डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यूरोप-यात्रा बड़े नाजुक समय में हो रही है। वे सिर्फ तीन दिन यूरोप में रहेंगे और लगभग आधा दर्जन यूरोपीय देशों के नेताओं से मिलेंगे। वे जर्मनी और फ्रांस के अलावा डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, आइसलैंड और फिनलैंड के नेताओं से भी भेंट करेंगे। उनके साथ हमारे विदेश मंत्री, वित्त मंत्री आदि भी रहेंगे। कोरोना महामारी के बाद यह उनकी पहली बहुराष्ट्रीय यात्रा होगी। एक तो कोरोना महामारी और उससे भी बड़ा संकट यूक्रेन पर रूसी हमला है। इस मौके पर यूरोपीय राष्ट्रों से संवाद करना आसान नहीं है, क्योंकि यूक्रेन-विवाद पर भारत का रवैया तटस्थता का है लेकिन सारे यूरोपीय राष्ट्र चाहते हैं कि भारत दो-टूक शब्दों में रूस की भर्त्सना करे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सला वॉन देर लेयन ने भारत आकर बहुत कोशिश की वे भारत को अपनी तरफ झुका सकें। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री दोनों ने स्पष्ट कर दिया कि वे रूसी हमले का समर्थन नहीं करते हैं लेकिन उसका विरोध करना भी निरर्थक होगा। अब मोदी की यूरोप-यात्रा के दौरान इस मुद्दे को उन राष्ट्रों के द्वारा बार-बार उठाया जाएगा लेकिन यह निश्चित है कि यूरोप के साथ बढ़ते हुए घनिष्ट आर्थिक और सामरिक संबंधों के बावजूद भारत अपनी यूक्रेन नीति पर टस से मस नहीं होगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत का यह सुदृढ़ रवैया इन यूरोपीय राष्ट्रों और भारत के बढ़ते हुए संबंधों के आड़े आएगा। फ्रांस के साथ भारत का युद्धक विमानों का बड़ा समझौता हुआ ही है। जर्मनी और फ्रांस दोनों ही यूक्रेन के तेल और गैस पर निर्भर हैं। अभी तक वे उसकी वैकल्पिक आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा जर्मनी के नए चान्सलर ओलफ शोल्ज़ से भी मोदी की मुलाकात होगी। नोर्डिक देशों के नेताओं से मिलकर भारत के व्यापार को बढ़ाने पर भी वे संवाद करेंगे। पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में लगभग सभी प्रमुख यूरोपीय राष्ट्रों ने सारे दक्षिण एशिया, खासकर भारत के कच्चे माल से अरबों-खरबों डाॅलर बनाए हैं लेकिन आज इन सारे देशों का भारत के साथ सिर्फ 2 प्रतिशत का व्यापार है। 180 करोड़ लोगों के बीच इतने कम व्यापार के कई कारण हैं लेकिन उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे व्यापारी पूरी तरह अंग्रेजी पर निर्भर हैं। यदि इन देशों की भाषाएं वे जानते होते तो यह व्यापार 10-15 प्रतिशत आराम से फैल सकता है। यदि भारत और यूरोपीय देशों का राजनीतिक और सामरिक सहयोग बढ़ेगा तो उसका एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता में भारत को किसी एक महाशक्ति या गुट के साथ नत्थी नहीं होना पड़ेगा।