ललित गर्ग
भारतीय हिंदू संतों की प्रमुख संस्था अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद (एबीएपी) की ओर से चौदह महामण्डलेश्वरों और संतों के निष्कासन की ताजा कार्रवाई पाखण्डी एवं छद्म बाबाओं से समाज को मुक्त करने का सराहनीय कदम है। अखाड़ा परिषद की गोपनीय जांच में अखाड़ों से जुड़े ये संत धार्मिक कार्यों के बजाय धनार्जन एवं अधार्मिक कार्यों में लिप्त पाए गए। ऐसे ही अन्य बाबाओं पर व्यभिचार, दुष्कर्म, जादू-टोटके व दूसरे अनैतिक कार्यों के भी आरोप लगते रहे हैं। इनके अलावा सौ से अधिक संतों को अखाड़ा परिषद ने नोटिस भी दिया है। निष्कासित किए गए संतों को अगले साल होने वाले कुंभ में भी प्रवेश नहीं मिलेगा। अखाड़ा परिषद की ताजा कार्रवाई इस तरह के कथित धर्मगुरुओं पर लगाम लगाने की प्रभावी कोशिश मानी जाएगी। इस तरह के प्रयास हर स्तर पर होने चाहिए, ताकि छद्म एवं पाखण्डी धर्मगुरुओं से समाज को मुक्ति मिल सके। आम लोगों में भी विवेक का जागरण जरूरी है, ताकि धर्म को विकृत करने वाली ऐसी घटनाओं को नियंत्रित किया जा सके।
अखाड़ा परिषद ने कुल चौदह ढोंगी संतों की एक सूची मीडिया में जारी की है। सूची में जेल की हवा खा रहे बाबा रामपाल, गुरमीत राम रहीम सिंह इंसां, आसाराम, नारायण साईं व असीमानंद के अलावा निर्मल बाबा, राधे मां और कई ऐसे इच्छाधारी बाबा शामिल हैं, जो पिछले कुछ सालों में अपनी करनी के चलते विवादों में रहे हैं। गोलगप्पा खिलाकर लोगों की हर समस्या का समाधान करने वाले निर्मल बाबा जैसे ढोंगियों के झांसे में लोग कैसे खिंचे चले आते हैं, इस पर भी अखाड़े की ओर से कई चौंकाने वाले तथ्य बताए गए हैं। उनका मानना है कि राधे मां और निर्मल बाबा जादू-टोटके से लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। बाबाओं की कारस्तानियों ने सबको सकते में डाल रखा है। महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ करना इन बाबाओं की दिनचर्याओं में शामिल था। लाज-शर्म की वजह से कुछ महिलाएं नहीं बोलती थीं, उन्हीं का ये बाबा फायदा उठाते थे। इन बढ़ती त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों के खिलाफ अब पूरा अखाड़ा परिषद मुखर हो उठा है। जरूरत है ऐसे ही अन्य शीर्ष धर्म संगठनों के सक्रिय होकर कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाई करने की।
फर्जी एवं पाखण्डी बाबाओं के मामले में भोले-भाले एवं अशिक्षित लोगों के जीवन के साथ जो खिलवाड़ हुआ है और जिन बाबाओं ने ये कुकर्म किया है, उन्हें ढूंढकर दंड देना ही चाहिए। फर्जी एवं पाखण्डी बाबाओं की परंपरा सदैव से दुष्टों के हाथ में रही है। इसका आरंभ किया था महाभारत में शकुनि ने। हमारे समाज एवं राष्ट्र ऐसे बहुत सारे बाबा रूपी शकुनि हैं, जिन्हें हम समय पर पहचान नहीं पाते हैं। कौरवों और पांडवों के बीच जब जुए का खेल हुआ, तो शर्त यही थी कि पांसे शकुनि चलेगा।
शकुनि ने पांसे भी ऐसे तैयार किए थे कि उसको परिणाम और प्रश्न मालूम थे। आधुनिक बाबा भी ऐसे ही पांसे चलते हुए हुए कइयों की जिंदगी को नरक बना रहे हैं, कइयों के घर उजाड़ रहे हैं। सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों का हुआ है, जो धार्मिक आस्थाओं के प्रति अटूट विश्वास रखते थे, क्योंकि भारत की पहचान सदा से ही साधु-संतों से जुड़ी रही है। लेकिन पिछले एक-दो दशक से कुछ फर्जी बाबाओं ने अपनी काम वासना एवं धनलोलुपता के चलते सबकुछ खंडित कर दिया है। इन बाबा रूपी शकुनियों को दंड देना ही पड़ेगा। आधुनिक बाबाओं की तरह महाभारत का शकुनि कभी किसी से नहीं डरता था, लेकिन वो कहता था, दुर्याेधन! मैं इस दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति से डरता हूं और वो श्रीकृष्ण हैं। तो हमें भी आधुनिक बाबाओं के लिये श्रीकृष्ण जैसी एक सख्त व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी। क्योंकि श्रीकृष्ण जब किसी को दंड देते थे तो अपना और पराया कभी नहीं देखते थे। श्रीकृष्ण धर्म में जय और जय में धर्म देखते थे। वर्तमान में धर्मगुरुओं एवं बाबाओं का जो चरित्र एवं आचरण प्रस्तुत हो रहा है, वह कष्टदायक एवं विनाशकारी है। इसलिये उनके लिये श्रीकृष्ण रूपी अनुशासन-व्यवस्था को सख्ती से लागू करना ही होगा।
