गंदा आदमी

dirty man

रावेल पुष्प

गाय को हमारे देश में मां का स्थान प्राचीन काल से ही मिला है, इसका जिक्र कई ग्रंथ करते हैं। लेकिन आज जब भी गोपाष्टमी की बात सामने आती है तो मेरे जेहन में बचपन की कुछ घटनाएं अनायास कौंधने लगती हैं,और मुझे स्कूली-जीवन में सातवीं कक्षा के अन्तिम पीरियड की बात याद आ जाती है। वो पीरियड होता था इतिहास का और हम सारा दिन पढ़ने के बाद बेहाल हो चुके होते थे,ऐसे में इतिहास जैसे बोर विषय को पढ़ना बड़ा ही नागवार गुजरता था। बस हम क्लास में आये हरिहर पंडीजी को अन्त्याक्षरी खेलने के लिए मना लेते थे । वैसे वे भी इसके लिए तैयार ही रहते थे और टेबल पर अपनी दोनों टांगें चढ़ा लेते थे,भले ही उनकी उठी धोती नजारे ही क्यों न दिखाती रहती। वे जोर से हांक लगाते – अरे गोपलवा,ले जो खईनवा बना कर लावा! और आखिरी बेंच पर बैठने वाला गोपाल उनसे खैनी बनाने का सामान ले जाता और झटपट खैनी पर आखिरी थाप देते हुए वापस ले आता- लीजिए पंडी जी… बस पंडीजी होंठों के नीचे खैनी दबाते और आदेश देते- हां, तऽ अंतक्षरिया सुरु करो !

हमलोग शुरू हो जाते और कई बार तो जब किसी अक्षर पर कोई कविता की पंक्तियां दोहा नहीं मिलता तो मैं तुक जोड़कर अपनी कविता बनाकर सुना देता जिसको लेकर लड़कियों से झगड़ा भी हो जाता, क्योंकि वे विरोधी पक्ष में होतीं। इस तरह बनी कविता पर तकरार होती। मुझे दरअसल तुक जोड़ने की बुरी आदत तभी से लगने लगी थी और शायद भविष्य में मुझे कविताएं लिखने के लिए ये तुकबंदी बीज मंत्र की तरह प्रेरित करने का कारण भी रही होंगी। खैर, मैं जिस बात का जिक्र करना चाह रहा था कि जब भी अन्त्याक्षरी में ग अक्षर पर पेंच फंस जाता तो हम सीधे कह देते –
गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है

वैसे तो अंताक्षरी में यह नियम लागू था कि एक ही कविता की पंक्तियां दोबारा नहीं पढ़ी जा सकतीं लेकिन गाय पर पढ़ी गई इन पंक्तियों पर हरिहर पंडित जी गंभीर हो जाते और खैनी भरे होठों से कहते- गाय सच में हमारी माता के समान है। उसका दूध मां के दूध की तरह है। उसका गोबर, उसका मूत्र सब कुछ हमारे काम का है । इसलिए गाय पर पढ़ी गई पंक्तियों को जितनी बार भी पढ़ा जायेगा, उस पर कोई पाबंदी नहीं होगी और बस ग अक्षर आने पर तो हम सब की बल्ले बल्ले ही हो जाती ।

इसके अलावा एक घटना जो बड़ी शिद्दत से आज मेरे सामने यादों के झरोखों से छनकर नमूदार हो रही है वो पेशे-नजर है –
आज से लगभग 60 साल पहले का वाकया है। मेरे रिश्ते में एक मौसाजी हुआ करते थे और उनके पिताश्री लगभग 80-85 साल के रहे होंगे। हमारे घर के बाहर खुले आंगन में नीम के पेड़ के पास हर सुबह आ जाते थे और जोर-जोर से गिनते हुए 100 दंड पेलते थे।उनका जोर-जोर से गिनना मेरे बड़े काम आता था और मुझे गिनती बिल्कुल कंठस्थ हो गई थी। मेरे मन में उनके लिये इस कारण बड़ा सम्मान था,लेकिन एक दिन की घटना से उनके प्रति मेरे सम्मान करने की इच्छा को गंभीर चोट पहुंची। मैंने देखा कि जैसे ही नीम के पेड़ के नीचे बंधी चितकबरी गाय ने पेशाब करना शुरू किया,वे‌ झट उठक- बैठक छोड़कर दौड़े और बरामदे में रखा बर्तन लेकर गाय के पीछे लगाकर पेशाब संग्रह करने लगे। मुझे बड़ा अजीब लगा और हद तो तब हो गई जब वे उस पेशाब को वहीं खड़े-खड़े गटागट पी गये। उस समय के मेरे बाल-मन पर वितृष्णा का भाव जगा था,और मैंने कह ही तो दिया था – गंदा आदमी!

