नृपेन्द्र अभिषेक नृप
हिंदी साहित्य में कविताओं का अनन्य स्थान है। यह हमेशा ही हमारे दिलों से जुड़ी होती है और हमारे जीवन के काफ़ी करीब होती है। हिंदी साहित्य के सिपाही,माता भारती के अनन्य उपासक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी मनीषा मंजरी एक संवेदनशील लेखिका हैं, जिनकी रचनाओं में संवेदनाओं का समावेश दिखता है। युवा कवियित्री मनीषा मंजरी के क़लम से निकला काव्य संग्रह “गूंज” की कविताएं विविधताओं से ओत – प्रोत है।
इस पुस्तक की कविताएं मानवीय संवेदनाओं से प्रभावित है कवियित्री ने मन की इन्ही अनुभूतियों को अपने काव्य में मर्मस्पर्शी, गंभीर तथा तीव्र संवेदनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कवियत्री ने अपना काव्य वेदना और करूणा की कलम से लिखा है। इनकी कविताओं से जुड़ना यानी कवियित्री के जीवन-जगत से जुड़ना है, जिसमें मानव-सुलभ प्रेम है, विरह का रस है, चिंता है, अवसाद है, नॉस्टेलजिया है, संघर्ष है , अज़नबीयत है, रिश्तों का मोल है तो कहीं रिश्तों में मिले छल है और कवि का अच्छाई की स्थापना के लिए हरेक प्रकार के विद्रूपताओं के प्रति बगावत है।
पुस्तक की प्रारंभिक कविता ‘तंग गलियों में मेरे सामने, तू आये न कभी’ में कवियित्री ने अपने दर्द को अपने सुंदर शब्दों में ढालते हुए लिखतीं हैं –
‘सागर की लहरों से लड़ते, रेत के घरौंदे है मेरे,
आशियाने के टूटी आस को, तू समझ पाए न कभी।’ उन्होने अपने कविताओं में विरह वेदना को इतनी सघन्नता से प्रस्तुत किया कि शेष अनुभूतियां भी उनकी पीड़ा के रंगों में रंगी हुई जान पड़ती है। वे वेदना से प्रारंभ करके वेदना में ही अपनी परिणति खोज दिखाई देती है। उनकी वेदनानूभूति संकल्पात्मक अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति है। तभी तो कवियत्री लिखतीं हैं-
‘अंधेरों में अस्त हो, उजाले वो मेरे नाम कर गया,
मुझे शिखर पे बिठा, घाटियों में नदी बन बह गया,
बेहोश एहसासों को, सपनों की स्याही से रंग गया,
तू तो भोर का तारा था, ओस की बाहों में ढल गया।’
जीवन में कठिन संघर्ष से ही सफलता का शंखनाद किया जा सकता है। संघर्ष का दौर जब समाप्त होता है, उसके बाद से ही सफलता का युग आरंभ होता है। कवियित्री ने अपनी कविताओं में हमारे जीवन के संघर्ष को भी रेखांकित करते हुए हमें अपने जीवन से अंधकार को दूर कर जीवन को सूर्योदय तक का सफ़र तय करने के लिए निवेदित किया है। संघर्ष हमारे भीतर सफलता प्राप्त करने के लिए उत्कट भाव पैदा करता है। यह हमें कठिन परिश्रम के लिए प्रेरित करता है। संघर्ष को स्वीकार कर ही सफलता के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है-
‘स्याह रात की चलनी से छन, वो भोर जगमगाती है, कारवाओं में तन्हा भटके, तो मंजिल मिल हीं जाती है,
अंधकार की धुरी से, जो रौशनी हर पल टकराती है, बिना डूबे उन अंधेरों में, हमें रौशनी भी कहाँ अपनाती है?’
तकनीकी के इस युग में इंसान ने रिश्तों को भी कृत्रिम रूप प्रदान कर दिया है। अब रिश्ते- नातों के महत्व को कमज़ोर कर दिया गया है। एक तरफ़ से अपनत्व ख़तम हो रहा है, अपनों के साथ फ़रेब कर गैरों पर विश्वास किया जा रहा है तो वहीं उसी विश्वास के बेनकाब होने पर उसे धोखा का संज्ञा दिया जा रहा है। दुनिया अब रिश्तों को ताक पर रख कर मोबाइल और सोशल साइट्स को ही अपना परिवार बना बैठी है। कवियित्री ने इस विपदा को अपने पंकियों से उजागर किया है-
‘आज कृत्रिम रिश्तों पर टिका, ये संसार है,
विश्वास करें भी तो करें किस पर, ये भी बना व्यापार है,
जिन आँखों ने देखे, हमारे लिए स्वप्नों के संसार है,
उन्हीं के आँगन की वीरानगी, के आज हम जिम्मेदार हैं।’
“गूंज” काव्य संग्रह में कवियित्री मनीषा मंजरी ने प्रेम, विरह , संघर्ष ,रिश्ते-नातें, सामाजिक बुनावट और हमारे जीवन से जुड़े पहलुओं को बखूबी लिखा गया है। इनकी कविताएं अपनी धाराओं में बहती हुई दिख रही है, जिसे पढ़ने के बाद आनंदित महसूस हो रहा है। कविताओं में शब्दों की कसावट भी काबिलेतारीफ है जो कि पुस्तक में चार चांद लगा रहा है।
पुस्तक: गूंज
लेखक: मनीषा मंजरी
प्रकाशन: साहित्यपीडिया प्रकाशन
मूल्य: 150 रुपये