विजय गर्ग
हमेशा से कला के विभिन्न माध्यमों ने बदलाव की अलख जगाकर जनमानस को झकझोरा है। कितने ही नारे, गीत, चित्र, कहानियां, सिनेमा ऐसे हैं जो न होते तो क्रांतियों के चक्के की गति थोड़ी धीमी जरूर हो जाती । अब चाहे वह पाब्लो पिकासो की पेंटिंग ‘गुएर्निका’, जो स्पेन के गृहयुद्ध की भयावहता के खिलाफ एक शक्तिशाली युद्ध – विरोधी प्रतीक बन गई, हो या फिर ‘वंदे मातरम्’ की वह जादुई धुन और इंकलाबी बोल, जिसने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव और एकता की भावना को तूल दिया। लेकिन आमतौर पर कला और उसके प्रभाव के बीच असंगति के कई उदाहरणों से भी हमारा सामना होता रहता है। अक्सर कला को जिस समाज का दर्पण कहा जाता रहा है, वह न जाने कब और क्यों शीशे में झांकने के बजाय महज उसकी चमक और बनावट को तरजीह देने लगा। यह कला के संदर्भ में उसकी कसौटी पर एक सवाल की तरह है, जिसका जवाब खोजने की कोशिश में कला का प्रेमी लगा रहता है ।
दरअसल, कला मानक विश्वासों को चुनौती देती है । यह संवाद को प्रोत्साहित कर आलोचनात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है । पर हमने शायद वह सुदूर कोना तलाश लिया है जहां बैठ कर हम कला से अछूते रहकर भी उसे घंटों निहार सकते हैं। लोग किसी रचना के सौंदर्य या कहन को पसंद करने के बावजूद उसके मूल संदेश के प्रतिरोधी बने दिखते हैं। कला – उपभोग और आत्मसात के बीच यह विभाजन एक बड़ी समस्या को करता है। लोग अपनी पूर्वधारणाओं के अनुरूप कला को मनोगत करते हैं। ऐसे लोग कला को विकास का उत्प्रेरक बनाने के बजाय इसे अपने जीवन के पूर्वनिर्धारित विश्वासों को कायम रखने का माध्यम बना लेते हैं। और जब जब धारणा पर आग्रह हावी हो जाए, तो आकलन का निष्कर्ष क्या होगा ?
कला के साथ यह चयनात्मक जुड़ाव व्यापक सामाजिक चाल-चलन की बानगी है, जिसमें लोग आत्म-परीक्षण और परिवर्तन से कन्नी काटते हैं। इसका एक कारण ‘संज्ञानात्मक असंगति’ (काग्निटिव डिसोनेंस) की मनोवैज्ञानिक अवधारणा में निहित है। जब कोई व्यक्ति एक साथ दो विरोधाभासी विचारों, विश्वासों या मूल्यों को धारण करता है, तो उसे असहजता होती है । इस असुविधा को कम करने के लिए वह प्रचलित विश्वास को तर्कसंगत मान लेता है। जब लोग विचारोत्तेजक कला का उपभोग करते हैं, तब अवचेतन में उन तत्त्वों को नजरअंदाज या खारिज कर देते हैं जो आंतरिक संघर्ष का कारण बनते हैं। एक युवक ने नेटफ्लिक्स की ‘अनआर्थोडाक्स’ सीरीज बड़े चाव से देखी । यह सीरीज एक महिला की कहानी है जो अपने कट्टर रूढ़िवादी यहूदी समुदाय से आजादी और स्वायत्तता की खोज में भाग जाती है। सीरीज एक कठोर, पितृसत्तात्मक धार्मिक समुदाय में जीवन की कठिनाइयों और इससे बाहर निकलने की चुनौतीपूर्ण यात्रा को दिखाती है। वह युवक इस कहानी से गहरे तौर पर प्रभावित हुआ, लेकिन वह एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी कट्टरतावाद की कोई आलोचना नहीं कर पाया । न ही उसने अपने सख्त धार्मिक विश्वासों पर कोई सवाल उठाया। इसी तरह, एक महिला के स्कूल के दिनों में उनके दोस्तों ने ‘रीढ़ की हड्डी’ नामक एक एकांकी का मंचन किया था । एकांकी का उद्देश्य उस सामाजिक ढर्रे पर तंज कसना था, जिसमें शादी के लिए लड़कियों को भेड़-बकरियों की तरह तौला और बेचा जाता है । इसे दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया, जिसमें शिक्षक, अभिभावक और विद्यार्थी शामिल थे। हालांकि कुछ वर्षों बाद उन सभी लड़कियों की शादी उन्हीं बेढब रूढ़ियों के तहत रचा दी गई ।
वृहत् और दैनिक पैमाने पर कला के संदेश पर कार्रवाई न करने के कई उदाहरण मौजूद हैं। मसलन, वह व्यक्ति जो पर्यावरण पर आधारित विज्ञापनों या वृत्तचित्रों से प्रभावित होता है, लुप्तप्राय प्रजातियों या पिघलते ग्लेशियरों या हिमनदों को देखकर आंसू बहाता है, फिर भी अपना जीवन यथावत बिताता है। वह अपने सामने यह होते रहने की असली वजहों की पड़ताल की कोशिश भी नहीं करता। या वह शख्स जो मजदूरों की दुर्दशा पर लिखी गई कविताओं को साझा कर उनकी सुंदरता और भावनात्मक अपील की तारीफ करता है, लेकिन अपने घरेलू कामगारों के साथ बुरा व्यवहार या उन्हें कम भुगतान करता है । कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार की निंदा करने या सामाजिक असमानता पर प्रकाश डालने वाली फिल्म की सराहना कर खुद अपने कार्यस्थल पर अनैतिक गतिविधियों में लिप्त सकता है या कर की चोरी कर सकता है। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि लोग सामाजिक रूप से जागरूक कला को सराह तो सकते हैं, लेकिन उसके मायनों को अपने जीवन में उतार नहीं सकते। ऐसी स्थिति में कला के डिब्बे पर चमचमाता ढक्कन लग जाता है, जबकि उसके भीतर रखे बदलाव के बीज पड़े-पड़े धूल फांकते हैं ।
कला, जब सिर्फ रिझाती है, कुछ सुझाती नहीं, तब अपनी गहनता और पहचान खो देती है । यह उपभोक्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे कला के सतही आकर्षण के पार जाएं और उसके पीछे के अर्थ और संदर्भ को खोजें, थामें । किसी भी रचना में मौजूद मूल तत्त्वों पर गौर करके उसकी व्यावहारिकता सुनिश्चित करना ही उस रचना की पुष्टि हो सकती है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार