खुशियों की टिकिया

राजकुमार जैन

केंद्रीय मंत्री श्री अर्जुन राम मेघवाल की पत्नी की सुन लीजिए कहानी खुशी की।

साल रहा होगा 1968-69 का। पाना देवी की उम्र रही होगी करीब 15 वर्ष। मुमकिन है हम में से बहुत से लोग जो आज रोज़ मखमली त्वचा पाने दिलाने और सुगंध फैला देने वाले साबुनों से स्नान करते हैं उन्हें साबुन के इतिहास के बारे में पता ही न हो। ठीक से याद करें तो सत्तर के दशक तक भारत में साबुन का स्थान सामान्य व्यक्ति के जीवन में लगभग नहीं के बराबर था। कुछ बड़े लोग पानी में गुलाब या नीम के पत्ते का प्रयोग छुप-छुपा कर कर लिया करते थे। लेकिन असल में साफ-सफाई के लिए जो चीज़ प्रचलित थी वो काली मिट्टी, मुल्तानी मिट्टी, उबटन, चंदन, हल्दी आदी का लेप हुआ करता था। महिलाएं अपने बालों को धोने के लिए तिल के पत्ते, रीठा का पानी इस्तेमाल करती थीं।

मुझे खुद अपना साढ़े सत्तर का अपना दशक याद है कि हर हफ्ते मां बेसन, हल्दी का उबटन लगा कर धूप में बिठा देती थी और फिर रगड़-रगड़ कर उबटन उतारा जाता और अपनी त्वचा चमक उठती थी। हाथ धोने के लिए राख और मिट्टी का इस्तेमाल तो बहुतों को याद होगा। खैर कहानी सुना रहा था मेघवाल जी पत्नी पाना देवी की।

पाना देवी के बड़े भाई को रेलवे में उन दिनों नौकरी मिली। नौकरी क्या? स्टेशन पर पटरियों के बीच की सफाई का काम।
घर में पैसों की ज़रूरत थी। पर ये नौकरी भी कोई नौकरी हुई कि पटरियों के बीच की सफाई की जाए? घर में कुछ लोगों ने विरोध किया कि ऐसी नौकरी से नहीं नौकरी बेहतर है। अजीब दुविधा की स्थिति थी। पैसों की ज़रूरत थी। नौकरी कहीं मिल नहीं रही थी। ऐसे में चाहे पटरियों के बीच की जगह साफ करने का काम ही था, पर काम तो था। चाहे थोड़ी-सी सैलरी ही सही, पर सैलरी तो थी। पाना देवी के भैया खुद दुविधा में थे कि एक तो बेरोजगारी के उस दौर में कहीं काम मिला और घर के लोग उसमें मीन-मेख निकालने लगे थे। पहला महीना बीता। भैया अपने घर बहुत थोड़ी-सी सैलरी लेकर आए। पर साथ में साबुन के बट्टे उन्हें साफ-सफाई के लिए मिले।

उन दिनों साबुन का प्रचलन नया-नया आम घरों तक पहुंच रहा था। पाना देवी ने भाई के हाथ में साबुन देखा तो उछल पड़ीं। घर के लोग पाना देवी के भाई को कोस रहे थे कि ये कैसा काम पकड़ लिए। एक तो सैलरी भी कम ऊपर से स्टेनश प्लेटफार्म पर पटरियों के बीच गंदगी देखी है? लोग पता नहीं वहां क्या-क्या गंदगी करके जाते हैं। ऐसे में ये कोई काम हुआ?

भैया परेशान थे। तभी पाना देवी घर वालों के सामने आईं और उन्होंने सबके सामने कहा कि आप लोग सिर्फ कमियां ढूंढते हैं। खुशी नहीं। ये देखिए, भैया को दो बट्टे साबुन के मिले हैं। साबुन कोई मामूली चीज़ नहीं। साबुन से नहा कर देखिए। मैंने सुना है, साबुन बहुत खास चीज होती है। भैया को सैलरी के अलावा दो बट्टे साबुन के मिलेंगे तो इससे अधिक और क्या चाहिए? “भैया, आप तो काम करते रहो। खुशी से करो। ये साबुन जो हैं न, वो खुशियों की टिकिया हैं। बाकी मीन-मेख तो हर काम में निकालने वाले मिलते ही रहेंग।

मेघवाल जी पहले राजस्थान के जिले में कलेक्टर रह चुके हैं। शादी के बाद पति को पढ़ने देने के लिए पाना देवी ने ही बार-बार उकसाया। कदम-कदम पर उनका साथ दिया। आज जब पति इस मुकाम तक पहुंच चुके हैं तो भी पाना देवी से मिल कर उनकी खुशियों का फार्मूला उनसे आसानी से पाया जा सकता है। कभी हाथ से बना पापड़ खिलाती हैं कभी सांगरी की सब्जी। वो खुश रहती हैं। ज़िंदगी की छोटी से छोटी बात में वो खुशियों को तलाश करना जानती है। कहती हैं जीवन की यात्रा में हर पल को जीना चाहिए। छोटी से छोटी खुशी मिले, उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए।

जीवन खुश रहने के लिए है। जो जीवन में दुख तलाशते हैं, उनका साथी दुख हो जाता है। जो खुशियों को तलाशते हैं, उन्हें खुशी का साथ मिलता है।