
विवेक शुक्ला
आप जानते हैं कि देश में कामकाजी औरतों की तादाद बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही इनके कार्यस्थलों में शोषण की खबरें भी आती रहती है। कितनी कार्यशील महिलाओं के साथ यौन शोषण होता है? कैसे होता है? क्या यौन शोषण के खिलाफ बने कानून का दुरुपयोग भी होता है? मशहूर वकील और महिलाओं के अधिकारों के लिए लंबे समय से एक्टिव सीमा जोशी ने इस सारे मसले पर शोध किया है। उन्होंने इस विषय पर किताब भी लिखी है, जिसकी प्रस्तावना सुप्रीम कोर्ट की हाल ही में रिटायर हुई जज हिमा कोहली ने लिखी है।
यकीन मानिए कि देश में हरेक तीसरी कार्यशील महिला का दफ्तर में कभी ना कभी यौन शोषण हुआ होता है। ये मत समझिए कि किसी मल्टीनेशनल या मशहूर कंपनी अथवा संस्थान में काम करने वाली महिलाएं महफूज है। उन्हें भी उसी तरह से प्रताड़ित किया जाता है जैसे कि किसी छोटी सी फैक्ट्री में काम करने वाली महिला वर्कर को किया जाता है। भारत में कार्यशील महिलाओं का दफ्तरों, फैक्ट्रियों और अन्य स्थानों पर होने वाला यौन शोषण एक गंभीर मुद्दा है। इसे कानूनी, सामाजिक और व्यक्तिगत स्तरों पर समझना आवश्यक है। यौन उत्पीड़न में कई तरह के अवांछित व्यवहार शामिल हैं, जिनमें शामिल हैं: शारीरिक संपर्क और छेड़छाड़,यौन संबंध बनाने की मांग या अनुरोध, यौन टिप्पणियां, अश्लील साहित्य दिखाना। इस सबके अलावा,कोई भी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण जो यौन प्रकृति का हो।
मशहूर वकील सीमा जोशी ने अपनी ताजा किताब Breaking The Silence ( ब्रेकिंग दि साइलेंस) में यौन शोषण का शिकार हुई दर्जनों महिलाओं की आपबीती को लिखा है। वो कहती हैं कि अगर कोई शख्स अपनी महिला सहयोगी के साथ शारीरिक संपर्क, छेड़छाड़ या यौन रंग की टिप्पणियां करता है तो वो भी यौन शोषण की श्रेणी में आता है। हालांकि यौन शौषण को रोकने के लिए कानून है, पर सब प्रताड़ित महिलाएं इसका सहारा नहीं लेती। क्यों? सीमा जोशी कहती हैं कि वजह है समाज का डर। कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए सन 2013 में बने ‘पॉश’ (प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हैरेसमेंट) कानून का असर मिला-जुला रहा है। इस कानून ने कंपनियों को आंतरिक शिकायत समितियों बनाने और यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निवारण के लिए एक तंत्र स्थापित करने के लिए अनिवार्य किया है। कई छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों में इस कानून का ठीक से कार्यान्वयन नहीं हुआ है।
कुछ मामलों में इस कानून का दुरुपयोग भी होता नजर आ रहा है। इसका एक उदाहरण लीजिए। राजधानी के कनॉट प्लेस में एक बिल्डर के दफ्तर में सेक्शन आफिसर के पद पर दफ्तर से ही वरिष्ठता के आधार पर नियुक्ति होनी थी। उस पोस्ट के लिए दो दावेदार थे। एक महिला और दूसरा पुरुष का। नियुक्ति होने से पहले महिला मुलाजिम ने अपने पुरुष सहयोगी पर यौन शौषण का आरोप लगा दिया। सच आंतरिक शिकायत समिति की जांच रिपोर्ट में सामने आ गया। हालांकि रिपोर्ट आने से पहले ही उस पीड़ित व्यक्ति ने नौकरी छोड़ दी जिस पर मिथ्या आरोप लगे थे।
