मनोहर मनोज
भारत में केन्द्र सरकार हो या तमाम राज्य सरकारें अपने राजनीतिक फायदे के लिए जिस तरह से ये सभी लोकलुभावनवाद और खजाना लुटावनवाद को अंजाम देती रहीं हैं उस पर अब एक लक्ष्मणरेखा खींचने का वक्त आ गया है । ठीक वेसी ही रेखा जैसा कि चुनाव के दौरान धन बल, बाहू बल और पहचान के कारकों को सीमित करने को लेकर चुनाव आयोग खीचती है। अभी देश की तीनो टायर की सर कारों में तो लोकलुभावनावाद इस कदर बढा हुआ है वे अपने राजनीतिक हितो की कीमत पर अपनी अर्थव्यवस्था की भारी कीमत चुका रही है। श्रीलंका में आया आर्थिक संकट हमारे लिए एक बड़ा सबक बनकर आया है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि देश के जरूरतमंद व आपदाग्रस्त नागरिकों को मुफत सामान, सेवा व सुविधाएं तथा तमाम तरह की छूटें व रियायतें देना सरकारों का प्राथमिक कर्तव्य है। पर जब सरकारें अपने वोट बैंक को पैबंद करने के लिए अपना खजाना खाली करने के लिए बेताब हो जाएं, जिसके लिए जनता के करों से संगृहित बहुमूल्य राशि का दुरुपयोग व बंदरबांट किया जाए, जिस कार्य के लिए देश व प्रदेश के सार्वजनिक उपक्रमों को अपने पैरों पर खड़े होने के बजाए इन्हें घाटे, कुप्रबंधन, लागत संवेदनहीनता तथा सरकार की सब्सिडी से निरंतर पोषित किया जाए तो ऐसे राजनीतिक कदम अर्थव्यवस्था को खोखला, अनुत्पादक तथा निकृष्टता की ओर धकेलने के लिए काफी है। दिल्ली में अपने पहले कार्यकाल में आप पार्टी की सरकार ने 200 यूनिट बिजली और प्रति व्यक्ति 300 लीटर पानी मुफत देकर दिल्ली के लोगों में लोकलुभावनवाद का पासा फेका जिससे उनकी एक जबरदस्त राजनीतिक जमीन तैयार हुई और इस एवज में दिल्ली सरकार हर साल करीब 2000 करोड़ रुपये की बिजली सब्सिडी व करीब 600 करोड़ रुपये की पानी सब्सिडी वहन कर रही है। जाहिर है इस राशि की कीमत पर नागरिकों के अन्य लोकोपयोगी कार्य प्रभावित हो रहे होंगे । अब दिल्ली सरकार ने केन्द्र की मोदी सरकार के एलपीजी सब्सिडी गिव-अप अभियान की तरह आगामी अक्टूबर से अब स्वेच्छा से मुफ़्त बिजली लेने का विकल्प नागरिकों को पेश किया है। इसे एक बढिया पहल कहा जा सकता है। परंतु बिजली पानी से इतर आप सरकार ने हद तब पार किया जब अगस्त 2019 से दिल्ली की डीटीसी तथा कलस्टर बसों में महिलाओं के लिए मुफ़्त यात्रा सेवा घोषित कर दी। इसके अलावा इन सभी बसों में कथित महिला सुरक्षा के नाम पर करीब 20 हजार माहवारी पर एक मार्शल की नियुक्ति कर दी। एक तरह से यह अजीबोगरीब फैसला था। सबसे पहले तो एक लोकउपक्रम को इस तरह की स्कीम से बिल्कुल तहस नहस करना, वह भी उस दिल्ली में जहां देश की सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय वाली मध्यवर्गीय आबादी रहती है जहां लोगों में बस किराये वहन करने की पूरी आर्थिक क्षमता है। लेकिन आधी आबादी के वोट बैंक बनाने के लिए इस कदम का इस्तेमाल किया गया जिस एवज में दिल्ली सरकार हर साल करीब 500 करोड़ रुपये वहन कर रही है। हास्यास्पद तो यह है कि कुछ बसों में छेडख़ानी का हवाला देकर सभी 8000 बसों में मार्शल की नियुक्ति की गई। महिला छेडख़ानी को रोकने के नाम पर यह बेमानी व बेतुकी तरकीब राजखजाने पर करीब 100 करोड रुपये का बोझ डाल रही है। सबसे पहली बात किसी छेडख़ानी गैंग द्वारा किसी महिला से छेडख़ानी किये जाने की सूरत में यह अकेला मार्शल कुछ कर नहीं सकता जब तक बस में बैठे सभी यात्री मिलकर उसका प्रतिरोध ना करें। अगर इस पहल से यह माना जाए कि दिल्ली सरकार ने कुछ नवयुवकों को रोजगार दिया तो यह बात गले के नीचे उतरती है। पर क्या रोजगार का मतलब अनुत्पादक रोजगार से होता है। यह मार्शल बस में एक सीट लेकर बैठकर केवल अपना दिन काटता है। अगर मुंबई की बेस्ट परिवहन सेवा की तरह डीटीसी की सभी बसों में दो कंडक्टर बहाल कर दिया जाता तो इससे डीटीसी का राजस्व बढता और वह रोजगार भी सार्थक होता । दिल्ली सरकार का यह लोकलुभावनवाद इस डीटीसी का एक दिन सत्यानाश कर देगा। अभी डीटीसी हर साल करीब दो हजार करोड रुपये का घाटा वहन कर रही है।
