सुरेश हिंदुस्थानी
वर्तमान में समान नागरिक कानून की चर्चा बहुत ज्यादा है। होना भी चाहिए, क्योंकि विश्व के अधिकांश देश समान कानून की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। आज जो देश विश्व की महाशक्ति मानने का साहस रखते हैं, उन सभी देशों में कानून के नाम पर कोई समझौता नहीं किया जाता। भारत में कानून के नाम पर जो प्रावधान हैं, उनमें कई प्रकार की खामियां देखने को मिलती हैं। जो समाज में असमानता का भाव पैदा करने वाले कहे जा सकते हैं। विसंगति यह है कि मुस्लिमों के लिए जो पर्सनल कानून बनाए हैं, वे सामाजिक उत्थान और मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने का ही एक प्रयास था, लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ है, यह हम सभी के सामने है। मुस्लिम समाज का कुछ वर्ग देश की वास्तविकता से परिचित होना नहीं चाहता। इतना ही नहीं वह अभी तक भारत के उन संस्कारों से समरस नहीं हो सका है, जो मुगलों और अंग्रेजों से पहले से चले आ रहे हैं। भारत के मुसलमानों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यह मुसलमान सनातन काल से भारत के ही हैं। वह अपना इतिहास खोजेंगे तो उन्हें इसके प्रमाण भी मिल जाएंगे। आज कई मुस्लिम अपने पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों को सुधारने का प्रयास भी करने लगे हैं। वसीम रिजवी और जफर शेख ने इस पहल को गति देने का कार्य किया है। अभी मुस्लिम समाज को सुबह का भूला निरूपित किया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, लेकिन यकीनन वो शाम भी आ रही है, जिसमें सब घर लौटने की कवायद करेंगे।
समान नागरिक संहिता को लेकर कुछ संस्थाओं द्वारा यह प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है कि यह कानून भारत के मुस्लिमों के विरोध में है। जबकि इस पर गंभीरता पूर्वक मंथन किया जाए तो समान नागरिकता कानून मुस्लिमों के लिए बड़ा हितकारक ही सिद्ध होगा। हम जानते हैं कि आज देश का बहुत बड़ा मुस्लिम समाज मुख्य धारा से कटा हुआ है। इसके पीछे एक मात्र कारण देश की राजनीति को माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक दलों ने मुस्लिमों के वोट प्राप्त करने के लिए तमाम तरीके से प्रलोभन देने का काम किया, यही प्रलोभन मुस्लिम समाज के विकास में बाधक बनकर सामने दिखाई दिया। अगर सारे समाज के लिए देश में एक समान कानून बन जाएगा तो स्वाभाविक रूप से समाज में भेदभाव भी समाप्त होगा, जो अपरिहार्य भी है। इसलिए अब देश के मुस्लिम समाज को स्वयं ही समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग करना चाहिए, जो न्यायोचित कदम होगा।
वर्तमान में एक बार फिर से समान नागरिक कानून बनाए जाने की मांग जोर पकड़ रही है। ऐसा किया जाना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि निजी कानूनों के चलते समाज में भेदभाव की खाई लगातार गहरी होती जा रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक बार तलाक के एक प्रकरण में सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया था कि समान नागरिक संहिता समय की जरूरत है। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि देश में सभी नागरिकों के लिए कानून समान होना चाहिए। हम जानते हैं कि गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है और इस राज्य के किसी भी वर्ग को किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं है। इसीलिए कहा जा सकता है कि देश में भी समान नागरिक संहिता के होने से समाज को किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं है। समस्या तो केवल उन राजनीतिज्ञों को है जो समाज में विभाजन की लकीर को बड़ा करना चाहते हैं। ऐसे राजनीतिज्ञों को विचार करना चाहिए कि जो काम गोवा में किया जा सकता है, वह शेष देश में क्यों नहीं हो सकता? राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि समान नागरिक संहिता न तो किसी के विरोध में है और न ही किसी के समर्थन में है। समान नागरिक संहिता देश के हर नागरिक नागरिक को समानता का अधिकार देता है।
