संजय सक्सेना
लखनऊ : पूरे देश के साथ-साथ कांग्रेस का गांधी परिवार उत्तर प्रदेश में भी अपनी साख खोता जा रहा है। एक तरफ गांधी परिवार के सदस्य चुनाव लड़ने का साहस नहीं दिखा पा रहे हैं तो दूसरी तरफ गांधी परिवार अपने वफादारों के साथ बेवफाई करता जा रहा है,जिसके चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव आखिरी उम्मीद बन गया है। 1984 के लोस चुनाव में उत्तर प्रदेश(उत्तराखंड के गठन से पूर्व) में 85 में 83 सीटें जीतकर सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस 40 वर्षों के अंदर 2019 के चुनाव में रायबरेली की एक सीट पर सिमट कर रह गई थी। 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की मिली बड़ी जीत के पीछे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या बड़ी वजह बनी थी, लोगों ने इंदिरा लहर के नाम पर कांग्रेस 51.03 प्रतिशत वोट दिए थे। इसके बाद भाजपा, सपा और बसपा ने अपना-अपना जनाधार बढ़ाया और 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद 2014 में उसे मात्र दो सीटें और 2019 में तो एक ही सीट पर जीत हासिल हो पाई थी।स्थिति यह है कि अबकी से तो यूपी में चुनाव ही मात्र 17 सीटों पर लड़ रही है।
खैर,कांग्रेस की यह दुर्दशा पहली बार नहीं हुई है। 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए आम चुनाव के साथ-साथ 1998 में भी कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी। इसके बाद कांग्रेस का मुस्लिम और दलित वोट कांग्रेस का साथ छोड़कर सपा-बसपा के साथ चला गया। बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के वंचित समाज के वोट बैंक पर अपना कब्जा कर लिया। 2014 व 2019 के चुनाव में भाजपा ने 71 व 62 सीटों पर जीत दर्ज कर उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का पत्ता साफ कर दिया था।
इस बार कांग्रेस गठबंधन के तहत समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है,जिसमें से रायबरेली से कांग्रेस को सबसे अधिक उम्मीद है। राहुल गांधी ने यहां से नामांकन करके कांग्रेसियों में उत्साह का संचार कर दिया है। 2019 में राहुल अमेठी से बीजेपी की प्रत्याशी स्मृति ईरानी से चुनाव हार गये थे। उम्मीद यही थी कि राहुल फिर से अमेठी में अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने की कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मोदी के शब्दों में राहुल डर कर भाग गये। 2019 में अमेठी से हार के बाद इस बार अगर राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा। राहुल गांधी की जीत इसलिये पक्की नहीं है क्योंकि यहां से बीजेपी ने दिनेश प्रताप सिंह को उम्मीदवार बनाया है, जिसके बाद इस सीट पर लड़ाई तेज हो गई है. दिनेश सिंह ने अपनी जीत का दावा किया. दिनेश प्रताप सिंह ने कहा कि रायबरेली में बीजेपी के लिए कोई चुनौती नहीं है. देश की जनता जानती है कि पीएम मोदी के हाथ में देश सुरक्षित हैं. गांव और गली तक पीएम मोदी की सेवाएं पहुंची हैं. उन्होंने कहा कि जितने वोट से सोनिया गांधी अथवा राहुल गांधी की अम्मा ने हमें हराया है उससे अधिक वोटों के अंतर से इस बार हम राहुल गांधी को हराकर भेजेंगे. भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को बुलंद करने के लिए उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के सफाए की पूरी रणनीति तैयार कर ली है। उन्होंने कहा, मैं किसी कोने से इन्हें गांधी नहीं मानता है. ये नकली गांधी हैं. असली गांधी को देश महात्मा गांधी कहता है, उन्हें राष्ट्रपिता कहता है. इन नकली गांधी को जो अपने दादा को दादा कहने से इनकार कर दे वो गांधी नहीं हो सकता, वो भारतीय नहीं हो सकता है.
