गोविन्द ठाकुर
” 2024 के लोकसभा चुनाव में अपेक्षा से अधिक सींटे मिलने के कारण कांग्रेस काफी जोश में है.. जैसे कि लोकसभा में पीएम मोदी और विपक्ष के नेता राहुल ने एक दुसरे को उसी की भाषा में जबाव देने की बात कही थी, शायद कांग्रेस ने भी बीजेपी के नक्शे कदम पर चलना शुरु कर दिया है.. जैसे ही चुनाव खत्म हुए वे ही बीजेपी की तरह अगले चुनाव के लिए कमर कस ली…राहुल और उसकी टीम सभी राज्यों में जाकर कार्यकर्ताओं को मैसेज दे रहे हैं कि वे अब मोदी और उनके राज्यों को भी जीतेंगे…राहुल गांधी और कांग्रेस के नेता राज्यों में संगठन को समेटने और बीजेपी से सीधे लोहा लेने को ललकारने लगे हैं…अगर ऐसा होता है तो आगे की राजनीति काफी मजेदार होने वाली होगी…”
कांग्रेस कभी भी संगठन और कैडर आधारित पार्टी नहीं रही है। आजादी की लड़ाई के समय से यह एक ढीलाढाला वैचारिक संगठन है, जिसमें नेताओं को बांधे रखने वाली कुछ खास चीजें हैं। पहले महात्मा गांधी थे, फिर नेहरू हुए और उसके बाद नेहरू-गांधी परिवार हो गया। कांग्रेस को बांधे रखने वाली एक गोंद सत्ता यानी सरकार थी या सरकार बनाने की उम्मीदें थीं। कांग्रेस की एक महिला नेता ने कुछ समय पहले पाला बदल कर दूसरी पार्टी में जाने से पहले कहा था कि कांग्रेस या तो सत्ता में रहती है या सत्ता के इंतजार में। यह हकीकत है। इसी से जुड़ी दूसरी हकीकत यह है कि कांग्रेस सत्ता में रहती है तब भी संगठन का ध्यान नहीं रखती है और सत्ता के इंतजार में रहती है तब भी संगठन को मजबूत नहीं करती है। उसके ज्यादातर नेताओं को लगता है कि सरकार या सत्तारूढ़ दल की ओर से कुछ गलतियां होंगी और फिर लोग कांग्रेस को सरकार चलाने के लिए चुन देंगे। या नेहरू–गांधी परिवार कोई करिश्मा करेगा तो कांग्रेस को सत्ता मिल जाएगी। कांग्रेस कभी पारंपरिक राजनीति नहीं करती है। संगठन को मजबूत किया जाए। अच्छे नेता आगे बढ़ाए जाएं। महंगाई, बेरोजगारी या सरकार की दूसरी नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतर कर आंदोलन हो। लोगों को जाग्रत किया जाए। इस तरह की राजनीति में कांग्रेस का कभी यकीन नहीं रहा है।
तभी 10 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई। बड़ा आंदोलन तो छोड़िए छोटे छोटे आंदोलन भी नहीं कर पाई, जबकि इस बीच नोटबंदी जैसा खराब फैसला हुआ, जिसने करोड़ों लोगों को सीधे प्रभावित किया। आनन-फानन में जीएसटी कानून लागू हुआ, जिसका असर अर्थव्यवस्था पर भी हुआ और कारोबारियों के जीवन पर भी हुआ। महंगाई बेहिसाब बढ़ी। चार सौ रुपए का रसोई गैस सिलेंडर 11 सौ रुपए में बिकने लगा था और 60 रुपए लीटर के पेट्रोल की कीमत 112 रुपए लीटर तक पहुंच गई थी। लेकिन इनमें से किसी मुद्दे पर कांग्रेस ने कोई आंदोलन नहीं किया। तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ भी कांग्रेस कोई आंदोलन नहीं कर पाई। कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी की पहली सरकार के समय भूमि अधिग्रहण कानून के मसले पर कांग्रेस ने एक आंदोलन किया था और सरकार को कानून वापस लेने के लिए मजबूर किया था। लेकिन वह अपवाद है।
तब सवाल है कि कांग्रेस को कैसे पुनर्जीवन मिला? वह कैसे 52 सीटों से बढ़ कर 99 सीटों पर पहुंच गई? इसमें वो दोनों फैक्टर अहम रहे, जिनका ऊपर जिक्र किया गया है। सरकार और सत्तारूढ़ दल ने कुछ गलतियां कीं और नेहरू-गांधी परिवार का करिश्मा काम आ गया। सरकार के कामकाज से लोग परेशान थे। महंगाई और बेरोजगारी लोगों के लिए बड़ा मुद्दा बनी। उसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार सौ पार सीटों का नारा दिया। उसी बीच उनकी पार्टी के कई नेताओं ने कहा कि चार सौ पार सीट इसलिए चाहिए ताकि संविधान बदल सकें। फिर संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का मुद्दा भी बन गया।
जहां तक करिश्मे की बात है तो राहुल गांधी की एक के बाद एक हुई दो यात्राओं ने देश के बड़े हिस्से में यह धारणा बनवाई कि कांग्रेस ही विकल्प है। सो, भाजपा के नुकसान का फायदा कांग्रेस को मिल गया। यह मानने और कहने में कोई हिचक नहीं है कि कांग्रेस ने या विपक्षी पार्टियों ने अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ा। चुनाव प्रचार के दौरान सारे नेता, उनके हिमायती और चुनाव कवर कर रहे पत्रकार कह रहे थे कि चुनाव जनता खुद लड़ रही है। ऐसा पहले कई बार हो चुका है, जब जनता खुद चुनाव लड़ कर किसी को जितवा दे या हरा दे। लेकिन अक्सर ऐसा उनके साथ होता है, जिनके पास संगठन, कैडर या नेता नहीं होते हैं। हालांकि प्रादेशिक पार्टियों के पास संगठन भी है और नेता भी हैं लेकिन कांग्रेस का एक ढीलाढाला संगठन है, कैडर नहीं है और नेताओं का भी सर्वथा अभाव है।
