ललित गर्ग
विश्व मातृ दिवस महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है जो मातृ शक्ति की सार्थक अभिव्यक्ति देता है। जननी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का तथा मातृशक्ति की अभिवंदना का यह एक स्वर्णिम अवसर है। माँ की महिमा को उजागर करने वाला ऐतिहासिक दिन है। सेवा और समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति मातृ-शक्ति ने समाज और राष्ट्र को सृजनात्मक एवं रचनात्मक दिशाएँ दी हैं। अपने त्याग और बलिदान से परिवार, समाज और राष्ट्र की अस्मिता को बचाने का हर संभव प्रयत्न किया है। यहाँ तक कि परिवार संस्था की आधारभित्ति भी मातृ-शक्ति के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई है। इन सब स्थितियों के बावजूद मातृ-शक्ति कब तक समाज की जड़ता में जकड़ी रहे?
मां का त्याग, बलिदान, ममत्व एवं समर्पण अपनी संतान के लिये इतना विराट है कि पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। इसीलिये एच. डब्ल्यू. बीचर ने कहा कि मां का हृदय बच्चे की पाठशाला है।’
’मातृ देवो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है। ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह माँ भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार आदि कवि महर्षि वाल्मीकी की यह पंक्ति- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘मातृशक्ति’ की पूजा होती आई है। वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में माँ की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धन-धान्य आदि प्राप्त होता है।
ऐसा कहा जाता है कि भगवान हर किसी के साथ नहीं रह सकता इसलिए उसने माँ को बनाया। एक माँ हमारे जीवन की हर छोटी बड़ी जरूरतांे का ध्यान रखने वाली और उन्हें पूरा करने वाली देवदूत होती है। कहने को वह इंसान होती है, लेकिन भगवान से कम नहीं होती। वह ही मन्दिर है, वह ही पूजा है और वह ही तीर्थ है। तभी ई. लेगोव ने कहा है कि इस धरती पर मां ही ऐसी देवी है जिसका कोई नास्तिक नहीं। यही कारण है कि समूची दुनिया में मां से बढ़कर कोई इंसानी रिश्ता नहीं है। वह सम्पूर्ण गुणों से युक्त है, गंभीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान है। उसका आशीर्वाद वरदान है। जरा कभी मां के पास बैठो, उसकी सुनो, उसको देखो, उसकी बात मानो। उसका आशीर्वाद लेकर, उसके दर्शन करके निकलो। फिर देखो, जो चाहोगे मिलेगा- सुख, शांति, शोहरत और कामयाबी। ध्यान रहे, मां का दिल दुखाने का मतलब ईश्वर का अपमान है।
संसार महान् व्यक्तियों के बिना रह सकता है, लेकिन मां के बिना रहना एक अभिशाप की तरह है। इसलिये संसार मां का महिमामंडन करता है, उसके गुणगान करता है, इसके लिये मदर्स डे, मातृ दिवस या माताओं का दिन चाहे जिस नाम से पुकारें दिन निर्धारित है। अमेरिका में मदर्स डे की शुरुआत 20वीं शताब्दी के आरंभ के दौर में हुई। विश्व के विभिन्न भागों में यह अलग-अलग दिन मनाया जाता है। मदर्ड डे का इतिहास करीब 400 वर्ष पुराना है। प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में मदर्स डे मनाने का उल्लेख है।
मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किन्हीं शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। मां रूपी सूरज चरेवैति-चरेवैति का आह्वान है। उसी से तेजस्विता एवं व्यक्तित्व की आभा निखरती है। उसका ताप मन की उम्मीदों को कभी जंग नहीं लगने देता। उसका हर संकल्प मुकाम का अन्तिम चरण होता है।
