दो बाबू के हाथ कब तक रहेंगे ब्रान्ड मोदी के साथ?

How long will the hands of two babus remain with brand Modi?

ऋतुपर्ण दवे

मोदी मंत्रिमण्डल का गठन जरूर हो गया है लेकिन कयासों का दौर खत्म नहीं हुआ। एक बार में ही 72 सदस्यीय भारी भरकम मंत्रिमण्डल की वजहें लोग कुछ भी बताएं लेकिन यह नरेन्द्र मोदी की चतुराई कही जाएगी जो उन्होंने एक बारगी सारे किन्तु-परन्तु पर विराम लगा एक तीर से कई निशाने साधे। इससे न केवल सहयोगियों बल्कि भाजपा के आनुषांगिक संगठनों को भी बड़ा संदेश गया कि भले ही सीटें घटीं लेकिन मोदी की हैसियत वही है। घटक दलों के सहयोगियों का मोदी के तीसरे कार्यकाल में मंत्रिमण्डल बंटवारे में मिले पद और कद से भी काफी भ्रम टूटा। साफ दिखा कि नरेन्द्र मोदी ने जो चाहा वो किया। जिस शांति और धैर्य से घटक दलों के साथ पहली बैठक हुई, प्रमुख दोनों सहयोगी नीतिश बाबू और चंद्रबाबू ने मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़े उससे राजनीतिक नब्ज टटोलने वालों की भी धड़कनें असहज हुई। हम उम्र और राजनीति में मोदी से सीनियर होने के बावजूद नीतिश का उनके पैर छूने झुकना सबको अब भी हैरान कर रहा है।

यह भ्रम ही साबित हुआ कि जेडीयू को रेल तो टीडीपी को सड़क परिवहन मंत्रालय मिलना तय है। पुरानी सरकारों में रेल मंत्रालय प्रायः गठबन्धन के सहयोगियों के खाते में रहा। मौजूदा मंत्रिमण्डल में 33 नए चेहरे हैं जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री हैं। पहली बार मंत्री बनने वालों में 7 सहयोगी दलों से हैं। 7 महिलाएं भी मंत्री बनीं जिनमें 2 कैबिनेट और 5 राज्य मंत्री हैं। एक भी मुस्लिम मंत्रिमण्डल में नहीं है। आजादी के बाद पहला मौका है जब मुसलमान को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। नए मंत्रिमंडल में 21 सवर्ण, 27 ओबीसी, 10 एससी, 5 एसटी, 5 अल्पसंख्यक मंत्रियों को जगह मिली।

भावुक अपीलों और जनता से कनेक्ट होने में हुनरमंद मोदी का कोई सानी नहीं। अब उन्होंने नई अपील कर विपक्ष को बहस का नया मुद्दा दे दिया। अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल से ‘मोदी का परिवार’ हटाने की गुहार लगा दी। भले ही डिस्प्ले नाम बदले लेकिन भारत की तरक्की की कोशिशों के खातिर प्रयास करने वाले एक परिवार के रूप में हमारा बंधन मजबूत और अटूट है। इशारा अबकी बार एनडीए सरकार की ओर तो था ही साथ ही गठबन्धन के सहयोगियों को भी बता दिया कि अब वो कितने अहम हैं?