रायबरेली से बीजेपी प्रत्याशी दिनेश प्रताप की बातों में दम लगता है। एक तरफ जहां भाजपा ने 1.6 लाख बूथों पर मजबूत प्रबंधन किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस केवल 70 हजार बूथों पर ही प्रभारियों की तैनाती कर सकी है। इस बार बसपा ने भी अपना प्रत्याशी रायबरेली से उतारा है। इसलिए कांग्रेस की राह इतनी आसान होने वाली नहीं हैं। यह अलग बात है कि राहुल के चुनावी मैदान में उतरने से रायबरेली व अमेठी सहित कुछ अन्य सीटों पर भी गठबंधन के चुनाव प्रचार को धार मिलेगी।
बात गांधी परिवार की परम्परागत सीटों रायबरेली और अमेठी की कि जाये तो यहां राहुल गांधी परिवार की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं। ऐसा इसलिये कहा जा रहा है क्योंकि हार की डर से राहुल गांधी ने अमेठी से पलायन कर लिया है,जो ऐसे किसी नेता को शोभा नहीं देता है जो स्वयं पार्टी को लीड कर रहा हो। भले ही जयराम रमेश जैसे माउथ पीस कुछ भी कहते रहें। उम्मीद की जा रही थी कि रायबरेली से प्रियंका गांधी को पहला चुनाव लड़ाया जाएगा और राहुल अमेठी से ही चुनावी मैदान में उतरेंगे,लेकिन सियासी मंच पर बड़े-बड़े दावे और मोदी को कोसने वाली प्रियंका हार की डर से मैदान में नहीं उतरी,क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि राजनीति में उनकी ‘बोनी’ ही खोटी हो जाये। सोनिया गांधी ने भी प्रियंका को मनाने के प्रयास किए, लेकिन प्रियंका नहीं मानी। उम्मीद यह है कि यदि राहुल जो वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं अगर दोनों सीटों पर जीतते हैं तो वायनाड की सीट प्रियंका के लिए छोड़ देंगे,परंतु यहां प्रियंका जीत ही जायेंगी। यह दावे से नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वॉयनाड के मतदाता अभी से राहुल गांधी पर हमलावर हो गये हैं। वह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि राहुल गांधी ने रायबरेली से चुनाव लड़ने वाली बात वॉयनाड से छिपाकर धोखा किया है।केरल की वायनाड लोकसभा सीट से सीपीआई उम्मीदवार ऐनी राजा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नसीहत दी है। उन्होंने कहा कि राहुल को दो सीट से लड़ने का अधिकार है, लेकिन ये वायनाड की जनता के साथ अन्याय है। मुझे वायनाड में जीत का भरोसा है। उन्होंने सवाल किया कि कांग्रेस बताए कि अगर दोनों जगह जीते तो राहुल कौन सी सीट छोड़ेंगे? खैर,रायबरेली से राहुल गांधी के ताल ठोंकने की एक वजह और बताई जा रही है कि राहुल वायनाड से जीत को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। अमेठी से 2019 का चुनाव हार चुके हैं, इस बार भी स्मृति ईरानी से उन्हें कड़ी टक्कर मिलती। इसलिए पार्टी एक तीर से दो निशाने साधे हैं।
गांधी परिवार ने अपनी सीट तो बचा ली,लेकिनवर्षाे पुराने अपने एक वफादार को अमेठी के चुनावी मैदान में उतर कर उन्हें बुरी तरह से फंसा दिया। लोग सवाल खड़ा कर रहे हैं कि किशोरी लाल शर्मा को 40 वर्षों की गांधी परिवार की सेवा का यही पुरस्कार दिया जा सकता था। मूल रूप से पंजाब के लुधियाना निवासी शर्मा को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1983 में पहली बार अपने प्रतिनिधि के रूप में अमेठी लेकर आए थे। इसके बाद से वह अमेठी और रायबरेली में गांधी परिवार के दूत के रूप में सक्रिय रहे हैं,लेकिन उनका ज्यादा समय रायबरेली में ही बीतता था। यहां उनकी हर घर में पहचान थी। किशोरी लाल को यदि गांधी परिवार उनकी सेवा का सचमुच ईमान देना चाहती तो उन्हें अमेठी नहीं रायबरेली से प्रत्याशी बनाती जहां से उनकी जीत की ज्यादा उम्मीद रहती। स्मृति ईरानी को शर्मा कितनी मजबूत चुनौती दे पाएंगे यह आने वाले कुछ दिनों में स्पष्ट होगा।
सवाल यह खड़ा हो रहा है कि गांधी परिवार की बेवफाई का शिकार तो नहीं हो गये हैं अमेठी के कांग्रेस प्रत्याशी किशोरी लाल शर्मा। इसकी पहली झलक तब देखने को मिली जब शर्मा के नामांकन के समय गांधी परिवार का कोई सदस्य उनके साथ नहीं खड़ा दिखा।इतना ही नहीं अन्य बड़ें कांग्रेसी चेहरे भी किशारी लाल शर्मा के नामांकन के समय नदारत थे,जबकि गांधी परिवार चाहता तो ऐसा नहीं होता।