
प्रो. नीलम महाजन सिंह
ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता के 78 वर्षों के बाद भारत में दंगे ही दंगे, बेहद चिंताजनक व निंदनीय हैं। जबकि भारत दुनिया भर में ‘विविधता में एकता’ पर गर्व करता हैं – हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई भाई-बहन कहते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन समुदायों का एक बड़ा हिस्सा अपने दिलों में नफरत के साथ जी रहा है; क्योंकि उनके तथाकथित ‘भाई वास्तव में एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं’। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 – 28 में सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देतें हैं। अनुच्छेद 25 के अनुसार, किसी भी धर्म का पालन करने, उसे मानने व उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता के साथ-साथ विवेक की स्वतंत्रता भी आवश्यक है। हालाँकि, ये स्वतंत्रताएँ सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता व स्वास्थ्य के अधीन हैं। अनुच्छेद 26 धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना व रखरखाव सहित धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। अनुच्छेद 27 गारंटी देता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म के प्रचार या रखरखाव के लिए कोई कर या शुल्क देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल है, जिसका अर्थ है कि राज्य किसी भी धर्म के पालन में भेदभाव, संरक्षण या हस्तक्षेप नहीं करेगा। भारत में लंबे समय से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़ी प्रतिद्वंद्विता है। हम भारत में 1000 से अधिक वर्षों से सह-अस्तित्व में हैं, लेकिन लंबे समय तक हमारे बीच सौहार्दपूर्ण संबंध क्यों नहीं रहे? धर्मांतरण, असहिष्णुता व मुसलमानों के आक्रमणों का खूनी इतिहास शायद इन युद्धों के लिए ज़िम्मेदार है। ब्रिटिश शासन के समय, हिंदू व मुसलमान एकजुट हुए क्योंकि वे सभी समाज में एक समान उत्पीड़न के अधीन थे। यह उत्पीड़ित वर्ग को एकजुट करता है, यह एक साथ लड़ने का कारण देता है। क्या इसका मतलब यह है कि उन दिनों में दोनों समुदायों के बीच कोई मुद्दा नहीं था? बिल्कुल नहीं, क्योंकि हमारे देश के विभाजन के बाद मुस्लिम पाकिस्तान (दुनिया की मुस्लिम आबादी का 11.1%; वर्तमान देश के आँकड़े: मुस्लिम – 96.47%, हिंदू-2.14%) व धर्मनिरपेक्ष भारत (दुनिया की मुस्लिम आबादी का 10.9%; वर्तमान देश के आँकड़े: मुस्लिम -14.2%, हिंदू-79.8%); कत्लेआम, खून-खराबा, लोगों के दिलों में भरी नफरत की चीखें, जो एकता के कारण खत्म होते ही बाहर आ गईं। अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद क्या अंग्रेजों ने यह दरार पैदा की? बेशक ‘फूट डालो और राज करो’ (Divide and Rule policy); ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य का लक्ष्य था। यह कहना कि 21वीं सदी में धर्मों व समुदायों के बीच इस दरार का इतिहास महत्वहीन है, सत्यनहीं है ।लेकिन अगर यह आज खत्म हो जाए तो क्या होगा? वर्तमान परिदृश्य पर सच्ची ‘विविधता में एकता’ का क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या हम एक शांतिपूर्ण राज्य बन पाएंगे? क्या ऐसे लोग हैं जो भारत के इन दो प्रमुख धर्मों के बीच सद्भाव से लाभ की बजाय नुकसान में हैं? जबकि हमारे जैसे आम लोगों के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता जीवन को आसान बनाती है, बहुत से लोग इसे एक धार्मिक-राजनीतिक अवधारणा मानते हैं और वे इस भयावह विभाजन को बढ़ावा देकर व्यक्तिगत लाभ उठा रहे हैं। यह