स्त्री की गरिमा और समाज में उसकी पहचान

Dignity of a woman and her identity in society

अन्नु प्रिया

बेटियां हमेशा से ही बेहतरीन रचना रही हैं घर के आंगन और समाज के लिए। बेटियां वास्तव में समाज और परिवार का आधार होती हैं। उनकी शिक्षा, स्वायत्तता, और आत्मविश्वास का सीधा प्रभाव न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन पर पड़ता है, बल्कि उनके परिवार और समाज की प्रगति में भी योगदान देता है। आधुनिकता और भौतिकवाद के नाम पर स्त्रियों को एक भ्रामक दृष्टिकोण के तहत देखा गया है, जहां उनकी स्वतंत्रता और व्यक्तित्व को सीमित करने की कोशिश की गई है। यह सोच न केवल स्त्रियों के प्रति अन्याय है, बल्कि समाज के समग्र विकास के लिए भी बाधक है।

स्त्री ही सृष्टि की सृजना है यदि बेटियां, बेहद बेहतरीन परिवेश और परिवार के सहयोग और समर्थन जहां भी पाती हैं, नि: संदेह उनका प्रदर्शन उनके बाद के जीवन के हर रिश्तों और जीवन के चुनौतीपूर्ण पड़ावों को अच्छी तरह से पार लगा देती हैं।आज जिस तरह तकनीकी और व्यवसायिक दृष्टिकोण से स्त्री को अपने हाथों की कठपुतलियां बना कर हमने उन्हें दिग्भ्रमित करके रखा हुआ है। उनके निर्णय, अभिव्यक्तियों और उनसे जुड़े हुए ज्वलंत मुद्दों को जिस तरह से हमने उम्र, काल, सभ्यता और संस्कृति की परिपाटी पर हमने अपने सुविधानुसार स्त्री को सजाया और समझाया है कि कैसे उनकी उत्पत्ति, विकास, किस्मत, कर्म और उनकी उत्पादकता बस एक गढ़ी हुई सामाजिक, वैवाहिकता तथा वैचारिकता में कमोवेश निहित हैं। जो आधुनिकता और स्त्रीवाद आज की परिभाषाएं और परिवेश जिस तरह से संपूर्ण व्यक्तिवाद और भौतिकवाद को संतुष्ट और पुरुषों की पाशविकता और संपुष्ट कर रहा है।

भविष्य में स्त्री महज एक सुविधानुसार उपभोगवादी संस्कृति के द्वारा स्त्री के प्रति स्वीकार्यता और स्थापित की जा रही है। वह सोच बेहद आकर्षक और सुविधाओं से लैस है ताकि स्त्री को एक आकर्षक दृश्य की तरह सजाया और समझाया जाये कि वह एक संपूर्ण व्यक्तिवाद की अवधारणा से परे हों ताकि तार्किक रूप से एक रहस्यमयी अध्यात्म और उपभोग के छंद और भ्रम में पड़ कर उन्हें मूल रूप से एक संपूर्ण मानव व्यक्तित्व की संकल्पना और उनकी उत्पादकता को सोची समझी रणनीति के तहत बस प्रजनन क्षमता और संतुष्ट भोग वस्तु अनुरूप समझा जाये तथा उनकी योग्यताओं दरकिनार कर को उन्हें गैर-लाभकारी उत्पादकता के अनुरूप न्यूनतम समझा जाये। एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में स्त्री की क्षमता, योग्यता, और योगदान को मान्यता देना न केवल उनके लिए, बल्कि समाज के लिए भी अनिवार्य है। स्त्री के प्रति एक संतुलित, सम्मानजनक और समानतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने जीवन के हर पहलू में स्वतंत्र रूप से योगदान दे सकें और अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकें।

एक संतुलित और सामाजिक सहयोगात्मक, समर्थित दृष्टिकोण स्त्री को उचित मानव संसाधन के प्रति दृष्टिकोण, समाज के लिए एक चेतावनी और आत्मावलोकन का विषय और आवश्यकता है, ताकि वे अपने जीवन के हर पहलू में स्वतंत्र रूप से योगदान दे सकें और अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकें। स्त्री को केवल “प्रजनन क्षमता” या “सजावट” के नजरिए से देखना एक अत्यंत संकीर्ण दृष्टिकोण है। यह आवश्यक है कि उन्हें एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाए, जिसमें उनकी बौद्धिकता, सृजनात्मकता और मानवीय गुणों का सम्मान हो। ऐसे विचारों को व्यापक रूप से साझा करना और इस पर संवाद स्थापित करना बेहद जरूरी है, ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो न केवल स्त्रियों को समान अधिकार और गरिमा दे, बल्कि उन्हें अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करने का अवसर भी प्रदान करें। इस सोच को फैलाने और इस पर गहन चर्चा करने की आवश्यकता है ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो स्त्री को व्यक्ति व मानव के रूप में संकल्पित और स्वीकार कर उनकी गरिमा और अधिकारों को समान रूप से मान्यता दे