मराठा आरक्षण आंदोलन के राजनीतिक पहलू

Political aspects of Maratha reservation movement

अमलेंदु भूषण खां

चुनावी मौसम में महाराष्ट्र मराठा आरक्षण आंदोलन की आग में जल रहा है। मराठा आरक्षण के मसले पर घिरे महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने न सिर्फ इस्तीफे की पेशकश की है बल्कि राजनीति से सन्यास तक की बात कह डाली। उन्होंने कहा है कि अगर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ऐसा कहते हैं कि उनकी वजह से मराठा आरक्षण रूका है तो वे इस्तीफा देने और राजनीति छोड़ने को तैयार हैं। दरअसल में मराठा आरक्षण आंदोलन का अगुवाई करने वाले मनोज जरांगे पाटिल ने दावा किया था कि फड़नवीस की वजह से मराठा आरक्षण का मामला अटक गया।

मनोज जरांगे पाटिल के आरोप पर फड़नवीस ने सोमवार, 19 अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा- अगर सीएम एकनाथ शिंदे मुझे आरक्षण में बाधा मानते हैं तो मैं राजनीति छोड़ दूंगा। मराठा आरक्षण में रुकावट डालने के सवाल पर फड़नवीस ने कहा- कोई उप मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री से बड़ा नहीं होता। हम दोनों लोग मिलकर काम करते हैं। जरांगे पाटिल को खुद शिंदे जी से मिलकर इस बारे में पूछना चाहिए। अगर सीएम एकनाथ शिंदे जी कहते हैं कि मैं आरक्षण में बाधा हूं तो मैं इस्तीफा दे दूंगा और राजनीति छोड़ दूंगा। उन्होंने पाटिल को निशाना बनाते हुए कहा- जान बूझकर इस तरह की कहानी गढ़ना गलत है।

गौरतलब है कि मनोज जरांगे पाटिल ने पिछले साल जुलाई में जालना के अंतरवाली सरती में मराठा आरक्षण के लिए अनशन किया था। इस दौरान जरांगे ने उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और उनके कैबिनेट सहयोगी छगन भुजबल पर आरक्षण रोकने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि दोनों ने मराठा आरक्षण मुद्दे के हल न करने के लिए सरकार पर दबाव डाला है। अनशन के दौरान कार्यकर्ताओं की भीड़ पर लाठीचार्ज करने पर भी जरांगे ने फड़नवीस को जिम्मेदार बताया था।

महाराष्ट्र में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और चुनावों से पहले मराठा आरक्षण का मुद्दा सियासी दलों के लिए गले की फांस बन गया है। मराठा आरक्षण समर्थक अब नेताओं के काफिले और उनकी रैलियों को भी टार्गेट करने लगे हैं। सोलापुर में मराठा आरक्षण समर्थकों ने मराठा क्षत्रप शरद पवार का काफिला रोक इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की थी। पवार ने आरक्षण की मांग के समर्थन की बात कही और तब जाकर उनका काफिला आगे बढ़ सका लेकिन रैली में भी उन्हें काले झंडे दिखाए गए और मनोज जरांगे के समर्थन में नारे लगाए गए। शरद पवार ने आरक्षण को लेकर 50 फीसदी की लिमिट हटाने की मांग करते हुए कहा कि केंद्र सरकार इसे लेकर बिल लाती है तो महाराष्ट्र की सभी पार्टियां इसका करेंगे। उन्होंने शिंदे सरकार से इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग करते हुए यह सलाह भी दे डाली कि मनोज जरांगे और छगन भुजबल जैसे मराठा और ओबीसी नेताओं को साथ बैठाकर भी सरकार को हल तलाशना चाहिए। पवार ने ये भी जोड़ा कि जब आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक हो जाती है तो सुप्रीम कोर्ट की 50 फीसदी वाली लिमिट लागू हो जाती है। इस मामले में केंद्र सरकार ही कुछ कर सकती है।

दरअसल महाराष्ट्र की आबादी में मराठाओं की भागीदारी 33 फीसदी है और वे अपने लिए सरकारी नौकरी में 16 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहे हैं। मुश्किल यह है कि अगर इन्हें अलग से आरक्षण दिया जाता है तो उच्चतम न्य़ायालय़ द्वारा निर्धारित आरक्षण की अधिकतम सीमा पार हो जाएगी और अगर पिछड़ा वर्ग में शामिल कर उन्हें आरक्षण दिया गया तो ओबीसी की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है।

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पिछले चुनाव के मौके पर राज्य की तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मराठा को 16 और मुस्लिम को 5 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था लेकिन कोर्ट ने रोक लगा दी थी।

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग यही कोई दस साल पुरानी है । महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स में शुरू से ही मराठा का प्रभुत्व रहा है। 1960 में राज्य बनने के बाद वहां अब तक 12 मुख्यमंत्री मराठा ही हुए हैं। सिर्फ दो मौके ही ऐसे आए हैं, जब ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए हैं। 1995 में मनोहर जोशी और 2014 में देवेंद्र फडणवीस।

मराठा आंदोलन की नींव 13 जुलाई, 2016 की अहमदनगर जिले के कोपार्डी गांव में 15 साल की एक बालिका से बलात्कार की वारदात को माना जाता है। तब आंदोलनकारियों ने अपराधियों को फांसी के साथ ही, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिनियम में संशोधन और मराठों के लिए आरक्षण की मांग उठा दी। सवाल यह उट रहा है कि मराठा आरक्षण क्या आर्थिक आधार पर होगा? क्या सामाजिक आधार ही आरक्षण का आधार पर होगा?