राजनेताओं को अपने वोट बैंक को ठीक करके सबसे बड़ा केक का टुकड़ा लेने में मदद करता है। जबकि हम दंगों में अपने प्रियजनों को खो देते हैं, इनमें से बहुत से राजनेता आग में चिंगारी डालकर अपनी सीट व रोटी कमाते हैं! कपड़ों के ब्रांड से लेकर आभूषण की बड़ी कंपनियों तक, इस विभाजन को अपने विज्ञापनों के आधार पर बिना किसी प्रयास के बड़ी पहुंच प्राप्त कर लेती हैं, क्योंकि वे दोनों पक्षों के कई लोगों की एक दूसरे के प्रति असहिष्णुता को जानते हैं। यह चरमपंथियों को नफरत फैलाकर व मतभेदों को सुलझने न देकर प्रसिद्धि या पैसा कमाने में मदद करता है। यह समाज की दूसरी कुरूप प्रथा – जातिवाद को छिपाने में मदद करता है, जो दोनों पक्षों में प्रचलित है। ऐसा नहीं है कि अब भेदभाव नहीं हो रहा है, लेकिन धार्मिक विभाजन के कारण यह सब छिप जाता है। इस विभाजन का एक और समान्य रूप से महत्वपूर्ण लाभ कुछ शातिर लोगों के लिए यह है कि इस मुद्दे का उपयोग ‘जोकर कार्ड’ के रूप में किया जा सकता है ताकि भीड़ का ध्यान खराब बुनियादी ढांचे, अर्थव्यवस्था, कानून और व्यवस्था में खामियों व उन सभी बुनियादी बातों से हटाया जा सके, जिनकी आज एक राष्ट्र के रूप में हमें ज़रूरत है। अगर सोशल मीडिया पर नफरत को फॉरवर्ड न किया जाए तो स्वतंत्र लोग खुद को कैसे व्यस्त रखेंगें? अगर यह विभाजन खत्म हो जाए तो निराश लोग अपनी भड़ास कहां निकालेंगें? व्यंग्य को छोड़ दें तो लोग सचमुच अपने मन और दिल में गुस्सा और हताशा के साथ इंटरनेट पर बैठे लोग अपने अंदर मौजूद नफरत को फैलाने के लिए लंबे-लंबे संदेश टाइप कर रहे हैं। चंचल, मासूम लोग जिन्हें आसानी से गुमराह किया जा सकता है, उन्हें अपने संपर्कों में और आगे भेज देते हैं। हम एक व्यक्ति के कार्यों को पूरे समुदाय पर लागू कर देते हैं और यह एक समस्या है क्योंकि हम सभी समुद्र में बूँदें हैं, न कि एक बूँद में समुद्र! बेकाबू सोशल मीडिया जैसे कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, पर्सनल यूट्यूब चैनल, ज़हर उगल रहे हैं। जातिवाद द्वारा दमन स्पष्ट दिखाई दे रहा है। हमें विभाजित करने की नई रणनीतियाँ सामने आएंगीं क्योंकि वैश्विक समाजों में राजनीति मुख्य रूप से इसी तरह काम करती है, ‘फूट डालो व राज करो’। सारांशार्थ अगर हम चीज़ों को अधिक तार्किक रूप से व समाधान खोजने वाले दृष्टिकोण से देखना शुरू करें, तो कोई भी हमें यह विश्वास दिलाने में मूर्ख नहीं बना सकता कि कोई भी धर्म हिंसा सिखाता है। अगर हम समय की ज़रूरतों, यानी नौकरियों, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, बुनियादी ढाँचे, संसाधनों, जनसंख्या, अर्थव्यवस्था आदि पर ध्यान दें, तो हम एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में विकसित होंगें। अगर हम इंटरनेट पर नफ़रत फैलाने के बजाय सीखने और ज्ञान साझा करने में अपना समय लगाते हैं, तो हम इंसानियत में अधिक विकसित होंगें। अगर प्रतिद्वंद्विताएं आज खत्म हो जाएं, अगर हम सभी लोगों को उनके कौशल व प्रतिभा के लिए महत्व देना शुरू कर दें और लिंग, धर्म, विश्वास, कपड़े आदि को व्यक्तिगत पसंद के रूप में रहने दें, अगर हम दयालुता चुनें और कानून – व्यवस्था लोगों को न्याय देने के लिए सख्त और तेज हो जाएं, सभी व्यक्तिगत पसंदों के बावजूद, अगर हम खुद को किसी भी धर्म से ज़्यादा भारतीय के रूप में पहचानें, तो हम सौ गुना बेहतर जीवन व एक सुरक्षित समाज में वासुदेव कुटुम्बकम का साक्ष्य होंगें। ज़रा सोचिए!
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखिका, स्तंभकार, मानवाधिकार संरक्षण के लिए सॉलिसिटर और परोपकारी)