अश्वनी ए कौशिक
अभी तक ज्ञात ग्रहों में से पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां जीवन है। पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाने के लिए भी मिट्टी, पानी,हवा व भोज्य पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है। वहीं जीवन को विकसित बनाने के लिए जिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करना होता है उनमें औद्योगिकरण, खनन दोहन व जल विद्युत परियोजनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जैसे-जैसे मानव जाति को विकसित करने की गति बढ़ी है वैसे-वैसे ही प्राकृतिक दोहन भी बढा है। जलवायु में लगातार आ रहे परिवर्तनों से हताहत मानव जाति क्या यह समझने के लिए तैयार है कि यह सब मानव जाति के उन्हीं कार्यों का नतीजा है जो स्वयं के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जाने अनजाने में किए गए हैं। पृथ्वी की सतह का लगातार बढ़ता तापमान , कई जगह बाढ़ का आना, अलग-अलग जगह पर वर्षा के स्तर में परिवर्तन क्या इस ओर इशारा कर रहा है कि अब पृथ्वी का वायुमंडल एक नए तरीके के जलवायु परिवर्तन का आगाज कर रहा है।
मई जून की गर्मी से त्राहिमाम कर रहे जनमानस को मानसून की पहली फुहार का सुखद अहसास लेते वक्त यह भी समझना होगा कि यही मानसून आने वाली आपदाओं का कारण हो सकता है। जगह-जगह जल भराव व बाढ़ की स्थिति, बादल फटने से मैदानी क्षेत्रों में जनजीवन का प्रभावित होना, पहाड़ों पर अत्यधिक वर्षा से भूस्खलन का होना, फसलों व पशुओं का नुकसान होना आदि समस्याएं भी मानसून की अनियमितता को ही दर्शाती हैं। कहने को तो ये आपदाएं प्राकृतिक हैं लेकिन मानवीय कार्यों से मानसून पर होने वाले प्रभावों की भी समीक्षा की जानी चाहिए।
वर्षा के स्तर में बदलाव : देश के अधिकांश शहरों में हो रही वर्षा के स्तर को देखने से पता चलता है कि मानसून साल दर साल परिवर्तित होने की दिशा में है। कम समय में अधिक दिनों की वर्षा का एक साथ हो जाना , जैसे पिछले दिनों मुंबई में लगभग 10 दिनों की वर्षा का कुछ ही घंटे में हो जाना। देखना होगा कि यह आपदाएं पूरी तरह मानसून परिवर्तन की है या इनमें मानवीय हस्तक्षेप भी समझना होगा। मुंबई में 8 घंटे की इस बारिश ने वर्ष भर में होने वाली कुल वर्षा का 10 % स्तर पार कर दिया। उत्तर प्रदेश व बिहार की नदियां इतनी उफान पर है कि गंभीर बाढ़ जैसे हालात बने हुए हैं और पिछले कुछ सालों में दिल्ली के जो हालात बारिश के कारण हुए हैं वो किसी से भी छुपे नहीं है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हो रही अत्यधिक वर्षा के कारण पहाड़ों का दरकना लगातार जारी है, पिछले 20 दिनों में लगभग 1500 बार भूस्खलन हो चुका है। इन सब के परिणाम स्वरुप आम जनजीवन अस्तव्यस्त हुआ है और व्यापार ठहराव का मूल्य चुका रहा है। एक तरफ एल नीनो और वेस्टर्न डिस्टरबेंस जैसे तकनीकी शब्दों के अर्थ में दिमाग लगाता आमजन और दूसरी तरफ खराब व सुस्त प्रबंधन के कारण हो रही हानि को छुपाता शासन प्रशासन। सुदृढ़ , विकसित व त्वरित प्रबंधन की कमी को जनजीवन व व्यापार लगातार झेल रहा है।
सुनियोजित विकास कार्यक्रम की अवहेलना : सरकार द्वारा जिस तरह से सुनियोजित विकास के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उनमें त्वरित संभावनाओं को तलाशना मुश्किल हो जाता है। धीमी गति और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहे सुनियोजित विकास के कार्यक्रमों से लाभ कम हानि ज्यादा हो रही है। बाढ़ में बहती सड़कें, बिहार और झारखंड में 10 से ज्यादा पुलों का गिर जाना, कुछ तो उनमें ऐसे हैं जो अभी निर्माणाधीन है। यह सब राष्ट्रीय कार्य योजना की विफलता को ही दर्शाता है। करोड़ों रुपए का नुकसान होने के बाद भी क्या कंपनियों के ट्रैक रिकॉर्ड टेंडर के लिए चेक किए जाते हैं, किस स्तर तक उनकी समीक्षा की जाती है ? सरकार को राष्ट्रव्यापी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के लिए मजबूत और भ्रष्टाचार मुक्त आधारभूत ढांचा बनाना होगा, निगरानी तंत्र को मजबूत करना होगा और समीक्षा बैठकों से आगे बढ़कर राष्ट्रव्यापी योजनाओं को त्वरित और सुदृढ़ करना होगा।