विश्व के कई देशों में संवैधानिक प्रावधानों के तहत किसी वर्ग को विशेष अधिकार नहीं हैं, सबको देश में एक ही कानून को मानना होता है, लेकिन भारत में राजनीतिक फायदे के लिए तुष्टिकरण का ऐसा खेल खेला गया, जो विविधता में एकता के दर्शन को तार-तार कर रहा है। निजी कानूनों के कारण कहीं कहीं विसंगति के हालात भी पैदा हो रहे हैं। सामुदायिक घटनाओं को भी स्वार्थी राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है, घटना को देखने का यह नजरिया वास्तव में वर्ग भेद को बढ़ावा देने वाला है। देश का मुस्लिम भी समाज का एक हिस्सा है, जिसे इसी रूप में प्रस्तुत करने की परिपाटी चलन में आ जाए तो भेद करने वाले विचारों पर लगाम लगाई जा सकती है। लेकिन हमारे देश के कुछ राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को ऐसे भ्रम में रखने के लिए प्रेरित किया कि वह भी ऐसा ही चिंतन करने लगा, जबकि सच्चाई यह है कि आज के मुसलमान बाहर से नहीं आए, वे भारत के ही हैं। परिस्थितियों के चलते उनके पूर्वज मुसलमान बन गए। वे सभी स्वभाव से आज भी भारतीय हैं और विचार से सनातनी हैं, लेकिन देश के राजनैतिक दल मुसलमानों के इस सनातनी भाव को प्रकट करने का अवसर नहीं दे रहे।
जहां तक निजी कानूनों का सवाल है तो यह कहीं न कहीं समाज से दूर करने का बड़ा कारण ही सिद्ध हो रहा है। इन कानूनों से अगर किसी वर्ग को लाभ मिलता तो वह आज प्रगति कर चुका होता, जबकि वास्तविकता यही है कि अल्पसंख्यकों के नाम पर दी जाने वाली सरकारी सुविधाएं ही उनकी प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। हम जानते हैं कि सुविधाओं के सहारे किसी भी समाज को स्वावलम्बी नहीं बनाया जा सकता। लेकिन भारत में मुस्लिम पर्सनल कानून को लेकर जहां मुस्लिम समाज के पैरोकार समाज में भ्रम की स्थिति पैदा कर समाज को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने से वंचित कर रहे हैं, वहीं देश के कुछ राजनीतिक दल भी आग में घी डालने जैसा कृत्य करते हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में यह कदम कहीं न कहीं देश में वैमनस्यता को बढ़ावा देने का ही काम कर रहे हैं। जहां तक साम्प्रदायिक सद्भाव की बात है तो सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोगों को एक दूसरे के रीति रिवाजों को समान भाव से सम्मान देना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो सामाजिक समरसता के तमाम प्रयास महज खोखले ही साबित होंगे।
भाजपा शुरू से ही इस पक्ष में रही है कि एक देश में एक ही कानून लागू होना चाहिए। किसी को भी पर्सनल लॉ के तहत काम करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। जो राजनीतिक दल इसे भाजपा या कांगे्रस के नजरिये से देखते हैं, उन्हें एक बार फिर से इस कानून को समझने का प्रयास करना चाहिए। अगर हम यह चिंतन भारतीय भाव से करेंगे तो स्वाभाविक रूप से यही दिखाई देगा कि समान नागरिक कानून देश और समाज के विकास का महत्वपूर्ण आधार बनेगा। अगर इसे हिन्दू मुस्लिम के संकुचित भाव से देखेंगे तो खामी न होने के बाद भी खामियां दिखाई देंगी। यह मसला वास्तव में केंद्र की मौजूदा सरकार ने अपनी तरफ से शुरू नहीं किया है। यह मांग तो पिछली सरकारों के समय भी उठती रही है, इसलिए वर्तमान केंद्र सरकार को दोषी ठहराना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। मौजूदा सरकार पूरे देश में हर नागरिक को समान अधिकार देने के पक्ष में है। वह पुरुष हो या महिला। हिंदू हो या मुसलमान या किसी दूसरे मजहब को मानने वाले नागरिक। ऐसा होगा तभी देश में सामाजिक समरसता की स्थापना संभव हो सकेगी।
(लेखक राजनीतिक चिंतक व विचारक हैं)