संदीप पांडे”शिष्य
उस एक वाक्य ने तो उसके जीवन में तूफान ला दिया था। ” तुम बहुत बडे बेवकूफ हो अमित ” नौवी कक्षा में पढ़ने वाला अमित एक साल से हिम्मत जुटा रहा था आकांक्षा को यह बताना कि वो उसे पसंद करता है। और आज हिम्मत करके उसने उसे कहने की कोशिश ही की थी कि उसे यह गुस्से से भरा जवाब मिला था।जबकि उसे मासूम प्रकृति को तो इन दिनों यही लगने लगा था कि आकांक्षा भी उसे पसंद करने लगी है। पर अपनी इकतरफा गर्लफ्रेंड का यह टका सा जवाब सुनकर वह अपनी पशुवत मानसिकता के साथ मुट्ठियां भींचता एकदम अधपगला सा हो गया था। पढ़ाई में तो वह पहले से ही कमजोर था इस निराशा ने तो जैसे उसके दिमाग का स्विच ही बंद कर दिया।दुखी रोमियो का ना स्कूल में मन लगता ना घर मे। नौवी की परीक्षा जैसे- तैसे पास तो कर ली पर प्राप्तांक इतने कम थे कि माता- पिता और बड़ा भाई अनिल ताने देते रहते। कमतरी के भाव ने स्कूल और घरेलू मित्रो से दूरी बनाने को मजबूर कर दिया। दसवी बोर्ड परीक्षा के लिए जंहा बाकि सहपाठी शैक्षणिक वर्ष के शुरुआत से ही पढ़ाई को अधिक तरजीह देने लग गए थे। इधर अपने मन की गठरी में अनगिनत गांठे लगाये हुए अमित गुमसुम संज्ञा शून्य सा दिन गुजार रहा था। उसके व्यवहार से दुखी होकर कडक मिजाज पिता को तीन-चार दफे थप्पड मारने को भी मजबूर कर दिया था।
दसवी की पहली तिमाही की परीक्षा हुई तो अमित सभी उत्तर पुस्तिका लगभग खाली छोड आया था। सभी विषय मे फेल होना अभिभावक के लिए तो आश्चर्य और दुख से भर जाने के लिए काफी था।उनकी तरफ से सख्ती का बर्ताव होना लाजिमी था। पर अमित का कोमल और गुलाबी मन ऐसा काला हुआ कि तेवर और तबियत में रूखा होने के साथ साथ वह चिड़चिड़ेपन की इंतहा पर पंहुच चुका था। गुस्से में वह किताब फाड देता तो कभी कोई भी सामान उठाता और जोर से जमीन पर पटक देता।कभी अपनी मुंडी पटकता तो कभी ऐंह ऐंह की आवाज करता अपने ही बाल खींचता पैर पटकता जाता। एक बार तो गुस्से मे उसने चाकू अपनी जांघ पर दे मारा। एक तरफ अमित यथाशक्ति चिल्लाता दूसरी तरफ घर में सन्नाटा सा पसर जाता ।पहले इसे नौटंकी या आई गयी बात कहकर नजरअंदाज करने वाले माता- पिता अब गंभीर होते जा रहे थे।अमित नामक इस अनसुलझे से मामले पर बार बार बात करके वह बार बार घबराने भी लगे थे।किसी टोने , भूत- प्रेत, जादू-टोटके का बार-बार अंदेशा होने लगा। मंदिर, गुरूद्वारे, दरगाह पर शीश नवाया जाने लगा पर व्यवहार मे कोई परिवर्तन नज़र नही आ रहा था। इसी दौरान बडे लडके अनिल ने अमित का विद्यालय बदल देने का सुझाव दिया। वो भी स्कूल मे टीचर और सहपाठीयो से अमित को लेकर मिलने वाली हिदायतों, तानों और उलाहने से परेशान था।
