मनोहर मनोज
भारत के राजनीतिक डोमेन में चलायमान बड़े मुद्दों की फेहरिश्त में एक मुद्दा जो बारंबार उदधृत किया जाता है कि सरकार ने उद्योगपतियों का लाखों करोड़ कर्ज माफ कर दिया पर किसानों की कर्ज माफी पर उसे अक्सर सांप सूंघ जाता है। इस बात को विगत के लोकसभा व विधानसभा चुनावों में भी उछाला गया। मजे की बात ये हैै कि सत्तारूढ एनडीए ने इन आरोपों का बचाव तो नहीं किया पर कभी खंडन भी नहीं किया। अब इस समूचे मामले की वस्तुस्थिति क्या है ये जानना और सार्वजनिक रूप से बताया जाना बेहद जरूरी है। सबसे पहले सरकार की तरफ से ना तो यूपीए काल में और ना ही एनडीए काल में घोषित व विधिवत रूप से उद्योगपतियों की कर्ज माफी का कोई विधिवत फैसला लिया गया है। देखा जाए तो 2010 दशक के दौरान देश के बैंकिंग सेक्टर में तेजी से एनपीए यानी अनुत्पादक बैकिंग परिसंपत्ति या चुकता नहीं किये जाने वाले लोन की मात्रा बढी जो कुल बैकिंग कारोबार का दस फीसदी यानी दस लाख करोड़ तक पहुंच गया तो इसे लेकर सार्वजनिक मंचों पर तीखी बहस की जाने लगी। इसे लेकर मोदी सरकार की तरफ से तो विगत के यूपीए सरकार पर कड़े आक्षेप लगाते हुए उस दौरान बैंकों द्वारा राजनीतिक दबाव में दिये गए कर्जे को लेकर श्वेत पत्र जारी करने की भी बात कही गईं।
अभी संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में एनपीए और कर्ज माफी को लेकर सरकार ने जो नये आंकड़े पेश किया है उसमे इस मामले की वस्तु स्थिति की काफी जानकारी समझ में आ रही है। संसद में पेश ब्यौरे के मुुताबिक बैंकों का जो सकल एनपीए मार्च 2018 में उनकी सकल परिसंपत्ति का 14.6 फीसदी था वह अभी घटकर 3.1 प्रतिशत पर यानी 3.16 लाख करोड़ रुपये पर आ गया है। जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों के सकल एनपीए की यह राशि उनके कुल बैंक कर्जे का करीब 3.1 फीसदी यानी 1.34 लाख करोड़ है। यानी निजी बैंकों के कुल कर्ज बकाये का 1.86 फीसदी बैड लोन है। गौरतलब है कि बैंकों के इस एनपीए में सरकारी बैंकों के साथ निजी बैंकों की भी अच्छी खासी हिस्सेदारी है।
संसद में पेश ब्यौरे के मुताबिक इस दौरान बैंकों की पूंजी पर्याप्तता अनुपात और मुनाफे की मात्रा में भी जबरदस्त बढोत्तरी दर्ज हुई है जो 2015 में 11.5 फीसद से बढकर सितंबर 24 में 15.4 फीसदी तथा बैंकों का मुनाफा गत साल के 1.1 लाख करोड़ के मुकाबले इस वर्ष 1.4 लाख करोड़ हो गया है। यद्यपि सरकार यह स्वीकार कर रही है कि पिछले दस साल में करीब 12 लाख करोड रुपये का कुल बकाया लोन बैंकों ने अपने सालाना बैलेंस शीट में प्रोविजनिंग कर हटा या है। पर इसका मतलब ये कत्तई नहीं कि ये सभी कर्जे माफ कर दिये गए हैं। बकौल वित्त राज्य मंत्री इन सभी बकाये कर्जे की वसूली को लेकर बैंक पहले की तरह अपने कर्जधारकों क ा बदस्तुर तगादा करते रहेंगे।
संसद में पेश ब्यौरे के मुताबिक पिछले दस साल में बैंकों ने अपने 12 लाख करोड़ रुपये कर्जे की जो प्रोविजनिंग की उसमे देश के सरकारी बैंकों ने 53 फीसदी यानी 6.5 लाख करोड़ की राशि केवल पिछले पांच साल के दौरान की है। समूचे बैंकिंग उद्योग में करीब बीस फीसदी हिस्सेदारी वाले स्टेट बैंक ने इस दौरान अकेले दो लाख करोड़ रुपये की प्रोविजनिंग की । इसके बाद 94 हजार करोड़ रुपये की प्रोविजनिंग पीएनबी के जरिये की गई। यूनियन बैंक द्वारा 82 हजार करोड़ तथा बैंक आफ इंडिया द्वारा 45 हजार करोड़ रुपये की प्रोविजनिंग रिजर्व बैंक आफ इंडिया के दिशा निर्देशों के मुताबिक की गईं है। इस क्रम में चालू वित्त साल की बात करें तो इसमें सरकारी बैंकों ने कुल 42 हजार करोड़ रुपये की प्रोविजनिंग की।