अगर मराठा को ओबीसी में शामिल कर लिया गया तो महाराष्ट्र में ओबीसी पॉलिटिक्स उबाल खा सकती है। महाराष्ट्र में मराठा और ओबीसी हमेशा से अलग-अलग पालों में खड़े नजर आते हैं। पहले भी जब मराठा को ओबीसी में शामिल करने की बात हुई है, इसका विरोध हुआ है। यहां तक कि बीजेपी के शीर्ष नेताओं में शुमार रहे गोपीनाथ मुंडे और एनसीपी के नेता छगन भुजबल (दोनों ही ओबीसी) अपनी-अपनी पार्टियों की नीतियों से परे जाते हुए एक साथ हो गए थे। इस बार भी कुछ ऐसी ही स्थिति बन रही है।

मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर न सिर्फ सरकार चिंतित है बल्कि बाबा साहेब आंबेडकर के नाती और दलितों के नेता प्रकाश आंबेडकर भी चिंतित हैं। दरअसल दलित और पिछड़े समुदाय भी इस बात को लेकर चिंता बढ़ी हैं कि मराठा समुदाय कहीं उनके हिस्से पर कब्जा न कर ले। किसी को आरक्षण देना इतना आसान नहीं है। इतने कानूनी पहलू हैं कि सरकार को कई पेंचीदगियों का सामना करना पड़ता है। मसलन इंदिरा साहनी केस (1992), जिसे मंडल निर्णय के रूप में जाना जाता है, में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि संविधान की धारा 16 के अंतर्गत नौकरियों और शिक्षा में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जाएगा। महाराष्ट्र में इस समय 52 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। यदि 16 प्रतिशत आरक्षण मराठों को दिया जाता है, तो यह बढ़कर 68 प्रतिशत हो जाएगा।

साथ ही सरकार अगर मराठा को अलग से आरक्षण देती है तो फिर राज्य में कई दूसरी जातियां भी आरक्षण हासिल करने का आंदोलन शुरू कर सकती हैं। राज्य में धनगर जाति के लोग खुद को एसटी में शामिल किए जाने को लेकर पहले से आंदोलनरत हैं और मुस्लिम भी वहां अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस-एनसीपी सरकार में उन्हें 5 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान हुआ था। अभी तो सरकार यह कहकर खुद को ‘सेफ जोन’ में रखे हुए है कि संविधान की ओर से तय आरक्षण की अधिकतम सीमा से छेड़छाड़ उसके हाथ में नहीं।

इतना ही नहीं मराठा को आरक्षण का लाभ मिलते ही सबसे पहला असर गुजरात में दिखेगा। वहां पटेल तुरंत आरक्षण की मांग को लेकर सड़क पर आ सकते हैं। हरियाणा में जाट आंदोलन और राजस्थान में गुर्जर आंदोलन को भी हवा मिलेगी। उत्तर प्रदेश में भी 17 ओबीसी जातियां खुद को एससी-एसटी श्रेणी में रखने की मांग कर रही हैं। पूर्ववर्ती समाजवादी सरकार तो इन जातियों को एससी-एसटी की सुविधाएं देने का आदेश भी जारी कर चुकी है लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना केंद्र के हाथ में है।

पिछले मराठा आरक्षण आंदोलन के दौरान छह लोग ख़ुदकुशी किए थे और आठ लोगों ने आत्मदाह की कोशिश की थी। इतना ही नहीं आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र के छह विधायक अब तक इस्तीफा दिए थे।

मराठा जाति महाराष्ट्र की एक कृषि प्रधान जाति है, जो राजनीतिक दबदबा रखती है, जैसे उत्तर भारत में जाट और राजपूत या गुजरात में पटेल रखते हैं। महाराष्ट्र में 52 कुलीन मराठा परिवार हैं, जिन्हें विकास की राजनीतिक रोशनी का लाभ मिला है। कृषि की अनिश्चितता, कृषि से होनेवाले लाभ में कमी ने मराठा युवकों के मन में सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण पैदा किया, जो बहुत सीमा तक मजबूरी के कारण बना है।

