विनोद कुमार विक्की
सोशल मीडिया ने हर किसी का कायाकल्प किया है। सोशल मीडिया और रक्त बीज की तरह पनप रहे विभिन्न एप की मदद से शार्ट टर्म दार्शनिक शायर,गायक,नेता, अभिनेता, अभिनेत्री, रिपोर्टर, युट्युबर की खेती हमारे देश में व्यापक पैमाने पर हो रही है।
मुझे भी बचपन से पत्रकार बनने का शौक था। मेरे अंदर पत्रकार बनने के सभी लक्षण प्राकृतिक रूप से कुट-कुट कर विद्यमान था। दूसरे के फटे में टांग डालने का नैसर्गिक गुण हो अथवा इधर की बात उधर करने की संचार कला, मेरे धमनियों और शिराओं में प्रवाहमान रहता था। खिड़कियों या दरवाजे से तांक झांक करते हुए मुहल्ले का शायद ही कोई घर बचा हो जहां मेरी कुदृष्टि ना पड़ी हो।
गांँव के प्रधान या थानेदार को भी गांव या ग्रामीणों की उतनी खैर-खबर ना होती थी जितना मैं नौ-दस साल की अल्पायु में ही जान गया था।इस शौक के कारण मुझे यह ज्ञात हो जाता था कि गांँव के किस परिवार में पति -पत्नी और वो का मामला चल रहा है, किस घर में सास बहू प्रकरण परवान पर है। कहां आर्थिक तंगी चल रही है और कहां मलाई काटा जा रहा है।
चुगली,गाली से लेकर खेत में छुपकर बीड़ी,सिगरेट सुलगाने, जुआ खेलने वाले नाबालिग लौंडों के सदकृत्य,नोट्स की आड़ में प्रेम पत्र का आदान-प्रदान करने वाली बालिकाओं की गतिविधि,जेब खर्च वाली आय से अधिक खर्च करने वाले बिगड़ैल बच्चों की फिजूलखर्ची आदि की प्रथम सूचना उसके अभिभावक के कानों में मेरे ही माध्यम से पहुंचती थी।नाम प्रकट ना करने कि शर्त पर संचारित मेरी यह गुप्त सेवा नब्बे के दशक में थ्री-जी,फोर जी तकनीक से भी द्रूत सेवा मानी जाती थी। परम आनंद की प्राप्ति के उद्देश्य मात्र से फ्रीलांस के तौर पर मेरी यह सेवा बिल्कुल निःशुल्क हुआ करती थी। हालांकि कई बार गोपनीयता भंग होने की स्थिति में अपने इस नैसर्गिक सेवा के कारण बिना साबुन पानी के धुलाई का सुख भी कई बार प्राप्त हो चुका है।
बहरहाल, प्राकृतिक पत्रकारिता में मै जितना आसक्त था पढ़ाई-लिखाई में उतना ही विरक्त था। पिताजी के जूते और मास्साब की छड़ी के संयुक्त दबाव का सद्परिणाम ही है कि ग्रेजुएट होने की उम्र में जैसे-तैसे बौद्धिक रूप से नन-मैट्रिक होने की शैक्षणिक योग्यता हासिल कर पाया। संघर्ष के दिनों में उचित डिग्री के अभाव में नौकरी का अभाव जीवन में सदैव बना रहा।
अपने अनुभव के आधार पर कई समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों के चौखट पर पत्रकार बनने का जज़्बा दिखाया किंतु डिग्री ना दिखा पाने की स्थिति में रिपोर्टर क्या वेटर तक का आफर नहीं मिला।
लिख लोढ़ा पत्थर की स्थिति में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से डिग्री ले पाना मेरे लिए मंगल पर पानी खोजने से भी दुरूह था।थक हार कर रिपोर्टर बनने की इच्छा को फेफड़ों में दबा कर रोजी रोटी की जुगाड़ में लग गया।
किंतु एक दिन टीवी पर एक इंजीनियर को यूट्यूब पत्रकारिता करते देखा। जबरिया मुंह के पास माईक रख चिल्ला-चिल्ला कर प्रश्न पूछने का उसका तरीका मुझे भा गया। चमड़े की जुबान से सिर्फ और सिर्फ सवाल ही तो करना था। इस दिव्य ज्ञान की प्राप्ति और यूट्यूबर पत्रकारों की छिछोरपंथी देख मेरे अंदर दफन पत्रकार की आत्मा जाग गई। भला हो सोशल मीडिया का जिसके सौजन्य से हर घर में ग़ालिब और दिनकर तथा हर मुहल्ले में मोबाइल पत्रकार का उत्पादन हो रहा है।फिर क्या बिना वक्त गंवाए मैने यूट्यूब पर ‘मौके पर भौंके’ नामक न्यूज चैनल लांच कर दिया। दो वर्षों में पौने दो दर्जन सब्सक्राइबर भी बन गए।
अब मैं मोबाइल और माईक लेकर जहां-तहां मुंह मारने लगा।जब जिस पर हो आरोप लगा देता।मानव से मुर्गी तक की खबरों से संबंधित विडियो न्यूज चैनल पर नियमित प्रसारित करता रहता।बात का बतंगड़ बनाने में मै सिद्ध हस्त हो चुका हूं।बिना डिग्री वाला मोबाइल रिपोर्टर होने के बावजूद लोग मेरे रिपोर्टिंग से खौफजदा हैं।
कई बार जबरदस्ती घुस-घुस कर आरोप लगाने या चिल्लाने के कारण दबंग ठेकेदार, दलाल आदि के हाथों आफलाइन ठुकाई भी हो चुकी है। मेरे सजग पत्रकारिता और लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मेरे चैनल के जितने व्युअर्स और सब्सक्राइबर्स नहीं है, उससे कहीं ज्यादा लोकल थाना में मेरे खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हुई है। बहरहाल हाजत में पुलिस वालों ने तबियत से मेरे हड्डियों को तोड़ा किंतु मेरा हौसला नहीं तोड़ पाए। पत्रकारिता के प्रति मेरा जोश और जज़्बा आज भी बरकरार है।
जानकारी मिलने भर की देर है,दूसरे के फटे में टांग डालने आज भी माईक और मोबाइल के साथ मुँह उठा कर घटनास्थल पर पहुंच ही जाता हूं।