दस पंद्रह दिन की भाग-दौड के बाद शहर के नामी गिरामी स्कूल दाखिला इस आशा से दिला दिया गया कि वंहा व्यवस्था अमित को सही राह पर ले आयेगी। वित्तीय भार परिवार के लिए कष्टप्रद था पर बेटे के बेहतर भविष्य के लिए उस भार को वहन करना ही उचित था। नया माहौल अमित के लिए किसी मछली के छोटे तालाब से निकल कर एक बहुत बडी झील मे आ जाने जैसा था। वहां के माहौल ने उसे और भी गुमसुम कर दिया। जंहा शैक्षणिक रिपोर्ट कार्ड ही बालक के अच्छे या बुरे होने का मापदंड हो वंहा क्लास की परीक्षा मे अनुत्तीर्ण बच्चा घर और स्कूल दोनो मे अकेला पड जाता है। अमित की अर्धवार्षिक परीक्षा का रिजल्ट पुराने स्कूल से कोई बेहतर नही था। पर अब वो कोर्स की किताब कभी कभी खोलने जरूर लग गया था। घर पर पढ़ाई के उलाहनों से बचने के लिए वो घर से बाहर निकल जाता और पैदल पैदल सड़क नापता इधर-उधर घूमता रहता। आते जाते लोगों के चेहरे पढ़ता , किराने की दुकानदारी होते देखता , ढाबे पर रोटियां सिकते,मजदूर, दर्जी, फेरीवाले जैसे कार्य करने वाले की दिनचर्या को समझने का प्रयास करता।
दसवीं की परिक्षा का रिजल्ट आया तो अमित के पिच्हतर प्रतिशत अंक आए थे। अभिभावक व अध्यापको के लिए यह आश्चर्य ही था। नए स्कूल में एडमिशन को इसका सारा श्रेय दे दिया गया। मगर अमित के स्वभाव का पल में बनना पल में बिगडना
जारी था।वह अड़ियल घोड़े की तरह झुनझुनाता फिर करेले के रस की तरह फैलता जाता।घर की शांति भाप बनकर उड जाती।बैचेनी का धुआं कितने दिन तक उदास किये रहता।
उसके तमतमाने और कभी कभी पागल हो जाने की हद तक गुस्सा करने की आंच के नीचे माता- पिता तो खैर अब भी गले ही जा रहे थे। डाक्टर, वैद्य, मंदिर आदि के प्रयास लगातार किए जा रहे थे। पर बीमारी की कोई जानकारी ही नहीं हो पा रही था ।बस अंधेरे में तीर मारते हुए हर तरह का इलाज चल रहा था। अब ग्यारहवी में अमित ने वाणिज्य विषय ले लिया था। स्कूल की पढ़ाई के साथ अन्य सांस्कृतिक, खेल-कूद आदि गतिविधियो से उसका घोर अलगाव जारी था। उसकी अरूचि को देखते कोई उसे भाग लेने के लिए पूछता भी नही था।एकदम यंत्रवत सा ही वो रोज स्कूल चला जाता, वापस लौट आता अधिकतर समय चुपचाप रहता, घर आकर भोजन करता और फिर शाम तक बाहर ही घूमता।मन में कुछ यादें रहती हैं जो बेइजाजत हल्ला बोल देती हैं।एक दिन न जाने क्या हुआ कि यों ही पास के एक महिला सिलाई केंद्र में टहलता हुआ गया तो काम करती उन महिलाओं का मधुर व्यवहार उसके कानों मे रस घोलने लगा।कोई टोकता न था इसलिए वो अक्सर वहाँ जाकर बैठता और खुलकर बतियाता। उनको कोई मदद की दरकार होती तो वो भी कर देता। महिलाए अब तक बच्चों की फ्राक ही सिलती थी जो एक व्यक्ति बहुत कम दाम पर उनसे खरीदता था। अमित ने अपने विद्यालय के एक मित्र को यह बात बताई। मित्र के पिता की एक सीमेंट फैक्ट्री थी।मित्र के पिता से सहमति मिली तो उनसे एप्रन,कुर्ते और मास्क बनवाकर बिकवा दिये। अब माहौल बनता गया तो दूसरे दुकानदारों को भी ऐसे अलग-अलग आर्डर दिलवाना शुरू करवा दिया था। वो खुद उनका माल लेकर जाता और उसके अच्छे दाम महिलाओ को दिलवाता। महिलाओ की आमदनी बढ़ने लगी तो वह भी एक निश्चित राशि तय कर अमित को देने लगी। अपनी छोटी सी जमा पूंजी अब शेयर मार्केट मे लगाने लगा था अमित। उसके गुस्सैल व्यवहार से घर वालो को कम ही रुबरू होना पड़ता था। घर पर एक तो उसका ठहरना ही कम होता था दूसरा वो अपने