सरकार के मुताबिक उसने अपने अनुत् पादक परिसंपत्ति के निपटारे के लिए चार आर यानी रिकोगनाइज , रिसोल्युशन एंड रिकवरी, रिकैपिटलाइजेशन एंड रिफोर्मपर काम किया और इस क्रम में उसने लोन रिकवरी के लिए मौजूदा सभी कानूनों का ज्यादा बेहतर इस्तेमाल किया। इसके तहत कर्ज बकायेदारों के खिलाफ सरफरोसी यानी सिक्युरिटाइजेशन एंड रिकन्सट्रक् शन आफ फाइनेंसिएल एसेटस एंड इन्फोर्समेंट 2002 के अंतर्गत कर्ज रिकवरी पंचाट यानी डीआरटी में सिविल याचिका दायर करना तथा दूसरा एनसीएलटी में दिवालिया कानून 2016 के तहत याचिका दायर करना, तीसरा कर्ज देनदार व लेनदार के बीच आपसी सुलह समझोते तथा चौथा एनपीए की बिक्री के जरिये एनपीए को कम करने का प्रयास किया गया है।
इन सारी वस्तु स्थिति को परखने के बाद चीजें यही स्पष्ट हो रही हैं कि देश के लालची कारपोरेट द्वारा कैसे बैंकि ंग उद्योग का भारी पैमाने पर दुरूपयोग किया जाता है? दूसरी तरफ आंकड़े इस बात की गवाही देते हंै कि स्वसहायता समूह व एमएसएमई जैसे कर्जदार इसी बैंक कर्ज प्रणाली का सदुपयोग कर शत प्रतिशत पुनरभुगतान कर रहे हंै। वस्तुस्थिति ये है कि देश के बैंकिंग सेक्टर में लोन या कर्ज देने की पूरी कार्यप्रणाली सवालिया निशानों के घेरे में रही है। बड़े बड़े कर्ज की परियोजनाएं बैंकों द्वारा या तो राजनीतिक दबाव में या फिर मनमौजी स्वविवेक के जरिये स्वीकृत कर दी जाती हैं। हमने देखा किस तरह से पीएनबी स्कैम के आरोपी नीरव मोदी व मेहूल चौकसी ने स्विफ्ट प्रक्रिया को चकमा देकर बारह हजार करोड़ रुपये का चंपत कर दिया गया और बैंकों के बड़े अधिकारी व उनकी नियामक संस्था आरबीआई के पलक तले हीं ये आरोपी विदेश भी फरार कर गए।
ये ठीक है कि इन सभी वित्तीय हादसे की घटनाओं के बाद सरकार भगोड़ा अपराधी निरोधक कानून लेकर आई। इस वजह से इन अपराधियों के देश स्थित कई परिसंपत्तियां जब्त की गई। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा अभी हाल में बयान दिया गया है कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा विजय मालया, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी जैसे भगोड़ों आर्थिक अपराधियों की देश में करीब 22 हजार करोड़ रुपये की परिसंपत्ति जब्त की गई।
कुल मिलाकर विपक्ष द्वारा उद्योगपतियों की कर्ज माफी की जो पोलीटिकल नैरेटिव दी जाती है वह अपने आप में देश के बैंकिंग वातावरण की सफाई को लेकर एक गलत मैसेज दे रही है, एक ऐसा मैसेज जिससे कर्जदारों को एक अभयदान का मैसेज मिल जाता है। जबकि मैसेज ये देना चाहिए कि आपदा काल के अपवाद को छोडक़र कर्ज माफी चाहे किसी की भी हो और विलफुल डिफाल्ट चाहे जिसके जरिये हो, ये दोनो अर्थव्यवस्था के लिए कैंसरकी तरह हैं।
सरकार को चाहिए कि इस पूरे मामले पर बैंकों की कर्ज परियोजनाओं के चयन व स्वीकृति देने की प्रक्रिया को पूर्ण वैज्ञानिक, पारदर्शी, निष्पक्ष व टेक्क नोलाजी ड्रिवन बनाए जिसमे किसी भी स्वविवेक की गुंजाइश ना हो। एक तरफ कर्ज देने की प्रक्रिया बेहद उदार तो दूसरी तरफ कर्ज वसूली की प्रक्रिया उतनी ही कठोर होनी चाहिए। यदि अरबों रुपये के कर्ज आसानी से स्वीकृत हों और लाख रुपये के कर्ज के लिए आवेदकों को अपने चप्पल घिसने पड़े तो फिर बैंकों की कर्ज प्रक्रिया अपने आप में कई सवालों को जन्म देती है।
अभी विकास अर्थशास्त्रियों में भी इस बात की बहस चली है कि कर्ज जनित विकास का दर्शन उचित है या लाभ अतिरेक का निवेश। क्योंकि कर्ज जनित एनपीए हमारी अर्थव्यवस्था के लिए ना केवल विनाशकारक है बल्कि भ्रष्टाचार और अपराध को प्रोत्साहित करने वाला। यह ठीक है कि मोदी सरकार ने प्रोवजनिंग के जरिये अपने एनपीए को 15 फीसदी से घटाकर 3 फीसदी कर आंकड़ों का आत्मविश्वास हासिल कर दिया है पर कर्ज वसूली की यह प्रक्रिया तबतक चलनी चाहिए जबतक एक एक बकाये की वसूली ना हो जाए।