संजय सक्सेना
लोकसभा चुनाव का शोर थम गया है। अब नतीजों की समीक्षा का दौर है। सभी दलों के नेता अपनी-अपनी खामियां और खूबियों का आकलन कर रहे हैं। मगर आम आदमी के नज़रिये से देखा जाए तो यह चुनाव कई मायनों में निचले से निचले स्तर पर जाता दिखा.तमाम दलों के नेता उनके समर्थक बार बार अपनी जुबान से जहर उगलते रहे। जाति,धर्म,राम मंदिर,आरक्षण,मुस्लिम आरक्षण,संविधान, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार,ईवीएम, किसान से लेकर वो जिहाद,मंगलसूत्र, मुजरा, कानून व्यवस्था,बाहुबली, मिट्टी में मिल गये माफिया, मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं सब छाये रहे. एनडीए सरकार की सभी योजनाओं में से प्रति व्यक्ति 5 किलो मुफ्त अनाज सबसे प्रभावी और दूरगामी प्रतीत हुआ। जाति या समुदाय से इतर दूरदराज के इलाकों में जितने भी लोगों से बात हुई, उनमें से अधिकांश ने माना कि उन्हें मुफ्त अनाज मिला है। जरूरतमंदों ने इसके लिए सरकार की खूब सराहना की। इसी प्रकार प्रधानमंत्री आवास,आयुष्मान स्वास्थ्य योजना का फायदा उठाने वाला एक बड़ा वर्ग बीजेपी की हौसला अफजाई करता रहा। गुलाम कश्मीर, पाकिस्तान और चीन की भी खूब बात हुई।
जीवन और आजीविका के रोजमर्रा के संघर्ष-रोटी-कपड़ा और रोजगार पूर्वी और पश्चिमी यूपी में हर किसी चुनावी चर्चा का अभिन्न अंग तो रहे, लेकिन चुनावी चर्चा में जाति और समुदाय की केंद्रीयता ज्यादा बनी रही।मोटे तौर पर भाजपा के सामाजिक गठबंधन (उच्च जातियां $ पटेल, निषाद और अन्य जैसे गैर-यादव ओबीसी) और समाजवादी पार्टी (यादव $ मुस्लिम) बरकरार हैं। वहीं बसपा अपने दलित कोर वोटरों पर ध्यान केंद्रित करें रही। कई नेताओं ने इधर से उधर पल भी बदला। पूरे देश की तरह उत्तर प्रदेश में पूरी चुनावी बहसों के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नज़र आए। यहाँ तक कि कई जगह तो भाजपा उम्मीदवार के नाम तक की चर्चा भी नहीं देखने को मिली। ऐसा लग रहा था जैसे नेताओं के सामने पार्टी गौण हो गई थी।यह नजरा बीजेपी,कांगे्रस ही नहीं सभी दलों में देखने को मिला।वहीं कुछ अहम मुद्दे छूट भी गए। खासकर पर्यावरण प्रेमी इस बात से नाराज दिखे कि पर्यावरण, जल, जंगल,जमीन की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
लोकतंत्र की बुनियाद चुनाव हैं और चुनाव में नेता और वोटर एक-दूसरे को संवाद व अन्य माध्यमों से परखते हैं,लेकिन अब संवाद का सिलसिला काफी बदल गया है। बड़े नेताओं की जनसभाओं के दौरान सब कुछ मोबाइल से हो रहा है।सोशल मीडिया पर अलग से लड़ाई जारी थी। एक समय था जब लाउडस्पीकर लगी जीप गांवों में पहुंचती थी, तो बच्चे उसके पीछे भागने लगते थे। इस जीप से बिल्ला लुटाए जाते थे। इन पर प्रत्याशियों की फोटो और चुनाव चिन्ह छपा होता था। बिल्ले को लूटने और इकट्ठा करने का उस वक्त बच्चों से लेकर युवाओं तक में अलग ही क्रेज था। इसी से हमको पता चलता था कि चुनाव आ गया है। यादों के फ्लैशबैक से यह कहना है बरौला निवासी चौधरी बीसी प्रधान का। वह बताते हैं कि अब सोशल मीडिया पर प्रत्याशियों की रील दिखती हैं और वाट्सऐप मेसेज से पता चल रहा है। वक्त के साथ प्रचार सामग्री में यह बड़ा बदलाव आया है। पहले की तरह कपड़े के बैनर और झंडे भी अब नजर नहीं आते हैं। यही नहीं इस चुनाव में दीवारों पर चिपकाए जाने वाले कागज के पोस्टर भी नजर नहीं आ रहे हैं। इस बदलाव को 35-40 साल की उम्र वाला तबका महसूस कर रहा है।