जैव विविधता और जलवायु : जैव विविधता के बिगड़ते हालातों पर नजर डालें तो प्राकृतिक व मानवीय प्रक्रियाएं किस कदर उत्तरदायी हैं पता चलता है। विश्व आर्थिक मंच की माने तो पिछले 40 से 50 वर्षों में विश्व भर से लगभग 50% से ज्यादा जैव विविधता नष्ट हो चुकी है। जिसका स्पष्ट तौर पर प्रभाव जलवायु परिवर्तन पर भी पड़ा है। यहां तक की यही जैव विविधता मानव जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे आर्थिक और स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती है। जलवायु परिवर्तन से हमारी सबसे प्रभावशाली रूप से रक्षा करने वाली जैव विविधता प्रणाली आज स्वयं खतरे में है। जमीन का बढ़ता तापमान, कई जगह पानी की कमी, बाढ़, सूखा, समुद्र की सतह का बढ़ता तापमान आदि ऐसी आपदाएं हैं जिनके कारण जैव विविधता को काफी क्षति हुई है जिसमें विकास की अंधी दौड़ में भागते मानव के कार्यों को नकारा नहीं जा सकता। जलवायु परिवर्तन में कमी करने, खाद्य प्रणाली को सुचारु करने, मानव जीवन में विकास की निरंतरता को बनाए रखने और सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स के लक्ष्यों को भविष्य में हासिल करने के लिए जैव विविधता जैसे क्षेत्र का पुनर्संरक्षण और पुनर्संवर्धन आवश्यक है।
प्रबन्धन की नीति : लोचदार प्रबंधन की सफलता और हीला हवाली पिछले कुछ वर्षों में हुई बारिश के बाद नजर आती है। यक्ष प्रश्न यह है की जिम्मेदारी किसकी तय हो। आईएमडी की रिपोर्ट माने तो प्रतिवर्ष मानसून अपने तय समय से पहले आ रहा है। फिर भी प्रबंधन तंत्र का कार्य दिल्ली जैसे बड़े शहरों में पिछले कई वर्षों से लगातार सरकार की नाकामी को दिखा रहा है।
भारत की परिस्थितियों को देखते हुए और कई संस्थाओं की रिपोर्ट के आधार पर प्रबंधन तंत्र की मजबूती और सुदृढ़ व्यवस्था को सुचारू चलाने की अंत्यत आवश्यकता है ,साथ ही प्रबंधन तंत्र के बुनियादी ढांचे को फल फूल रही भ्रष्टाचार की लताओं से पूर्णतया मुक्त करना होगा। प्रबंधन को मजबूत दिशा देने के क्रम में मौसम विभाग के नए केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए ताकि उनके द्वारा दिए जाने वाले पूर्वानुमानों की सटीकता व विश्वसनीयता सुनिश्चित हो सके।
बढ़ते वर्षा स्तर और तापमान जैसी परिस्थितियां तो हमारे बस से बाहर हैं। लेकिन केवल जलवायु परिवर्तन और सरकारी तंत्र की विफलता की ओर इशारा कर देना मानव को अपनी नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता। विकास के नाम पर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और नियमों को ताक पर रखकर हो रहा विकास हमें किस ओर ले जा रहा है। एक तरफ वर्षा के स्तर में लगातार बढ़ोतरी और दूसरी तरफ भूजल स्तर की कमी आने वाली भावी पीढ़ी के सामने एक भयानक समस्या बनने जा रही है, जिसका असर भारत के कुछ शहरों में आज भी दिखाई देने लगा है। वही राजस्थान के कुछ गांव में हो रही सकारात्मक पहलों का हमें स्वागत करना चाहिए जिन्होंने रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए अपने भूजल को लगातार बढ़ाने का प्रयास किया है। वृक्ष, जो प्राकृतिक आपदाओं के कई रूपों को रोकने में सहायक हैं, की होने वाली कटाई भी जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण कारक है अब समय आ गया है कि केवल वृक्ष लगाने से काम नहीं चलेगा, सही समय पर वृक्षों को लगाना तथा उनके बढ़ने में सहायक अन्य कार्यों को मानव अपनी नैतिक जिम्मेदारी के तौर पर समझे। सरकार को भी चाहिए कि दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय लेते हुए ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के प्रयास, मजबूत व सुचारू प्रबंधन तंत्र, वैश्विक स्तर के निगरानी तंत्र, वनों की कटाई से संबंधित वन संरक्षण अधिनियम, भूजल स्तर सुधार के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग, विकास के नियमों आदि का कड़ाई से पालन तथा देशव्यापी किया जाना सुनिश्चित करें ताकि आने वाले भविष्य में आपदाओं से होने वाले नुकसान से बचा जा सके। आने वाली पीढ़ी के लिए भविष्य में विकराल रूप लेती हवा, पानी की समस्या का समाधान हमें आज में ढूंढना होगा। अब समय उन समस्याओं की समीक्षाओं का नहीं है कि क्या चला गया अब समय है यह देखने का कि क्या बचा पाए जो आने वाली पीढ़ी के भविष्य को सुखद, सुचारू बना सके तथा भविष्य में सतत विकास कार्यों के लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित कर सके।