अखाड़ा परिषद का अपना अनुशासन है। अखाड़े से जुड़े संतों में कोई दोष नहीं आ जाए, चरित्रहीनता न आ जाये, आचरण एवं जीवनशैली दूषित न हो जाये, इसे देखते हुए वह समय-समय पर अपने महामण्डलेश्वर व दूसरे संतों की कार्यप्रणाली की गोपनीय जांच कराता रहता है। ऐसी ही हाल में की गयी जांच में सामने आया कि धनार्जन में लिप्त रहने वाले संतों की कार्यप्रणाली अखाड़ों की रीति-नीति के विपरीत थी। इनमें कुछ के तो आपराधिक लोगों से भी संबंध सामने आए। राजनेताओं से भी उनके प्रगाढ़ संबंध रहे हैं। हर समुदाय में संतों का अलग ही स्थान रहता आया है। वे जहां विराजते हैं वह स्थान स्वतः ही उच्च हो जाता है। आज भी बड़ी संख्या में संत-महात्मा समाज को दिशा देने के काम में निःस्वार्थ भाव से जुटे हैं। पर बदलते दौर में संत-महात्मा-मुल्ला-मौलवियों व पीर-पगारों के छद्म-पाखण्डी वेश में ऐसे लोग भी सामने आने लगे हैं जो धार्मिक कार्यकलापों की बजाय न केवल अर्थार्जन में जुटे रहते हैं बल्कि अंधविश्वास, व्यभिचार और पाखण्ड को बढ़ावा देने में जुटे हैं। छद्म धर्मगुरु और संत लोगों की धार्मिक श्रद्धा एवं अंधभक्ति का फायदा उठाकर उन्हें ठगते हैं। ऐसे लोगों का गाहे-बगाहे सियासी जुड़ाव भी सामने आता रहता है। ऐसे ही लोग संत समाज को बदनाम करते हैं, जिससे लोगों की धार्मिक आस्था भी डगमगाने लगती है।
धर्मगुरुओं के धन के प्रति बढ़ते आकर्षण ने भी अनेक तरह की विसंगतियों एवं विकृतियों को जन्म दिया है। अब तक धर्म और धर्मगुरुओं के इर्द-गिर्द ठाट-बाट और राजा-महाराजाओं जैसी वैभवपूर्ण स्थितियां ही देखने को मिलती थीं, लेकिन अब ये तथाकथित धर्मगुरु स्वयं व्यापारी बनकर बड़ी-बड़ी कंपनियों का संचालन कर रहे हैं। एक प्रमुख महिला धर्मगुरु बहुत सारे धार्मिक कार्यों के अलावा अस्पताल, एक टीवी चैनल, इंजीनियरिंग कॉलेज और बिजनेस स्कूल चलाती है। हाल ही में दिल्ली में आयोजित हुए विश्व धार्मिक सांस्कृतिक सम्मेलन में देखा कि किस तरह से पानी से लेकर खाद्य पदार्थ तक बेचे गए। एक बड़ा पंथ चलाने वाले राम-रहीम ऑर्गेनिक उत्पाद खिलाकर देश को सेहतमंद बनाने की तमन्ना रखते हैं। ये एक ऐसी लंबी सूची है जिसमें वर्तमान के लगभग सभी चर्चित धर्मगुरु ऐसे ही व्यावसायिक कार्यों और लाभकारी इकाइयों से जुड़े हैं। व्यावसायिक लाभों के लिए राजनीतिक और व्यावसायिक नेटवर्क रखने के साथ-साथ बड़ी संख्या में धार्मिक अनुयायी रखना इन तथाकथित धर्मगुरुओं की परंपरा रही है।
राजनीति पर धर्म के अनुशासन की बात उचित है, लेकिन धर्मगुरुओं को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए, इस बात की जरूरत सर्वाधिक है। अपनी लोकप्रियता के बल पर कुछ धर्मगुरु भारतीय राजनीति के बदलते दौर में कुछ सीटें जीतकर सामने आए हैं। धर्मगुरु से राजनीतिज्ञ बन जाने की ये घटनाएं न केवल धर्मक्षेत्र के लिए बल्कि राजनीति के लिए भी घातक हैं। जहां धर्मगुरुओं के अनुयायी अधिक संख्या में हैं, उन क्षेत्रों में वे स्वयं जीतें न जीतें, वहां के परिणाम को प्रभावित कर ही सकते हैं। उनका यह असर किस दिशा में होगा? कौन सी बड़ी ताकत को लाभ मिलेगा? यानी राजनीति एवं राजनेताओं पर इन धर्मगुरुओं एवं बाबाओं का गहरा प्रभाव एवं वर्चस्व भी अनेक विसंगतियांे का कारण बना है। हाथरस में सूरजपाल जाटव उर्फ साकार हरि ’बाबा’ के तथाकथित सत्संग में 121 लोगों की मौत का कारण बना। ऐसे फर्जी एवं तथाकथित चमत्कारी बाबाओं के चक्कर लगाने वालों में महिलाएं एवं दलित बड़ी संख्या में हैं। भगदड़ एवं अन्य हादसों की स्थिति में यही लोग मारे जाते हैं। प्रश्न है कि ढोंगी एवं पाखण्डी बाबाओं के पास जाने वाले लोग अपनी तर्क-बुद्धि एवं विवेक से काम क्यों नहीं लेते? अंधविश्वासों के सहारे तरक्की की सीढ़ियां क्यों चढ़ना चाहते हैं? ये विडंबनापूर्ण स्थितियां हैं। जनता की कमजोरी के कारण ही कभी हमारे यहां धर्म की राजनीति में घुसपैठ होती रही है तो अब आर्थिक गतिविधियों से उनका गठबंधन हो रहा है। जब-जब ऐसी स्थितियां हुई हैं, तब-तब धर्म और धर्मगुरु अपने विशुद्ध स्थान से खिसके हैं। खिसकते-खिसकते वे ऐसी डांवाडोल स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां धर्म को अफीम कहा जाने लगा है।