डॉ. वंदना सेन
उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको मत। स्वामी विवेकानंद जी जब ऐसा बआह्वान करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यही व्यक्त करते हैं कि युवाओं के सामने सनातन को संवारने का एक स्पष्ट लक्ष्य होना चाहिए। यह वाक्य केवल शब्दों का समुच्चय नहीं, बल्कि सफल जीवन का एक पाथेय है। विवेकानंद जी का जीवन भारत को अभिव्यक्ति करने वाला है। विवेकानंद ने भविष्यवाणी की कि भारत अगले 50 वर्षों में स्वाधीन हो जाएगा और यह सत्य सिद्ध दी हुई।
स्वामी विवेकानंद इतिहास के अच्छे अध्येता थे और ऐतिहासिक शक्तियों के विषय में उनकी अंतर्दृष्टि बहुत गहरी थी। विवेकानंद ने ही एक और भविष्यवाणी की थी जिसका सत्य सिद्ध होना शेष है। उन्होंने कहा था भारत एक बार फिर समृद्धि तथा शक्ति की महान उचाईयों पर उठेगा और अपने समस्त प्राचीन गौरव को पीछे छोड़ जाएगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारत का विश्व गुरु बनना केवल भारत ही नहीं, अपितु विश्व के हित में हैं।
भारत क्या है? भारतीय संस्कृति क्या है? भारत का उदात्त चिंतन क्या है? इसका सार्थक और सकारात्मक अध्ययन करना है तो स्वामी विवेकानंद जी के जीवन दर्शन का स्मरण कर लीजिए। आपको भारत और भारतीयता का जीवंत बोध हो जाएगा। स्वामी विवेकानंद जी के अंतर्मन में भारत के संस्कार गहराई तक समाविष्ट थे। वे भारत की भूमि को वैश्विक स्वर्ग ही मानते थे। उनके मन में मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति अगाध निष्ठा थी। अध्यात्म और धर्म के गहरे संस्कारों की छाप उनके पूरे जीवन में दिखाई देती है। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि स्वामी विवेकानंद जी साक्षात भारत ही थे। उन्होंने भारतीय संस्कारों को जीया है। वे सबके मन में भारत का बोध कराने का प्रयास करते रहे। अमेरिका के शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद जी ने जो व्यक्त किया, वह वास्तव में भारत की वाणी ही थी। जिसने भी इस प्रबोधन को सुना वह भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति आस्थावान होता दिखाई दिया। सही मायनों में विवेकानंद जी का जीवन सनातन के आदर्श का प्रस्फुटन ही था।
स्वामी विवेकानन्द जी के बचपन का नाम नरेन्द्र था। ऐसा कहा जाए कि उनको जन्म से ईश्वर की साक्षात अनुभूति का आभास होने लगा था। इसी कारण वे ईश्वर तत्व की खोज में जगह जगह घूमने लगे। एक संन्यासी का जीवन भी यही है कि वह ईश्वर का अस्तित्व हर स्थिति में स्वीकार करे। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा भी है कि ईश्वर में बिना आस्था के जीवन असंभव है। इसीलिए धर्म को नकारा नहीं जा सकता। धर्म ही सत्य है और सत्य एक ही है। वे कहते हैं कि जातिवाद समाज की बनाई हुई एक व्यवस्था है, यह ईश्वर ने नहीं बनाई। इसलिए यह अकाट्य नहीं है, इसे हटाया जा सकता है। लेकिन ईश्वर की रचना को कोई भी बदल नहीं सकता। इसके लिए समाज सुधार के लिए काफी प्रयास करने होंगे। वे सामाजिक उद्धार को को जगत के उद्धार मानते थे। स्वामी विवेकानन्द जी समाज को नई दिशा देने वाले समाज सुधारक थे। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि वे ईश्वर की खोज करते समय स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे। परमहंस जी परम ज्ञाता थे, इसलिए नरेन्द्र को देखते ही उन्हें यह आभास हो गया कि उनको जिसकी जरूरत थी, वह बालक मिल गया है। परमहंस जी से नरेन्द्र ने अपनी जिज्ञासा को प्रकट किया और उन्हें उचित समाधान भी मिल गया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से मिलने के बाद नरेन्द्र के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया और यहीं से उनका नाम विवेकानन्द हो गया।