इसी बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान को देखना होगा जिसमें उन्होंने मणिपुर में शांति बहाली नहीं होने पर चिंता व्यक्त जताई और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तंज कसा। नागपुर में आरएसएस प्रशिक्षुओं को मोहन भागवत ने कहा कि 10 साल पहले मणिपुर में शांति थी। लेकिन साल भर से एकाएक हिंसा बढ़ गई। इस पर प्राथमिकता के साथ विचार करना होगा। चुनावी बयानबाजी से ऊपर उठकर राष्ट्र के सामने मौजूद समस्याओं पर ध्यान देने की जरूरत है। मणिपुर साल भर से शांति की राह देख रहा है। अब सरकार भी बन गई तब भी चर्चा नहीं रुकी कि जो हुआ वह क्यों हुआ, कैसे हुआ, क्या हुआ? झूठ भी कायदे से पेश किया गया। ऐसे में देश कैसे चलेगा? विपक्ष को विरोधी नहीं मानना चाहिए। उसकी राय जरूरी है। चुनावी गरिमा का ख्याल नहीं रखा गया जो जरूरी है। अभी चुनौतियां खत्म नहीं हुई है। यह बयान शायद भाजपा प्रमुख नड्डा के उस बयान का जवाब लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा अब अपने पैरो पर खड़ी है। भागवत के बाद संघ के बडे नेता इंद्रेश कुमार का बयान भी सुर्खियों में रहा जिसमें उन्होंने भी भाजपा की टॉप लीडरशिप पर निशाना साधा। हालाकि इस पर सफाई भी आई। लेकिन यह भी सही है कि इस बार संघ वैसा सक्रिय नहीं दिखा जैसे पहले के चुनावों में दिखता था। वहीं प्रधानमंत्री का एनडीए का 400 पार और भाजपा खुद 370 जीतने का नारा लक्ष्य से बहुत पीछे रह गया। अब सबकी निगाहें लोकसभा अध्यक्ष पर है। जिस पर फिर कयासों का दौर शुरू हो गया है। निश्चित रूप से विविधताओं से भरे भारत देश और उसकी राजनीति में मतांतर नए नहीं है। इसीलिए कभी लगता है कि मोदी के नेतृत्व की एनडीए सरकार बेहद मजबूत है तो कभी लगता है कि भाजपा और उसके अपने महत्वपूर्ण आनुषांगिक दल ही क्यों खफा हैं।

आंध्र प्रदेश विधानसभा में गजब का प्रदर्शन करते हुए टीडीपी-भाजपा गठबंधन ने बड़े बहुमत वाली जीत हासिल की। दोनों का एजेण्डा सबको पता है। टीडीपी मुस्लिम आरक्षण, परिसीमन, सी.ए.ए., अमरावती के विकास और विशेष दर्जे पर तबज्जो चाहेगी तो कमोवेश जेडीयू भी बिहार में ऐसे ही एजेण्डे के साथ अगले साल विधानसभा चुनाव में जाएगी। महाराष्ट्र में तो अभी चुनाव होने हैं। इन हालातों में महत्वपूर्ण घटक कब तक भाजपा के हमराह रहेंगे? जबकि महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश सहित बिहार में पद और कद पर कई बातें होनी शुरू हो गई हैं।

अपने दम पर बहुमत हासिल करने में नाकाम भाजपा नीत गठबंधन सरकार को लेकर दुनिया भर में कौतूहल था। लेकिन मंत्रिमण्डल गठन के बाद विभाग वितरण से लोग भौंचक्का हैं कि यह कैसा जादू? क्या सचमुच राजनीति में मंजे दोनों बाबू न केवल मोदी के साथ हैं बल्कि ब्रान्ड मोदी के दो हाथ हैं? बहुमत का आंकड़ा न छू पाने के बावजूद मंत्रिमण्डल बंटवारे में दिखी मोदी के मन की बात ने क्या सभी का लोहा मनवा लिया? हालांकि चंद्रबाबू नायडू के शपथ ग्रहण में नीतिश का न जाना फिर चर्चाओं में है। लेकिन इटली में जी-7 सम्मेलन में बिना सदस्य रह कर भी विशेष रूप से प्रधानमंत्री को बुलाना और दुनिया के शीर्ष नेताओं से मेल-मुलाकात के बाद मोदी की नई छवि और कार्यप्रणाली को लेकर राजनीतिक चर्चाओं ने नया मोड़ जरूर ले लिया है। लेकिन देश के अंदर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब और दक्षिण के चुनाव परिणामों के मायने पर भी जानकारों की राय बंटी हो सकती है। लेकिन यह सच है कि असल परीक्षा के लिए लोकसभा के नियमित सत्र और नए अध्यक्ष तक इंतजार करना ही होगा।

नई परिस्थितियों में खुद की छवि को बजाए मसीहाई दिखाने के बड़ी सहजता और विनम्रता से लबरेज दिखाकर भी प्रधानमंत्री मोदी नई एनडीए सरकार के वैसे ही सख्त मुखिया दिख रहे हैं जैसे बीते दोनों कार्यकाल में रहे। लोग तब और अब में फर्क भले ढूंढें लेकिन यह कब दिखेगा, कोई नहीं जानता। फिलाहाल 30 जून का इंतजार है जब मन की बात के जरिए तीसरे कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी का पहला संबोधन क्या होगा?