अतीत पर नजर डाली जाये तो पहले राष्ट्रीय दलों के प्रचार के तरीकों और सामग्री की पहुंच आसान थी। चुनावी नारों और लाउडस्पीकर पर बजने वाली रेकार्डेड कैसेट में हर दल के गाने भी अलग रहते थे। इन गानों के बजने से ही घरों में बैठे लोग यह जान जाते थे कि कौन से दल का प्रचार वाहन आया है। अब चुनाव आयोग की बंदिशों के साथ शहरीकरण से छाए शोर में लाउडस्पीकर उपयोगी नहीं बचा है। यही नहीं चुनावी सभाओं में भी अब लाउडस्पीकर की जगह साउंड ही नजर आते हैं। इसी तरह दीवारों पर होने वाली पेंटिंग भी विलुप्त हो गई है। कई और बदलाव भी हो चुके हैं। बात अगर यूपी की करें तो नीला, भगवा, पीला, सफेद यह रंग अलग-अलग दलों के हैं। दादरी निवासी ओमी सिंह (88) बताते हैं कि पहले किसी दल का कोई रंग नहीं था, न ही इतने दल थे। फिर धीरे-धीरे दल और चुनाव में प्रचार सामग्री बढ़ने लगी। प्रत्याशी हाथ से कपड़े पर अपना नाम लिखवाकर और चुनाव चिन्ह बनवाकर चैराहें, बाजार में टांगते थे। नेताओं की बड़ी सभाओं में भी मंच पर यह बैनर ही लगते थे। यह बैनर अलग-अलग दिखें और दूर से समझ में आ जाए इसलिए इनको अलग-अलग रंग दिया जाने लगा। अब मौजूदा समय में हर दल का यह रंग सोशल मीडिया पर भी उनके पोस्टर व फ्लैक्स व होर्डिंग में नजर आता है।
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिये चुनाव और उसमें मतदाताओं की भागीदारी काफी अहम है,लेकिन प्रदेश में पश्चिम क्षेत्र से शुरू हुआ लोकसभा का चुनावी सफर सातवें चरण में पूर्वांचल पहुंचते-पहुंचते मतदान प्रतिशत के लिहाज से हांफने हुये भी दिखा। मतदाताओं ने पहले चरण में जो उत्साह दिखाया वह पूर्वांचल से जुड़ी सीटों पर नहीं दिखा। छठे और सातवें चरण की 14 सीटों पर सबसे कम वोटिंग हुई और पहले से छठे चरण की वोटिंग में सात प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई। पश्चिम उत्तर प्रदेश में पहले चरण के चुनाव में सबसे अधिक 61.11 प्रतिशत वोट पड़े थे जबकि छठे चरण में महज 54.04 प्रतिशत मतदान हुआ। छठे चरणों में उत्तर प्रदेश किसी भी चरण के चुनाव में राष्ट्रीय औसत के करीब भी नहीं पहुंच सका। प्रदेश में अब तक 80 सीटों पर हुए चुनाव में सबसे अधिक वोट बाराबंकी 67.20 और सबसे कम मतदान फूलपुर में 48.91 प्रतिशत पड़े हैं।
वोटिंग में आई गिरावट की वजह मतदाताओं की उदासीनता और गर्मी ही बताई जा रही है। पश्चिमी के सापेक्ष पूर्वांचल में पलायन भी अधिक महत्वपूर्ण है। मई-जून में लगन न होने की वजह से भी लोगों की वापसी भी इस क्षेत्र में कम हुई है। लखनऊ विश्वविद्यालय राजनीति शास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष एसके द्विवेदी बताते हैं कि पूर्वांचल के बहुत से लोग रोजी-रोजगार के सिलसिले से बाहर रहते हैं और यदि कोई बड़ी वजह न हुई तो वे वापस नहीं आते हैं। इस बार चुनाव में माफियाओं का हस्तक्षेप भी काफी कम देखने को मिला। इस वजह से भी उनके प्रभाव वाले लोग तटस्थ रहे। बता दें कि प्रदेश में सभी सात चरणों में 2019 के मुकाबले मतदान में कमी देखी गई है। राष्ट्रीय औसत के सापेक्ष भी फासला दो से 11 प्रतिशत (चरणवार) कम देखा गया। वर्ष 2019 में देश भर में 67 प्रतिशत लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था जबकि उत्तर प्रदेश का औसत आंकड़ा 59.21 प्रतिशत रहा था। चुनाव आयोग का प्रयास 2024 में इस अंतर को पाटने का था। मतदान के बाद यह उम्मीद दम तोड़ते दिख रहा हैं। बेहतर मतदान प्रतिशत के लिहाज से शीर्ष पांच लोकसभा सीटें बाराबंकी (67.20 प्रतिशत), खीरी (64.68 प्रतिशत), अमरोहा (64.58 प्रतिशत), धौरहरा (64.54 प्रतिशत) और झांसी (63.86 प्रतिशत) रहीं। वहीं, सबसे कम मतदान वाले पांच लोकसभा क्षेत्र फूलपुर (48.91 प्रतिशत), मथुरा (49.41 प्रतिशत), गाजियाबाद (49.88 प्रतिशत), प्रतापगढ़ (51.60 प्रतिशत) व गोंडा (51.62 प्रतिशत) रहे।