स्वामी विवेकानंद जी ने 39 वर्षीय अपने जीवनकाल में वैश्विक जगत में भारतीय संस्कृति का व्यापक संचार किया। उस समय भारतीय मठ परंपरा की यही योजना थी कि संपूर्ण विश्व का भ्रमण कर सत्य का बोध कराए। स्वामी विवेकानंद जी ने भी इस परंपरा का पालन किया। इतना ही नहीं एक संन्यासी के तौर पर भगवा वस्त्र धारण कर देश भर की पैदल यात्रा की और देश वासियों को जाग्रत करने का कार्य किया। इसके बाद राजस्थान के खेतड़ी के राजा अजीब सिंह के आर्थिक सहयोग के चलते वे शिकागो रवाना हुए। 1893 शिकागो धर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने के लिए वे पांच हफ्ते पहले ही शिकागो पहुंच गए। पश्चिमी विचारों को आत्मसात करने वाले शिकागो में विवेकानंद जी के परिधान को देखकर किसी ने भी रुकने की जगह नहीं दी। यहां तक कि उन्हें भिखारी और चोर तक समझा गया। उन्होंने कई रातें रेलवे के यार्ड में व्यतीत कीं। शिकागो में विवेकानंद जी व्याकुल हो गए और भारत वापस आने की सोचने लगे। उन्होंने स्वयं कहा है कि पर्याप्त गर्म कपड़े नहीं होने के कारण हड्डियां तक जम गई थीं।
संभवत: यहीं उनके मन में इस वाक्य का प्रस्फुटन हुआ होगा कि उठो जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। शिकागो यात्रा के बीच हुए इन अनुभवों के चलते ही लक्ष्य केन्द्रित स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने आपको धर्म सम्मेलन के लिए तैयार किया। 11 सितम्बर 1893 में शिकागो की धर्म संसद में दिए गए व्याख्यान के प्रथम शब्द को सुनकर सभी धर्म गुरू आत्मविभोर हो गए। हर कोई स्वामी विवेकानन्द के भव प्रवण प्रबोधन को सुनने के लिए आतुर दिखाई दिया। इसके बाद विदेशों में उनके कई अनुयायी भी बन गए। शिकागो धर्म सम्मेलन के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका, पैरिस और लन्दन में भारतीय संस्कृति को प्रवाहित करने वाले व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। विदेशों में भारतीयता का परचम लहराने के बाद ही स्वामी विवेकानन्द जगतगुरू के रूप में ख्यात होने लगे। वे सही मायनों में जगत के गुरू ही थे।
स्वामी विवेकानन्द जी के इस प्रकार के जीवन व्यतीत करने के बाद यही कहा जा सकता है कि भारत के संत हमेशा से जगत के उद्धारक रहे हैं। आज विश्व में भारतीय संस्कृति की ध्वजा फहरा रही है, उसके पीछे इन्हीं संतों का समर्पण है। कहा जाता है कि जो महापुरुष बनते हैं, उसमें एक जन्म की साधना नहीं, बल्कि कई जन्मों का सुकर्म और सौभाग्य रहता है। स्वामी विवेकानन्द जी के प्रबोधनों का आशय यह भी है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है। उन्होंने दीन दुखियों की सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया। वे अपने देश और विदेश में रहने वाले शिष्यों से कहते रहे कि अगर वे ईश्वर की सेवा करना चाहते हैं तो गरीब और निर्धन बंधुओं की सेवा करो। आपको उनके अंदर ही ईश्वर का साक्षात्कार हो जाएगा। इसके लिए सबसे पहले अपना आत्म उद्धार करना होगा। आत्मा का सुधार संसार का सबसे बड़ा सुधार है। कहा जाता है कि व्यक्ति जैसा बन जाता है, समस्त संसार उसे वैसा ही दिखाई देता है। सत्य को हजार प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है, लेकिन सत्य एक ही होता है। सत्य जीवन जीने से व्यक्ति हमेशा परिमार्जित होता रहता है, वह कभी दलित नहीं हो सकता। इसलिए अपनी आत्मा को जगाओ, क्योंकि आत्मा ही ईश्वर है और ईश्वर ही आत्मा है। जो हम सभी के अंदर विद्यमान है। हम स्वत्व की खोज करने में सफल हो जाएंगे तो स्वाभाविक रूप से हमें ईश्वर को बोध हो जाएगा और सत्य से भी साक्षात्कार हो जाएगा।
स्वामी विवेकानन्द जी ने यात्रा में आए हुए कष्टों पर विजय प्राप्त करते हुए अपने पथ को प्रशस्त किया और आगे बढ़ते रहे। हम सभी की जीवन यात्रा में इस प्रकार के अनेक कष्ट का अनुभव हुआ होगा, लेकिन अगर हम इन कष्टों से घबरा गए तो स्वाभाविक ही है कि उसे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कठिन मार्ग को सरल बनाने का सामर्थ्य पैदा करने के लिए समाज को इसे परीक्षा के रूप में ही ग्रहण करना होगा। यह तभी संभव होगा जब हम सभी स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन को अपना आदर्श बनाएंगे।
(लेखिका पार्वतीबाई गोखले विज्ञान महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष हैं)