डॉ रघुवीर चारण
मानसून के आगमन से ही हिमालय की तलहटी से मैदानी इलाक़ो तक प्राकृतिक हरीतिमा छाई हुई है वर्षा ऋतु सर्व प्राणियों के जीवन में उत्साह व उल्लास का संचार करती है हमारे देश में दक्षिण-पश्चिमी मानसून की शुरूआत रिमझिम फुहारों से होकर आसमानीं आफ़त का रूप ले चुकी है बीतें कुछ दिनों से दक्षिण से उतर भारत तक पानी का रौद्र रूप देखने को मिला ।
मानसूनी बारिश कई प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देती है उसमें से एक भूस्खलन भी है हालही में केरल के वायनाड में तीव्र भूस्खलन ने मुंडक्कई, चूरलमाला कस्बों का अस्तित्व मिटा दिया इस भीषण त्रासदी में सैकड़ों लोग मारे गए कई अभी भी लापता है मंगलवार की उस अँधेरी रात ने वहाँ के जनज़ीवन को अस्त व्यस्त कर दिया ये विनाशकारी लैण्डस्लाइड अब राष्ट्रीय आपदा बन चुकी है।
केरल से क़ेदारनाथ तक भूस्खलन,फटते बादल व नदियों में उफ़ान से आई बाढ़ ने ज़लवायु परिवर्तन,जैवविविधता और प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय मुद्दों को फिर से ज्वलंत किया हमारे देश में उपरोक्त महत्त्वपूर्ण मुद्दों की चर्चा केवल मानसूनी सीजन में होती है उसके उपरांत ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं भारत में ज़लवायु परिवर्तन विषय को लेकर आज भी तकरार है ।
सर्वाधिक समृद्ध जैव विविधता वाले राज्य केरल में लगातार हो रहे भूस्खलन चिंता का विषय है अब ज़रूरत है इन विनाशकारी आपदाओं के कारणों को तलाशने की जिनकी वजह से प्रकृति रौद्र होती जा रही है पिछले कुछ वर्षों में किए गए अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन और वन क्षेत्र की हानि वायनाड में विनाशकारी भूस्खलन के दो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण हैं भारतीय अंतरिक्ष विभाग के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र और इसरो की बीते वर्ष जारी भूस्खलन मानचित्र के मुताबिक, भारत के 30 सर्वाधिक भूस्खलन-संभावित जिलों में से 10 केरल में ही थे, और वायनाड इनमें 13वें स्थान पर था इसी में यह भी कहा गया था कि पश्चिमी घाट का 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है।
मानव कई वर्षों से प्रकृति से खिलवाड़ करता आ रहा है पर्यावरण संवेदनशील पश्चिमी घाट के इस भू भाग पर पेड़ो की कटाई,अवैध खनन,पर्यटन और विकास के नाम पर इमारतों का निर्माण जैसी मानवीय गतिविधियों को बढ़ावा मिला वायनाड में घटते वन क्षेत्र पर 2022 के एक अध्ययन से पता चलता है की बीते सात दशक में जिले के 62 फीसदी वन गायब हो गए।तथा लगातार खनन से पहाड़ों में अस्थिरता आई है जिसके नतीज़े हमारे सामने हैं अब इन प्राकृतिक आपदाओं को मानव जनित आपदा कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।
इक्कीसवीं सदी में जलवायु परिवर्तन वैश्विक मुद्दा बना हुआ है धरती का बढ़ता तापमान,पिघलते ग्लेशियर,भूजल में कमी,बाढ़ व सूखे की बढ़ती आवृति,स्वास्थ्य संबंधी विकार और वर्षा का बदलता पैटर्न जलवायु परिवर्तन की देन है पिछलें कुछ वर्षों में बारिश के असमान वितरण अर्थात् अचानक भारी वर्षा में बढ़ोतरी होने से मानसूनी त्रासदियाँ बढ़ती जा रही है अब समय है जलवायु में हो रहे बदलाव पर कार्य करने का ।।
वर्ष 2011 में मशहूर पर्यावरण्विद् माधवन गाडगिल की रिपोर्ट ने पश्चिमी घाट को पर्यावरण के प्रति अतिसंवेदनशील बताया था और इस क्षेत्र में इंसानी गतिविधियों पर रोक की सिफ़ारिश की इसके बावज़ूद तत्कालीन सरकारों द्वारा वोटबैंक के नाम पर इन चेतावनियों को नज़रंदाज़ किया गया आख़िर समस्या का समाधान यही है कि इन संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों में अध्ययन को बढ़ावा मिलना चाहिए तथा मौसम विज्ञान तंत्र को दुरस्त कर सटीक पूर्वानुमान लगाना जिससे आपदाओं के जोखिमों से निपटा जाए सरकारों को मानवीय गतिविधियों को प्रतिबंधित कर वनारोपण को बढ़ावा देकर जैव विविधता सरंक्षण के प्रति जागरूकता लानी होगी अब भी नहीं संभले तो आने वाले सालों में दृश्य और भी भयावह होंगे ।।