे कार्यकर्ताओं के साथ ही शिवराज सिंह चौहान की भी बहुत बड़ी भूमिका है,जिस अथक परिश्रम से उन्होंने प्रचार किया और लाड़ली बहानाओं और भांजे भांजियों को भाजपा के पक्ष में किया वो तारीफ करने योग्य है। जिस दिन परिणाम आया वो परिणाम श्री शिवराज सिंह का ही पर्याय था। भाजपा हाईकमान की दृष्टि शिवराज के प्रति वक्र हो गई तो उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया एक योग्य अनुभवी को जबरजस्ती घर बैठा दिया गया,जो की।ऊर्जावान है और मध्यप्रदेश का पर्याय है, उन्हें पार्टी ने आदेश दिया कि तुम दक्षिणी राज्यों में पार्टी का प्रचार करो वो भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं,पार्टी के हर आदेश का अक्षरशः पालन करेंगे और कोई भी कसर बाकी नहीं रखेंगे। अब डॉक्टर मोहन यादव मुख्यमंत्री हैं अभी नए नवेले हैं नई सरकार है सब कुछ नया है अतः अभी उनके लिए कुछ कहने का समय नहीं है। भाजपा की इस जीत में ग्वालियर चंबल संभाग की जीत का श्रेय भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को नहीं है,बल्कि शिवराज सिंह चौहान के प्रभाव से है यहां भाजपा को ३४ में से लगभग २८ सीटें मिलना थीं यहां कांग्रेस को १६ सीटें मिली हैं,यदि सिंधिया का प्रभाव और योगदान होता तो यहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ होना चाहिए था। सिंधिया की कमजोरी भाजपा की लहर में दब गई है,भाजपा के कई वरिष्ठ और अनुभवी विधायक मंत्री नहीं बन पाए हैं इस समय सिंधिया खैमे के विधायकों को मंत्री बनाना जरूरी नहीं था,उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर रखना था। अपने समतुल्य और अपने से अधिक योग्य को पीछे ढकेलना सियासत की परंपरा बन गया है।