गोविन्द ठाकुर
“…1997 जब झारखंड और बिहार एक था ठीक, आज झारखंड की तरह ही घटना घटी थी जब लालू यादव को चारा घोटाला में जेल जाना पड़ रहा था.., मगर लालू यादव ने अपने किसी भी सिपहसलार पर भरोसा नहीं किया और पत्नी राबड़ी देवी को सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया था और राबड़ी देवी लालू से भी अधिक 8 साल तक राज किया था.. दुसरी ओर 2015 में नीतीश कुमार के साथ भी घटना घटी थी जब नीतीश को लोकसभा में बुरी हार हुई थी.. और मॉरल ग्राउड पर इस्तिफा देकर जीतन राम मांझी को सीएम बनाया… फिर मांझी ने उस समय वही किया जो आज चंपई ने हेमंत सोरन के साथ किया है..,फिर कोई कैसे परिवार के बाहर भरोसा करेगा.., यहां देखें तो 27 साल पहले लालू यादव ने जो मॉडल दिखाया.. वही क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को सुट करता है..ना कि नीतीश और हेमंत का मॉडल…”
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन की बगावत के बाद एक बार फिर यह सवाल उठ रहा है कि आखिर प्रादेशिक पार्टियों के नेता किस पर भरोसा करें? अगर उनके सामने संकट आता है तो उन्हें क्या पार्टी के किसी नेता पर भरोसा करना चाहिए या हर हाल में लालू प्रसाद मॉडल को ही फॉलो करना चाहिए? लालू प्रसाद मॉडल का मतलब है कि अपनी पत्नी या बेटे, बेटी में से ही किसी को अपनी गद्दी सौंपनी चाहिए। अगर किसी बाहरी नेता पर भरोसा किया तो उससे धोखा ही मिलना है। गौरतलब है कि लालू प्रसाद 1997 में जब चारा घोटाले में फंसे और गिरफ्तारी अवश्यंभावी हो गई तो उन्होंने पार्टी विधायकों और सभी नेताओं की बैठक बुला कर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उस समय राबड़ी देवी को दस्तखत करने तक में दिक्कत होती थी। लेकिन लालू प्रसाद जेल गए तो वे गद्दी पर बैठीं और आठ साल तक मुख्यमंत्री रहीं। वे लालू प्रसाद से ज्यादा समय मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहीं।
लालू प्रसाद के इस फॉर्मूले से अलग जिन नेताओं ने परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को गद्दी सौंपी उनमें से एकाध ई पलानीस्वामी या ओ पनीरसेल्वम आदि को छोड़ दें तो बाकी सब अपने को उस गद्दी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी समझने लगे। उन्होंने गद्दी सौंपने वाले नेताओं की अनदेखी शुरू कर दी और बागी तेवर अख्तियार कर लिया। चम्पई सोरेन की मिसाल सबसे ताजा है। इस साल जनवरी में हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी जब अवश्यंभावी हो गई तो उन्होंने अपने परिवार के किसी सदस्य की बजाय चम्पई सोरेन को सीएम बनाया। चम्पई उनके पिता के करीबी थे और शिबू सोरेन ने 2009 में उनको सीएम बनाने का प्रयास किया था लेकिन तब कांग्रेस ने समर्थन नहीं किया था।
इस बार सीएम बनने के बाद चम्पई सोरेन अपने को गद्दी का स्वाभाविक दावेदार समझने लगे। यहां तक कि हेमंत सोरेन की जेल से रिहाई की सूचना के बाद जेल गेट तक उनके स्वागत में जाने से पहले चम्पई सोरेन ने कैबिनेट की बैठक की। बाद में भी वे स्वतंत्र रूप से फैसले करते रहे। उनके इस तेवर से आशंकित हेमंत ने जब उनको हटाया और खुद मुख्यमंत्री बने तो चम्पई की उनकी सरकार में मंत्री बने लेकिन कहने लगे कि उनके सम्मान को चोट पहुंची है। सीएम बनाए जाने से जो सम्मान बढ़ा उसका अहसान मानने की बजाय वे अपमान की बात करने लगे।
यही परिघटना 2015 में बिहार में हुई थी। मई 2014 में लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद नीतीश कुमार ने इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। लेकिन 2015 में विधानसभा चुनाव से पहले मांझी से गद्दी छुड़ाने में नीतीश के पसीने छूट गए। बाद में मांझी बागी हो गए और अपनी पार्टी बना कर राजनीति करने लगे। उनका बेटा अभी नीतीश सरकार में मंत्री है और वे खुद केंद्र में कैबिनेट मंत्री हैं। वे भी नीतीश का अहसान मानने की बजाय नीतीश पर हमला करते रहते हैं। इसी तरह की घटना कई साल पहले महाराष्ट्र में हुई थी, जहां बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को हटा कर नारायण राणे को सीएम बनाया था और राणे बाद में बागी होकर ठाकरे परिवार को ही गालियां देने लगे। राष्ट्रीय पार्टियों में भी कई बार ऐसा हुआ है। सोनिया गांधी के लिए नरसिंह राव का अनुभव या बीएस येदियुरप्पा के लिए डीवी सदानंद गौड़ा व जगदीश शेट्टार का अनुभव या उमा भारती के लिए बाबूलाल गौर का अनुभव मिसाल है।