सीमा जोशी मानती हैं कि कामकाजी औरतों के हक में बने कानून के चलते कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के बारे में जागरूकता बढ़ी है। इस कानून के बाद कंपनियों को आंतरिक शिकायत समितियों ( इंटरनल कंप्लेंट्स कमिटीज यानी आईसीसी) बनाने और यौन उत्पीड़न की शिकायतों के हल के लिए एक तंत्र स्थापित करने के लिए मजबूर कर दिया है। कुछ हद तक, कर्मचारियों में कार्यस्थल पर सुरक्षित महसूस करने की भावना बढ़ी है। हालांकि कई छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों में उपर्युक्त कानून का ठीक से कार्यान्वयन नहीं हुआ है।
दरअसल भारत में यौन उत्पीड़न की समस्या लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मक मानसिकता से जुड़ी है। कार्यस्थलों में महिलाओं को अक्सर पुरुषों से कमतर आंका जाता है, जिससे वे उत्पीड़न का शिकार हो जाती हैं। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाएं अक्सर सामाज के दबाव और बदनामी के डर से शिकायत दर्ज कराने से हिचकिचाती हैं। उन्हें डर होता है कि लोग उन पर विश्वास नहीं करेंगे या उन्हें ही दोषी ठहराएंगे।
कई महिलाओं को अपने अधिकारों और यौन उत्पीड़न की परिभाषा के बारे में पता नहीं होता है। इसलिए, वे उत्पीड़न को पहचान नहीं पाती हैं या इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा पाती हैं। यौन उत्पीड़न का महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इससे तनाव, चिंता, अवसाद, आत्मविश्वास में कमी और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर हो सकता है।
ब्रेक्रंग दि साइलेंस की प्रस्तावना सुप्रीम कोर्ट की हाल में रिटायर हुई जज हिमा कोहली ने लिखी है। हिमा कोहली कहती हैं कि भारत की आधी आबादी कामकाज के लिए घर से निकलती है। ये सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ये जिधर काम करें वहां पर माहौल बेहतर हो और इनका किसी तरह से शोषण ना हो। उनका मानना है कि हमारा समाज इस तरह का है कि प्रताड़ित महिला के लिए अपने हक में आवाज उठाना भी कोई आसान नहीं होता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली औरतों की स्थिति तो सच में बहुत खराब होती है।
इस बीच, कई संस्थानों में यौन उत्पीड़न के खिलाफ जागरूकता कार्यक्रम नहीं चलाए जाते हैं। इससे कर्मचारियों को अपने अधिकारों और निवारण तंत्र के बारे में पता नहीं चल पाता है। इसी तरह से कई जगहों में आंतरिक शिकायत समितियों केवल नाममात्र की होती हैं और वे शिकायतों की निष्पक्ष जांच करने में विफल रहती हैं। कुछ मामलों में, समितियों के सदस्य ही आरोपी के प्रति सहानुभूति रखते हैं या पीड़ित को चुप रहने के लिए दबाव डालते हैं।
दरअसल आतंरिक शिकायत समितियों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाना होगा। इसके सदस्यों को यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। सरकार को यौन उत्पीड़न के मामलों में कानूनी प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिए ताकि पीड़ित महिलाओं को आसानी से न्याय मिल सके। देखिए शिक्षा के बढ़ते प्रचार- प्रसार के चलते लगातार कार्यशील महिलाओं की तादाद बढ़ती ही रहेगी। इसलिए कार्यशील औरतों को सुरक्षा देना तो बहुत जरूरी है। सीमा जोशी कहती हैं कि औरतों को समाज का डर छोड़कर अपने साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों की शिकाय़त करनी होगी। उन्हें अपने हक के लिए लड़ना होगा। उनके हक में समाज को आना होगा। सीमा जोशी बेहद खास बात बताती हैं कि अगर किसी औरत के साथ शोषण हो रहा है, तब उसके दफ्तर का मैनेजमेंट अपने आप कदम नहीं उठा सकता। पीड़ित को शिकायत तो करनी ही होगी।