दिल्ली का सालाना राजस्व करीब 50 हज़ार करोड़ रुपये है और अकेले आबकारी व शराब से 6000 करोड़ की प्राप्त आमदनी से दिल्ली सरकार अपनी बिजली, पानी व बस की मुफतखोरी का आराम से प्रबंधन कर ले रही है। यदि यही दिल्ली सरकार अपनी कार्यक्षमता, समुचित प्रबंधन, भ्रष्टाचार व कामचोरी की समाप्ति के जरिये दिल्ली के नागरिकों को देश में सबसे सस्ती बिजली पानी देने का काम करती तो वह देश में गवर्नेन्स की एक बेहतर मिसाल बनती। बताते चलें विगत में देश के अधिकतर रा ज्य सरकारों की वित्तीय हालत दशकों तक इसलिए खस्ता बनी रही क्योंकि उनके दो उपक्रम बिजली बोर्ड व परिवहन निगम स्थायी तौर पर घाटे के शिकार रहे। वही जब इन प्रदेश सरकारों ने अपने बिजली बोर्डों में नये केन्द्रीय बिजली कानून के मार्फत सुधार लाया तथा परिवहन निगमों को निजी बसों के जरिये प्रतियोगी बनाया तो इनका वित्तीय बोझ हल्का हुआ। परंतु दिल्ली सरकार इस ऐतिहासिक सच्चाई को इसलिए दरकिनार कर रही है क्योंकि वोट बैंक उसकी प्राथमिकता में ज्यादा है। ये सभी लोकोपयोगी सेवाएं प्रदान करने वाले उपक्रम बिना सब्सिडी व घाटा उठाये अपने सुधारों के जरिये उपभोक्ता को रियायती सेवाएं देते हैं तो लोकहित का मामला ज्यादा बनता।
देश की राजनीति में लोकलुभावनवाद का आलम ये है कि सरकारें धड़ल्ले से कर्ज माफी, बिजली बिल माफी करती हैं, फ्री या रियायती दरों पर अनाज बांटती हैं। चुनाव के समय राज्यों के सत्तारूढ़ दलों में अपने नागरिकों में साइकिल, स्कूटर, टैबलेट, लैपटाप, रेडियो, मोबाइल, जेवरात बाटने की होड़ लगती है। किसानों की कर्ज माफी से किसानों का आजतक स्थायी भला नहीं हुआ और ना ही उनकी आत्महत्या रुकीं है। यदि किसानों के सभी उत्पादों को उनकी लागत के हिसाब से उचित वैधानिक कीमत और जोखिमों से मुक्ति सुनिश्चित कर दी जाए तो ना तो किसानों की कर्ज माफी की और ना ही उनके लागतों पर भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करने वाली सब्सिडी की जरूरत पड़ेगी। आपदा काल में व दूरदराज आदिवासी इलाकों को छोड दिया जाये तो आम तौर से मुफत व रियायती अनाज देने की नीति एक बड़े भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करती है। इसे लेकर कई घोटाले उजागर हो चुके हैं। यदि देश में खाद्य व पोषाहार सुरक्षा की एवज में समूचे राष्ट्रीय स्तर पर तैयार भोजन का लंगर कार्यक्रम चलाया जाए तथा अनाज के बदले नकद भत्ते दिये जाएं तो इससे तीन फायदा होगा। लाखों करोड का भ्रष्टाचार रुकेगा, किसानों को अपने उत्पादों का बाजार में सही मूल्य प्राप्त होगा और गरीब फ्री अनाज की एवज में घर में बैठने के बजाए काम कर अपनी आमदनी और बढायेंगे। चुनाव के समय मतदाताओं को उपहार बांटने को पूरी तरह से यदि गैर कानूनी ठहरा दिया जाए तो चुनाव खर्च में कमी आएगी और फिर सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में बड़ी नैतिक मदद मिलेगी।
सरकारों द्वारा नागरिकों के लिए जिस चीज का एकमुश्त प्रबंध किया जाना चाहिए वह है देश की सभी असंगठित व निर्धन कमजोर आबादी के लिए एक समुचित सामाजिक सुरक्षा व पेंशन का प्रावधान। सरकारों पर दूसरी जिममेदारी बनती है माध्यमिक स्तर तक एक समान गुणवत्तापरक मुफत शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रावधान। चूंकि शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी व सरकारी दोनों क्षेत्र काफी पहले से मोजूद हैं ऐसी सूरत में शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए जिला, राज्य व केन्द्र स्तर पर एक नियमन प्राधिकरण का गठन कर एक समुचित व सामान दर पर देश की सभी मध्यवर्गीय आबादी को इन सेवाओं की उपलब्धता कराना बेहतर कदम होगा।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में जहाँ बिना पैसे के त्वरित न्याय सुनिश्चित नहीं होता वहां फ़िज़ूल की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना बेमानी है। जिस तरह से चुनाव में जाति, धर्म, भाषा, प्रांतवाद, धन बल, बाहुबल, उकसाऊ और भड़काऊं भाषण लोकतंत्र को खोखला करते है उसी तरह सरकारों और चुनावी दलों द्वारा लोकलुभावनवाद तथा खजाना लुटावनवाद भी हमारी आर्थिक रीढ़ को कमजोर करते हैं। इन सभी पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यदि हमे संविधान व विधान में आवश्यक बदलाव करना पड़े तो इस कार्य के लिए एक अविलम्ब राष्ट्रीय जनमत तैयार किया जाना चाहिए।
लेखक सुप्रसिद्ध पुस्तक व्यवस्था परिवर्तन विमर्श ,पहल एक नए भारत के रचना की के लेखक हैं