महाराष्ट्र में आबादी का 33 प्रतिशत मराठों का है। अभी तक मराठा आबादी आरक्षण को हेय नजर से देखती थी। औरंगाबाद में विश्वविद्यालय के नाम पर पैदा हुआ विवाद हो या फिर आरक्षण में मंडल जातियों को शामिल किया जाना हो, मराठाओं का सामाजिक स्थान काफी अनुदारवादी था, पर धीरे-धीरे ज्यादातर मराठा समुदाय संपन्नता और सत्ता से दूर हो गया। महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के कारण मराठा समुदाय की असली शक्ति सहकारी समितियों के आर्थिक व्यवहार पर जबदस्त मार पड़ी। यही कारण रहा कि मराठा में रोजगार, संपन्नता और पद की गरिमा कुछ ही ‘कुलीनों’ के हाथ में रह गयी।

मराठा राजनेताओं के पास शिक्षा, शक्कर और सहकारिता का तिलिस्म पिछले चार वर्षों में टूट गया, लेकिन जिस शालीनता और गरिमा से महाराष्ट्र के ग्रामीण और कस्बों में मराठा आरक्षण आंदोलन चला, उससे उसको राजनीतिक समर्थन मिला।

महाराष्ट्र की सियासत में मराठा समुदाय को किंगमेकर माना जाता रहा है। राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 20 से 22 सीटें और विधानसभा की 288 सीटों में से 80 से 85 सीटों पर मराठा वोट निर्णायक माना जाता रहा है। मराठा समुदाय की मांग पर 1960 में महाराष्ट्र राज्य बना। महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री रहे यशवंतराव चव्हाण ने उस वक्त कहा था कि यह राज्य मराठी लोगों का है। यहीं से मराठा वर्चस्व की राजनीति की शुरुआत मानी जाती है। महाराष्ट्र के गठन के बाद से अब तक 12 मराठा मुख्यमंत्री हुए हैं। ब्राह्मण के तौर पर केवल दो मुख्यमंत्री- शिवसेना के मनोहर जोशी और भाजपा से देवेंद्र फडणवीस।

लेकिन आंदोलन का सामाजिक पहलू यह है कि मराठा समाज परंपरागत रूप से खेतिहर रहा है। उनका कहना है कि सूखे और खेती में नुकसान के कारण वे बरबादी के कगार पर पहुंच गए हैं। दावा है कि आत्महत्या करने वाले किसानों में सबसे ज्यादा संख्या मराठों की है, इसलिए उन्हें भी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए।

आंदोलन तेज होने के साथ ही इसका राजनीतिक पहलु सामने आने लगा है। भाजपा के नेता मानते हैं कि ज्यादातर मराठा उसे वोट नहीं देते। वह या तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस के साथ हैं या फिर शिवसेना के साथ। ऐसे में भाजपा आरक्षण जैसे सवाल पर उनकी सारी बातें मानकर ओबीसी और दलित को नाराज करने के मूड में नहीं। राज्य की आबादी में ओबीसी 52 फीसदी होने का दावा करता है। दलित सात से 12 फीसदी तक हैं। ऐसे में आंदोलन से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) फायदे की उम्मीद कर सकती है। सबसे ज्यादा मराठा समाज के लोग पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में रहते हैं जहां उनका जनाधार माना जाता है। एनसीपी नेता शरद पवार ने आरक्षण के मुद्दे पर इस मुद्दे पर मराठा विधायक इस्तीफे दे रहे हैं। दरअसल, 2014 में मोदी लहर में शरद पवार का किला धराशायी हो गया था। वह इस आंदोलन के जरिए अपनी जमीन वापस पाने की कोशिश में हैं। एनसीपी की तरह शिवसेना खुलकर मराठा आरक्षण मुद्दे पर खड़ी नहीं होगी, क्योंकि उसका आधार मराठा के साथ अति पिछड़ों और अति दलित मतों में भी है। लेकिन वह किसान आंदोलन की तरह मराठाओं की नाराजगी से खुद को जुड़ा दिखाएगी।

मराठा समुदाय को कोई राजनीतिक दल नाराज नहीं करना चाहता है, लेकिन कानूनी प्रावधान है कि 16 प्रतिशत आरक्षण कोई भी अदालत मंजूर नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में लोकसभा में बहुमत हासिल की हुई भाजपा को संसद में संविधान की धाराओं में परिवर्तन करना होगा। यह संविधान बदलाव इतना आसान नहीं, क्योंकि दलित-पिछड़े वर्ग अपने अधिकारों के लिए सजग हो, सड़क पर उतरने को तैयार हैं। गुर्जर, जाट, पटेल समुदाय भी आशा भरी निगाह से मराठा आंदोलन की परिणति को देख रहे हैं, क्योंकि संविधान में भावी बदलाव उन्हें भी आरक्षण देने का रास्ता खोलेगा। संविधान में बदलाव की रणनीति का सबसे अधिक फायदा शरद पवार को होगा। लेकिन, असल सवाल है कि क्या राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां यह होने देंगी?

क्या यह आंदोलन और हिंसक होकर अपने रास्ते से भटक तो नहीं जायेगा, क्योंकि महाराष्ट्र के गांवों तक यह आग फैल चुकी है? महत्वपूर्ण है कि चुनावी वर्ष में मराठा आरक्षण आंदोलन अपने निर्णायक मंजिल की ओर पहुंचने की कोशिश में है।