‘एक देश, एक चुनाव’ का सपना अब साकार होता नजर आ रहा है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश में सभी चुनाव एक साथ करवाने के लिए बनी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कमिटी की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। मतलब अब “देश में ‘एक देश, एक चुनाव”की राह में कोई बाधा नहीं रही और सस्पेंस दूर हो गया है।
आर.के. सिन्हा
“एक देश, एक चुनाव”का सपना अब तो साकार होता नजर आ रहा है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश में सभी चुनाव एक साथ करवाने के लिए बनी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कमिटी की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। मतलब यह कि अब देश में ‘एक देश, एक चुनाव’ की राह का सारा व्यवधान सारा सस्पेंस दूर हो गया है। पिछले दिनों गृह मंत्री अमित शाह ने भी अपने एक वक्तव्य में साफ किया था कि मोदी सरकार के इसी कार्यकाल में देश का यह सबसे बड़ा चुनाव सुधार लागू हो जाएगा। जैसे कि आपको ज्ञात ही होगा कि केंद्र सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में ‘एक देश, एक चुनाव’ पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी। रामनाथ कोविंद कमिटी को जिम्मेदारी दी गई थी कि वह देश मे एक साथ चुनाव करवाने की संभावनाओं पर रिपोर्ट दे। अब कमिटी की सिफारिशों पर देश की सभी राजनीतिक मंचों पर इस पर चर्चा की जाएगी। सभी नौजवानों, कारोबारियों, पत्रकारों समेत सभी संगठनों से इस पर बात होगी। इसके बाद इसे लागू करने के लिए ग्रुप बनाया जाएगा। फिर कानूनी प्रक्रिया पूरी कर इसे लागू किया जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस समारोह के दौरान लाल किले से अपने भाषण में भी एक देश एक चुनाव की वकालत की थी। उनका कहना था कि देश में बार-बार चुनाव से विकास कार्य में बाधा आती है। किसी भी चुनाव की घोषणा होते ही अंतिम रिजल्ट नहीं आने तक कोई नया विकास कार्य शुरू ही नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा था कि ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए देश को आगे आना होगा। उन्होंने देश के सभी राजनीतिक दलों से भी आग्रह किया था कि देश की प्रगति के लिए इस दिशा में आगे बढ़े। यहां तक कि इसी साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी प्रमुखता से शामिल किया था।
बेशक, एक साथ चुनाव कराने से चुनाव प्रक्रिया की चुनाव पर होने वाले खर्च में कमी आएगी, क्योंकि कई चुनावों के लिए बार-बार तैयारी और कार्यान्वयन करने की आवश्यकता नहीं होगी। क्या आपको पता है कि कुछ माह पहले देश में हुए लोकसभा चुनाव में कितना खर्चा हुआ? 2024 के लोकसभा चुनाव पर 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले करीब दोगुना से भी ज्यादा खर्चा आया। चुनावी खर्च पर रिपोर्ट जारी करने वाली गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने अनुमान लगाया है कि इस बार लोकसभा चुनाव में करीब 1.35 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल खर्च 55 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इस तरह देखा जाए तो इस बार दोगुने से भी ज्यादा पैसा चुनाव में खर्च किया गया है। अमेरिका ने भी साल 2020 में हुए राष्ट्रसपति चुनाव में करीब 1.20 लाख करोड़ रुपये ही खर्च किए थे। क्या आपको पता है कि 1951-52 में भारत के पहले चुनाव के दौरान महज 10.5 करोड़ रुपये था? चुनाव खर्च का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया प्रचार पर खर्च किया जाता है। भारतीय राजनेता मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए असाधारण और नए-नए तरीके अपना रहे हैं।
यह सबको पता है कि देश में बार-बार चुनाव होने से जनता और सरकारी अधिकारियों का समय और संसाधन बर्बाद होता है। एक साथ चुनाव कराने से यह सब नहीं होगा। एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक स्थिरता में सुधार आएगा।क्योंकि, सरकार को बार-बार चुनावों की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। इसके साथ ही एक साथ चुनाव होने से प्रशासन पर भी काम का दबाव कम होगा और वे अपने काम पर अधिक ध्यान केंद्रित कर पाएंगे। तो आप कह सकते हैं कि ‘एक देश, एक चुनाव’ से कई मसलों का हल हो जाएगा। चुनावों की अवधि कम हो जाने से, शासन और विकास कार्यक्रमों पर ध्यान बेहतर ढंग से केंद्रित किया जा सकेगा।
यह जानना जरूरी है कि भारत में साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे। साल 1947 में आज़ादी के बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में पहला आम चुनाव साल 1952 में हुआ था। उस समय राज्य विधानसभाओं के लिए भी चुनाव साथ ही कराए गए थे, क्योंकि आज़ादी के बाद विधानसभा के लिए भी पहली बार ही चुनाव हो रहे थे। उसके बाद साल 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही हुए थे। यह सिलसिला पहली बार उस वक़्त टूटा था जब केरल में साल 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी। साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मनमाने ढ़ंग से राष्ट्रपति शासन लगा दिया।इसके अलावा साल 1972 में होनेवाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे। साल 1967 के चुनावों में कांग्रेस को कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे कई राज्यों में विरोधी दलों या गठबंधन की सरकार बनी थी। इनमें से कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और विधानसभा समय से पहले भंग कर दी गई। वैसे यह बात भी है कि अगर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके लिए मौजूदा संख्या से तीन गुना ज़्यादा ईवीएम की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन, वह तो एक बार ही होने वाला खर्च होगा।
क्या बाकी देशों में भी ‘एक देश, एक चुनाव’ वाली व्यवस्था लागू है ? अमेरिका, फ्रांस, स्वीडन, कनाडा आदि में ‘एक देश, एक चुनाव’ वाली स्थिति हैं। अमेरिका में हर चार साल में एक निश्चित तारीख को ही राष्ट्रपति, कांग्रेस और सीनेट के चुनाव कराए जाते हैं। भारत की ही तरह फ्रांस में संसद का निचला सदन यानी नेशनल असेंबली है। वहां नेशनल असेंबली के साथ ही संघीय सरकार के प्रमुख राष्ट्रपति के साथ ही राज्यों के प्रमुख और प्रतिनिधियों का चुनाव हर पांच साल में एक साथ कराया जाता है। स्वीडन की संसद और स्थानीय सरकार के चुनाव हर चार साल में एक साथ होते हैं। यहां तक कि नगरपालिका के चुनाव भी इन्हीं चुनावों के साथ होते हैं। वैसे तो कनाडा में हाउस ऑफ कॉमंस के चुनाव हर चार साल में कराए जाते हैं, जिसके साथ कुछ ही प्रांत स्थानीय चुनाव को संघीय चुनाव के साथ कराते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि भारत जैस देश के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार बहुत ही उपयुक्त और आदर्श है। पर दिक्कत यह है कि हमारे विपक्षी दल इतने शानदार विचार की बिना सोचे समझे राजनीतिक स्वार्थ साधने के चक्कर में निंदा करने लगे हैं। उम्मीद कीजिए कि वे भी अंत में सरकार का ही साथ देंगे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)