ये तो बात आई गई हो गई, लेकिन उसके कुछ दिनों बाद ही वे इसी तरह पेशाब संग्रह कर एक बड़ी बाल्टी में रोज जमा कर रहे थे। उसके बाद उन्होंने एक दिन अपने निर्देशन में इस पेशाब में आटा और न जाने क्या-क्या मिलाकर एक बड़ी कढ़ाई में डालकर पकवाना शुरू किया और काफी देर तक मध्यम आंच पर पकने के बाद उसे उतारा गया। फिर उससे छोटे-छोटे लड्डू बनाए गए। उसके बाद तो कई दिनों तक मैने देखा, वे एक-एक लड्डू सुबह खाते और लगातार एक सौ दंड पेलते फिर आराम से बगैर किसी लाठी के आंगन के दरवाजे से बाहर निकल जाते और मेरे मुंह से निकल जाता- गंदा आदमी!

अब मुझे इस बात का अध्ययन करने के दौरान पता लगा कि ब्रह्मा जी ने सृष्टि की कामना से सभी प्राणियों की रक्षा और भरण-पोषण के लिए गायों की रचना की थी और ऐसा माना जाता है कि गाय के हर अंग पर किसी न किसी देवी-देवता का वास होता है। गोमूत्र तो औषधीय गुणों से भरपूर होता है। उसमें कार्बोलिक एसिड होता है जो कीटाणु नाशक है। वैज्ञानिक जांच में पाया गया है कि गोमूत्र में नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिक एसिड, सोडियम, पोटेशियम और यूरिया होता है।गाय जिन दिनों दूध देती हो, उस समय मूत्र में लैक्टोज होता है, जो हृदय तथा मस्तिष्क विकारों को दूर करने में उपयोगी होता है। गाय के रक्त में प्राण दायिनी शक्ति मौजूद है। गोमूत्र गाय के गुर्दों द्वारा परिष्कृत भाग है इसमें रक्त के सारे गुण मौजूद हैं। हमारे देश की देसी गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नाड़ी होती है, इसलिए वो हमेशा सूर्य की रोशनी में रहना पसंद करती है।ये सूर्यकेतु नाड़ी हानिकारक विकीरण को रोककर वातावरण को भी शुद्ध बनाती है। ये सर्वरोगनाशक और सर्वविषनाशक होती है। ये पर्यावरण की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। दरअसल ये नाड़ी स्वर्ण क्षार उत्पन्न करती है जिसके कारण गोमूत्र पीले रंग का होता है, जो कैंसर निरोध का काम भी करता है। एक खास बात ये है कि गोमूत्र कभी विकृत नहीं होता, इसलिए कभी भी इसका प्रयोग किया जा सकता है।

हम सभी जानते हैं कि मनुष्य सहित सभी प्राणी आक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं और पेड़ इसके ठीक उल्टा लेकिन एक बात बड़े आश्चर्य की पता लगी कि गाय भी आक्सीजन ही लेती है लेकिन फिर वापस आक्सीजन ही छोड़ भी देती है। कुछ और बातें की जायें तो ये भी कि एक तोला (10 ग्राम) गाय के घी से यज्ञ करने पर एक टन आक्सीजन बनती है।अब अगर पुनर्जन्म की बात की जाये तो चौरासी लाख योनियों में सबसे आखिरी योनि गाय की मानी जाती है,उसके बाद ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है।गाय के दूध की महत्ता ऐतिहासिक संदर्भों में खोजें तो ये भी कि गाय के दूध की खीर सुजाता से खाकर ही गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने तो भगवत्गीता में कहा है कि – धनुनामस्मि कामधेनु अर्थात् मैं गायों में कामधेनु हूं और स्कंद पुराण तो यहां तक कहता है कि – गौ सर्वदेवमयी और वेद सर्वगौमय हैं।

गाय के महत्व को समझते हुए गो हत्या पर कई राजाओं ने प्रतिबंध लगाने की चेष्टायें भी की थीं, लेकिन जिसने सबसे कड़ा नियम बनाया वे थे- पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह, जिनके शासनकाल में गोहत्या पर सीधे-सीधे मृत्यु दण्ड का प्रावधान था। अब आखिर में थोड़ी साहित्य चर्चा भी कर लें,तो देखते हैं कि कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि रसखान की इच्छा थी कि अगर उन्हें पशु की योनि में जन्म का मौका मिले तो वे नन्द की गायों के बीच जन्म लेना चाहेंगे-

जो पशु हों तो कहा बसु मेरो
चरों नित नंद की धेनु मंझारन

वैसे अब गो-चर्चा जितनी भी कर लूं,लेकिन बचपन की वो घटना ज्यों ही जेहन में कौंधती है,मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल ही तो पड़ता है- गंदा आदमी!