किंतु वर्तमान परिवेश को देखते हुए यह सवाल अवश्य खड़ा होता है कि क्या आज की माँ जननी की भूमिका का सम्यक् निर्वहन कर रही है? अथवा क्या वे समाजशास्त्रियों के इस अभिमत पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रही कि बच्चा नागरिकता का पहला पाठ माँ की वात्सल्यमयी गोद में सीखता है। जबकि वस्तुस्थिति तो यह है कि माँ की गोद उसे नसीब होती कहाँ है? कुक्षि से बाहर आते ही उसे अलग पालने में सुला दिया जाता है। सोता है तो दूध की बोतल उसके मुँह से लगा दी जाती है। उसका लालप-पालन या देखरेख नर्स या आया के द्वारा होती है अथवा डे केयर सेंटर, बेबी केयर सेंटर में भेजकर कर्तव्यपूर्णता का लेबल लगा दिया जाता है। दो-ढाई वर्ष का होते ही नर्सरी में कम्प्यूटर द्वारा उसे अक्षर-बोध प्राप्त होता है। कुछ बड़ा होते ही उसे होस्टल में प्रविष्टि दिला दी जाती है। कितनी आधुनिक माताएँ तो ऐसी हैं जिन्हें अपने बच्चों से संवाद स्थापित करने का क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। करें भी कैसे ? उन्हें अपने निजी कार्यक्रमों से ही फुर्सत नहीं है। तब भला वह कैसे उन्हें बात-बात में तत्त्वबोध दें? कब मीठी-मीठी प्रेरक लोरियाँ सुनाकर संस्कारों की सौगात सौंपे? किस माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक मान-मर्यादाओं की अवगति दें? कैसे जीवन में धर्म की उपयोगिता का अहसास करवाएँ? तब फिर शून्यता के सिवा शेष हाथ भी क्या आएगा? मातृ दिवस मां की अस्मिता के धुंधलाने के कारणों की पडताल करने का भी अवसर है।
मां का दुलार और प्यार भरी पुचकार ही बच्चे के लिए दवा का कार्य करती है। इसलिए ही ममता और स्नेह के इस रिश्ते को संसार का खूबसूरत रिश्ता कहा जाता है। दुनिया का कोई भी रिश्ता इतना मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। डेविट टलमेज ने कटू सत्य को उजागर किया है कि माँ एक ऐसा बैंक हैं जहाँ हम अपने चोटों और परेशानियों को जमा कर के रखते हैं।
वेदमूर्ति, महामहोपाध्याय पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने एक बार कहा था, ‘‘तुम भारत के पतन का सच्चा कारण जानते हो? मैं समझता हूं कि यह दो कारणों से हुआ। हमनें भाग्य को परिश्रम से अधिक महत्व दिया और अपनी महिलाओं को, अर्थात् आधे समाज को एक सुन्न व्यवस्था में पहुंचा दिया। कितनी दयनीय बात है कि देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी, जिसने पुराणों के पृष्ठों में देवताओं को 4 या 8 हाथ दिये किन्तु देवियों को 108 हाथ दिये, उसी ने स्त्रियों को पुरुषों से नीचा स्थान दिया और उन्हें वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया और सबसे शोचनीय बात यह है कि उन्हें चारदिवारी में बंद कर दिया।’’‘मां’ को उसकी दैवी सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है।
मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि मां विधाता से कहीं कम नहीं है। क्योंकि मां ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोशा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। मां एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है।
महान् जैन आचार्य एवं अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी की मातृ शक्ति को भारतीय संस्कृति से परिचित कराती हुई निम्न प्रेरणादायिनी पंक्तिया पठनीय ही नहीं, मननीय भी हैं- ‘‘भारतीय मां की ममता का एक रूप तो वह था, जब वह अपने विकलांग, विक्षिप्त और बीमार बच्चे का आखिरी सांस तक पालन करती थी। परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा की गई उसकी उपेक्षा से मां पूरी तरह से आहत हो जाती थी। वही भारतीय मां अपने अजन्मे, अबोल शिशु को अपनी सहमति से समाप्त करा देती है। क्यों? इसलिए नहीं कि वह विकलांग है, विक्षिप्त है, बीमार है पर इसलिए कि वह एक लड़की है। क्या उसकी ममता का स्रोत सूख गया है? कन्याभू्रणों की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है।’’ अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।