
सीता राम शर्मा ” चेतन “
आज मेरे मानवीय शरीर का जन्मदिन है ! इस शरीर को जीवित बनाए रखने वाले मेरे परमात्म अंश आत्मा का प्रादुर्भाव कब हुआ और इसने कब-कब कौन-कौन से शरीर धारण किए और त्यागे ? यह तो आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षा और उसके व्यवहारिक कठिन मार्ग पर चल कर पूर्ण रूपेण आत्म साक्षात्कार से ही जान पाना संभव है अन्यथा यह अत्यंत चमत्कारी, हर्षदायी और सांसारिक दृष्टि से हर्ष के साथ विषाद से भरी कटु जीवन यात्रा अनवरत जारी रहेगी । इसमें तर्क-वितर्क या कुतर्क का कोई भी प्रयास सर्वथा मूर्खतापूर्ण ही होगा इसमें कोई संशय नहीं, अतः बात इस शारीरिक जीवन के अतीत, वर्तमान और भविष्य की !
यह शरीर आज छप्पन वर्ष का हो गया तो अनायास ही सोचने और मथने लगा हूं इस शरीर का सच ! इसकी उत्पति, इसका विकास, इसके कई अंग, भाग, उनके काम, सबकी अपनी अलग-अलग चेतना और प्रवृति, सबका एक-दूसरे से गठजोड़, सबका एक-दूसरे पर नियंत्रण, मित्रवत स्वभाव, आश्रय और फिर इनके ठीक विपरीत मन-मस्तिष्क चेतना और आचरण के स्तर पर इनमें आपसी सामंजस्य तथा नियंत्रण का अभाव, इनमें आपसी विरोध, कटूता और शत्रुता का स्वभाव भी ! सच मानिए, ऐसा महसूस होता है कि मैं अपने आपमें एक संपूर्ण ब्रह्मांड हूं, जिसका सफलतापूर्वक संचालन और नियंत्रण असंख्य जीवन जी चुके और जीते जीवों की तरह मैं आज तक नहीं कर पाया ! शायद यह मेरे लिए संभव भी नहीं । पर सच यह है कि संसार के कई मनीषियों ने इसे बहुत हद तक संभव कर दिखाया है ! वे आज भी जीवन को इसकी व्यापकता के साथ जी रहे हैं !
मेरे लिए आश्चर्य का विषय यह नहीं कि मैं खुद को जान नहीं पाया क्योंकि खुद की पूरी संरचना को देखने, जानने, समझने और नियंत्रित करने की मेरी दृष्टि और योग्यता को बहुत चाहकर भी मैं पूरी तरह विकसित ही नहीं कर पाया हुं । मेरी इस असफलता का एकमात्र कारण भी मैं खुद हूं । खुद को पूरी तरह से जानने समझने और जीने का जो मार्ग और माध्यम है उस पर चलने और जीने का पूर्ण प्रयास किए बिना यह संभव भी नहीं । घोर आश्चर्य का विषय तो यह है कि मैं अपने सामने दिखाई देते लोगों को, जिनके सदैव साथ रहा, उन्हें उतना भी नहीं जान समझ पाया जितना बहुत सरलतापूर्वक जाना समझा जा सकता था ! ज्ञानी बताते हैं कि यह सब मेरे भीतर के प्रेम के साथ अज्ञानता का खेल है ! जिसे बोलचाल की भाषा में मोह-माया भी कहते हैं !
सचमुच यह प्रेम भी कमाल की चीज है ! जो दिखाई तो नहीं देता पर उसका अहसास ऐसा है कि जीवन का कोई भी पल उससे अछूता नहीं ! हर पल कभी खुद से तो कभी दूसरे से प्रेम का अहसास होता ही रहता है । जीवन के हर्ष और विषाद के हर क्षण का कारण सिर्फ और सिर्फ प्रेम ही है ! कमाल की बात यह भी कि अधिकांश बार हम जिसे प्रेम समझते हैं वह यथार्थ में प्रेम होता ही नहीं । प्रेम पवित्र होता और बनाता है पर अज्ञानतावश मानवीय जीवन में इस छ्द्म प्रेम ने ही हमें खुद का और खुद के अपने लगते दिखते लोगों का मित्र और शत्रु बना दिया होता है, जिसकी अनुभूति और स्वीकृति हम जीवन में कई बार करते तो हैं पर सुधरते बिल्कुल नहीं !
आज इस शारीरिक जीवन के छप्पन वर्ष पूर्ण हुए ! जीवन चाहे जैसे भी व्यतीत हुआ पर अत्यंत आनंददायी मृत्यु की चाह की राह में कुछ व्यर्थ की इच्छाएं आकांक्षाएं अब भी शेष हैं ! साधारण मनुष्य हो या श्रेष्ठ ओजस्वी मनीषी, स्वार्थ अथवा परमार्थ की इच्छाएं शेष ही रहती है । यह जानते समझते हुए भी कि यह सिर्फ उसके वश में है जिसके हम अंश हैं । बिरले ही ऐसे होते हैं जो आध्यात्म और ज्ञान-विज्ञान की वृहद जानकारी प्राप्त करने के बाद खुद को उसे पूर्णतः समर्पित कर देते हैं जैसे सबको कर देना चाहिए ! ऐसा करने का सबसे सरल मार्ग उस पर विश्वास और समर्पण की समझदारी और आचरण है जो बहुत सहजता के साथ अनंत काल से अनंत ब्रह्मांडों का सृजन और उनका सफलतापूर्वक संचालन कर रहा है !
मुझे लगता है जन्मदिन पर अपने मूल स्वरूप के इस विमर्श पर जानने समझने और लिखने कहने को इतना कुछ है कि यदि सिर्फ यही करता रहूं तब भी समय कम पड़ जाएगा क्योंकि इस शारीरिक जीवन के लिए समय की भी अपनी मर्यादा और सीमा है, जिसका उल्लंघन करना संभव और उचित नहीं । अतः यथाशीघ्र अंतिम निर्णय पर जाते हुए अपने और अपने जैसे हर शरीर के लिए सिर्फ इतना ही लिखना कहना चाहता हूं कि आइए, हम अपने और अपने जैसे हर शरीर के साथ हर आत्मीय अंशधारी शरीर के लिए एक ऐसी अनुशासित नियमित आध्यात्मिक जीवन शैली को आचरण में उतारें, जिससे हर शरीर को ज्यादा जिज्ञासु, शांतिपूर्ण, सुखद और समृद्ध शारीरिक मानवीय, सामाजिक, सांसारिक जीवन को जीने का आनंद प्राप्त हो !