तभी सवाल है कि क्या वह बिना संगठन या बिना कैडर के कैसे पुनर्जीवित होगी? ध्यान रह हर बार जनता चुनाव नहीं लड़ती है। जनता ने एक बार चुनाव लड़ा दिया और अपने पैरों पर खड़े होने लायक सीटें भी दिला दीं। इसके आगे कांग्रेस के पुनर्जीवित होने की संभावना इस पर निर्भर करेगी कि संगठन को पुनर्जीवित किया जाता है या नहीं? पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम तय होते हैं या नहीं? सड़क पर उतर कर पार्टी के नेता आंदोलन करते हैं या नहीं? यह ध्यान रखने की बात है कि कांग्रेस को सिर्फ लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना है कि वह पांच साल तक इंतजार करे। चुनावों का सीजन दो से तीन महीने में ही शुरू होने वाला है। जम्मू कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में इस साल चुनाव होने वाले हैं। इन चारों राज्यों में हरियाणा एकमात्र राज्य है, जहां कांग्रेस को अपने दम पर लड़ना है। बाकी तीन राज्यों में वह सहयोगी पार्टियों के साथ ही मिल कर लड़ पाएगी। इन चुनावों के नतीजों से कांग्रेस के पुनर्जीवित होने की संभावनाओं का पता चलेगा।
कांग्रेस के पुनर्जीवित होने के लिए पहली शर्त यह है कि वह उत्तर भारत के राज्यों में अपनी ताकत बढ़ाए। उसने आखिरी बार दो सौ सीटों का आंकड़ा 2009 में पार किया था और तब उसे उत्तर प्रदेश में 22 सीटें मिली थीं। उसने दिल्ली की सात में से छह सीटों पर जीत हासिल की थी। हरियाणा से लेकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से लेकर लगभग सभी हिंदी भाषी प्रदेशों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा था। सो, इन राज्यों में पार्टी के संगठन को बेहतर बनाने, कैडर जोड़ने, गठबंधन बनाने और जनता से मुद्दों के आधार पर भाजपा की केंद्र व राज्यों की सरकारों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना होगा। राहुल गांधी ने केरल की वायनाड सीट की जगह उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट चुनी है। कहा जा रहा है कि वे उत्तर प्रदेश में रह कर पार्टी को मजबूत बनाएंगे। लेकिन यह इतना आसान मसला नहीं है। अगर वे उत्तर प्रदेश में ज्यादा सक्रिय होंगे तो अपनी सहयोगी समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव को असुरक्षित करेंगे। इससे गठबंधन प्रभावित हो सकता है।
इसमें संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कोर वोट आधार का एक हिस्सा वापस लौटा है। मुस्लिम और दलितों का सद्भाव कांग्रेस के प्रति दिखा। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यादव मतदाता जरूर तेजस्वी और अखिलेश यादव के साथ रहे, हालांकि उनका भी एक हिस्सा भाजपा के साथ गया लेकिन दलित और मुस्लिम का पूरा रूझान कांग्रेस की ओर दिखा। इसे साथ जोड़े रख कर कांग्रेस किस तरह से भाजपा की अगड़ी जाति के वोट आधार में खास कर ब्राह्मण वोट में सेंध लगाती है उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। संगठन, कैडर, नेता, जनता से जुड़े मुद्दों पऱ आंदोलन के साथ साथ वोट आधार को मजबूत करने की चुनौती कांग्रेस के सामने है। उसे यह ध्यान रखना होगा कि भाजपा का वोट आधार कम नहीं हुआ है। लोग भाजपा को छोड़ कर दूसरी पार्टियों को वोट नहीं दे रहे हैं।
37.40 फीसदी से घट कर भाजपा का वोट 36.56 फीसदी जरूर हुआ है लेकिन वह इसलिए नहीं हो गया है कि उसके समर्थकों ने दूसरों को वोट दिया। उसके समर्थक थकान या निराशा में घर बैठे, जिससे मतदान प्रतिशत कम हुआ और उसी अनुपात में भाजपा का वोट घटा। राज्यों में फिर भाजपा वापसी कर सकती है। तभी कांग्रेस को वोट आधार की चिंता करनी होगी। उसका वोट 19 फीसदी से बढ़ कर 21 फीसदी हुआ है लेकिन यह 2004 के सबसे निचले स्तर यानी 23 फीसदी से भी दो फीसदी कम है। इसे बढ़ाने के उपायों पर कांग्रेस नेताओं को काम करना चाहिए। कांग्रेस नेताओं को याद रखना होगा कि जहां कोई दूसरा विकल्र्प नहीं है यानी तीसरी पार्टी नहीं है और भाजपा से सीधा मुकाबला है वहां लोग भाजपा से नाराज होते हैं तो कांग्रेस को वोट दे देते हैं। लेकिन इससे लंबे समय तक कांग्रेस की राजनीति नहीं चल पाएगी।