लैपटाप मे कुछ ना कुछ करने मे व्यस्त रहता था। परीक्षा से कुछ समय पूर्व एकाग्र अध्ययन ने ग्यारहवी भी ठीक-ठीक अंको से उत्तीर्ण करा दी। माता – पिता को भी संतोष होने लगा था कि बेटा कुछ ना कुछ कर ही लेगा। अमित अब शेयर मार्केट को अच्छी तरह समझने लग गया था। अपने साथ वो औरों के रूपये-पैसों को भी इंवेस्ट करने लगा था। पिता जब भी उसका मुलायम मूड भांपते तो उसको सतर्क रह कर काम करने की सलाह देते रहते। वो कभी तो गरदन हिलाकर चुपचाप सुनता पर कभी- कभी झल्ला कर बडबडाता और काफी चीख- पुकार भी मचा देता तो घर पर माता पिता भयाक्रांत हो जाते। उसके गाली गलौच को स्पंज की तरह सोख रहे माता- पिता दुखी होकर फड़फडा से जाते।खुद भी रोने लगते ।मगर फिर उपरी हवा का असर मान वो सब सहन कर जाते और भभूत – ताबीज से स्थिति को काबू करने का प्रयास करते।वैसे जिंदगी अब इतनी भी टेढी- मेढी नहीं रह गई थी।अमित के नजरिये मे बदलाव और तेवर में ठहराव आ रहा था।गुस्से की दुलत्ती कभी-कभार ही पडती। समय बीत रहा था।मौसम बदल रहा था।
उसका बडा भाई आस्ट्रेलिया जाकर ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहा था। पिता ने उसके लिए भारी कर्ज लिया था। सुनहरे भविष्य की आस में अभिभावक अपना हरसंभव प्रयास कर रहे थे। अमित भी बारहवी के बाद अमेरिका से स्नातक की डिग्री लेने का मानस बना चुका था। अध्यापन ऋण की बात वो पिता के साथ जाकर बैंक मेनेजर से कर आया था। बारहवी बोर्ड मे वो अस्सी प्रतिशत अंक ले आया और अमेरीकन यूनिवर्सिटी मे उसे दाखिला मिल गया। दो महिने न्यूयार्क मे गुजारने के बाद वो स्टडी फ्राम होम लेकर घर आ गया। अब अमित का गुस्सा काफी हद तक सीमित हो गया था। अनिल का आस्ट्रेलिया मे कालेज खत्म होने को था और उसके बाद वहीं पर रहकर नौकरी करना भी उसका पक्का हो चुका था। अमित यह समझ चुका था कि बूढ़े होते मां – बाप को उसकी जरूरत पड़ेगी इसलिए घर से वो अपनी पढ़ाई करता रहा। साथ ही शेयर का काम भी चल रहा था। ज्ञान के वातायन जैसे- जैसे खुलते जा रहे थे वैसे – वैसे वो अपने साथ औरों को भी जोडता जा रहा था। सिलाई केंद्र की सभी महिलाओ का वह मनमीत बन ही चुका था।उसकी राय और सहयोग से लगभग सभी महिलाओ का भला ही हुआ वह अच्छा पैसा कमाने लग गई थी। अपनी आय का कुछ हिस्सा वह अमित से पूछकर शेयर मार्केट में लगा कर कभी कम तो कभी अधिक मगर फायदा ही पा रही थी।
ग्रैजुएट होने तक अमित अपनी आनलाइन शेयर ट्रेडिंग कम्पनी बना चुका था। शेयर मार्केट के गहरे अनुभव ने उसे मंझा हुआ खिलाड़ी बना दिया था। कनवोकेशन के लिए उसे अमेरीका जाना था तो माता – पिता का भी पासपोर्ट वीजा तैयार करवा लिया। अपने कमाए पैसो से उसने उनका टिकट खरीदा था। उसकी डिग्री उसकी प्राप्त विशेषज्ञता का एक छोटा प्रमाण मात्र था जिसे किसी नौकरी के आवेदन के साथ नत्थी करने की आवश्यकता पड़ने वाली नही थी।अपनी उबड़- खाबड़ मानसिकता को शनैः- शनैः दुरुस्त कर एक सुलझा हुआ इंसान बनकर जीवन में रोजगार पाने की परीक्षा वो पूरे अंक से उत्तीर्ण कर चुका था।