जरूरत है अवसाद के प्रति जागरूक होने की

There is a need to be aware of depression

डॉ नीलम महेंद्र

हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो अक्सर कमजोरियों को नकारता है। शायद इसलिए हम इसे सार्वजनिक रूप से तो छोड़िए, निजी तौर पर भी स्वीकार करने से बचते हैं।

जरूरत है अवसाद के प्रति जागरूक होने की

“पहला सुख निरोगी काया”

जिस समय यह कहावत बनी थी तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि मन भी कभी रोगी हो सकता है। लेकिन आज का कटु यथार्थ यह है कि विश्व भर में अधिकांश लोग डिप्रेशन या अवसाद से ग्रसित हैं।

यहाँ यह समझना आवश्यक है कि अवसाद या डिप्रेशन किसी व्यक्ति की मात्र एक मानसिक स्थिति नहीं है। बल्कि यह एक ऐसी गंभीर बीमारी है जो उसके शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। चिंताजनक विषय यह है कि आज के समय में क्या बच्चे क्या युवा क्या बुजुर्ग हर आयु वर्ग के लोग अवसाद के शिकार हो रहे हैं। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में जहां भौतिकवाद हावी है,मानसिक तनाव हम में से अधिकांश लोगों के जीवन का एक अहम हिस्सा बन गया है।

चूंकि अवसाद व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है, आवश्यकता इस बात की है कि आज हम इस बात के प्रति जागरूक बनें कि स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ तन के स्वस्थ होने से नहीं है, मन का स्वस्थ होना भी जरूरी है।

लेकिन अवसाद के विषय में जानने से अधिक उसे स्वीकार करना अधिक महत्वपूर्ण होता है। मानसिक स्वास्थ्य के विषय के में जानकारी होने के बावजूद किसी के लिए भी यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि वो डिप्रेशन का शिकार है।

यही कारण है कि किसी की बनावटी मुस्कान के पीछे, किसी के सफलता के भौतिक दिखावे के पीछे, तो किसी के काम में डूबे रहने की आदत के पीछे एक अवसाद ग्रस्त मन छुपा है यह जानना उनके अपनों के लिए भी आसान नहीं होता।

क्योंकि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो अक्सर कमजोरियों को नकारता है। शायद इसलिए हम इसे सार्वजनिक रूप से तो छोड़िए, निजी तौर पर भी स्वीकार करने से बचते हैं।

आंकड़ों की बात करें तो भारत में करीब 56 मिलियन लोग अवसाद से प्रभावित हैं और विचलित करने वाला तथ्य यह है कि यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, हर छ में से एक भारतीय व्यक्ति जीवन में किसी न किसी मोड़ पर अवसाद का शिकार होता है। लेकिन फिर भी अवसाद के प्रति लोगों में जागरूकता या फिर कहें स्वीकार्यता की कमी है।

भारत में अवसाद के मामले मुख्य रूप से युवाओं और कामकाजी वर्ग में बढ़ते जा रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 15 से 29 वर्ष के बीच के करीब 15% भारतीय अवसाद से प्रभावित हैं। दरअसल किशोरावस्था और युवावस्था की उम्र में , असफलता का डर और भविष्य को लेकर असुरक्षा की भावना अपने चरम पर होती है। क्योंकि करियर की चुनौतियाँ, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रतिस्पर्धा का तनाव, माता पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव और समाज में व्याप्त सफलता की जटिल परिभाषाएँ उन्हें अवसाद की ओर धकेल देती हैं।

आर्थिक असुरक्षा और बेरोजगारी भी अवसाद के प्रमुख कारणों में से एक है। आंकड़े बताते हैं कि 60% लोग अपनी आर्थिक स्थिति को मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चुनौती मानते हैं।

आज के दौर में अवसाद का एक और प्रमुख कारण सामाजिक अस्वीकृति और अकेलापन है। तेजी से बदलते समय में लोगों के बीच रिश्तों में दूरियां आ गई हैं। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने लोगों को वास्तविक जीवन में एक-दूसरे से और अधिक दूर कर दिया है। आजकल सोशल मीडिया पर दिखाए जाने वाले जीवन की चमक-दमक और दूसरों की सफलता की तुलना करने से कई लोग खुद को हीन महसूस करने लगते हैं।

इस प्रकार की मानसिक स्थिति कई बार इस हद तक व्यक्ति के आत्मविश्वास को हिला देती है कि वह आत्महत्या के विचारों तक भी पहुँच सकता है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं, और इनमें से अधिकांश लोग मानसिक अवसाद से प्रभावित होते हैं।

इसलिए जरूरत इस बात की है कि अवसाद को हल्के में न लिया जाए। वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक है कि हम मानसिक स्वास्थ्य की एहमियत को समझें और अवसाद जैसी परिस्थितियों को समय रहते पहचानें। यहाँ यह समझने की जरूरत है कि अवसाद एक परिस्थिति जन्य मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति को आपके प्रेम भरोसे और साथ की जरूरत होती है। यदि इसे समय रहते पहचान लिया जाए, तो हम बहुत से किशोरों और युवाओं को नकारात्मकता के अंधेरे से निकालकर सकारात्मक एवं उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जा सकते हैं।

लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं