पढ़ाई में अव्वल, हुनर में पिछड़ते युवा

Top in studies, but youth lagging behind in skills

विजय गर्ग

देश में अरसे से यह आह्वान किया जाता रहा है कि शिक्षा रोजगारपरक होनी चाहिए। यह मिथक अब टूट चुका है कि पढ़ाई का उद्देश्य सिर्फ ज्ञानार्जन होता है। आज हमारे देश में विद्यार्थी बेहद महंगी हो चुकी पढ़ाई इसलिए करते हैं, ताकि उन्हें कोई रोजगार, खासकर नौकरी मिल सके। ऐसे दौर “में, जबकि कृत्रिम बुद्धिमता (एआइ) आगमन न के साथ रोजगार संकट गहराता लग रहा है, कुछ अध्ययन यह साबित कर र रहे हैं कि हमारे नौजवान हुनर या दक्षता के मामले में वह धार खो चुके हैं, जो उन्हें किसी नौकरी या रोजगार के काबिल बनाती है। इसकी पुष्टि मर्सर मेटल की रपट से भी हुई है कि विश्वविद्यालयों से निकले केवल 42.6 फीसद भारतीय स्नातक रोजगार योग्य हैं। इनमें गैर-तकनीकी दक्षता से लेकर रचनात्मक श्रेणी के रोजगार शामिल हैं।

देश के सत्ताइस सौ से अधिक विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थानों के परिसरों में मौजूद लाख से ज्यादा छात्रों के बीच जुटाए आंकड़ों से तैयार की गई मर्सर-मेटल की रपट इस मामले में पिछले वर्षों के मुकाबले गिरावट दर्शा रही है। वर्ष 2024 में देश के 42.6 फीसद भारतीय स्नातक रोजगार योग्य पाए गए, जो 2023 के 44.3 फीसद के मुकाबले एक फीसद कम हैं। रपट के मुताबिक इस गिरावट की मुख्य वजह तकनीकी कौशल की कमी है। कंप्यूटर इंजीनियरिंग या कृत्रिम बुद्धिमता से जुड़ी नौकरियों में युवा रोजगार लायक हुनर हासिल कर रहे हैं, जबकि मानविकी कला आदि संकायों में उनकी दक्षता में गिरावट आ रही है। अगर राज्यवार बात की जाए तो मर्सर मेटल की रपट कहती कि भारत के स्नातक कौशल सूचकांक 2025 में दिल्ली के युवा 53.4 फीसद के साथ रोजगार क्षमता में सबसे ऊपर है।

करीब छह वर्ष पहले एक एजेंसी ‘एस्पाइरिंग माइंड’ ‘की रपट में भी ऐसे ही खुलासे किए गए थे। इसमें कहा गया था कि हमारे देश में इंजीनियरिंग कर चुके 80 फीसद छात्र नौकरी के काबिल नहीं हैं, क्योंकि उनमें नौकरी की जरूरत के मुताबिक कौशल की काफी कमी होती है। यह रपट 650 से ज्यादा इंजीनियरिंग कालेजों के उन डेढ़ लाख इंजीनियरिंग स्नातकों पर आधारित थी, जिन्होंने करीब दस साल पहले 20151 में डिग्री हासिल की थी। इस रपट के दावों की पुष्टि नेशनल सैंपल सर्वे आफिस (एनएसएसओ) के सर्वेक्षण से भी हुई थी, जिसमें कहा गया था कि देश के स्नातक दस युवाओं में से महज एक युवा ऐसा प्रशिक्षण यानी ‘वोकेशनल ट्रेनिंग’ हासिल करता है, जिसके बल पर उसे नौकरी दी जा सके। ऐसे दौर में, जब देश में ‘स्किल इंडिया’ जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम में देश के करोड़ों युवाओं को हुनरमंद बना कर उन्हें रोजगार से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है, समय-समय पर आने वाले सर्वेक्षणों और रपटों के तथ्य तथा आंकड़े हमें हैरान करते हैं।

ऐसे में यह अहम सवाल है कि आखिर कैसे हमारा देश अपने युवाओं में वह दक्षता पैदा कर पाएगा, जिसके बल पर वे कोई अच्छी नौकरी पाने या कोई कारोबार खड़ा करने की स्थिति में आ सकता है। हालांकि इस मामले से जुड़ा एक गंभीर पहलू यह भी है कि हमारे देश में सरकारों के पास फिलहाल 35-50 लाख युवाओं को ही हर साल किसी एक क्षेत्र में दक्ष बनाने वाले प्रशिक्षण का प्रबंध है। इसकी तुलना पड़ोसी चीन से करें, तो पता चलता है कि वहां सालाना नौ करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाने का इंतजाम सरकार की तरफ से किया गया है।

इस समस्या का दूसरा पहलू और गंभीर है। यह पहलू शिक्षण- प्रशिक्षण की गुणवत्ता से जुड़ा है। यह देखा जा रहा है कि अगर युवा किसी तरह नामी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में दाखिला पा जाते हैं, तो भी इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वहां से जो डिग्री या डिप्लोमा लेकर निकलेंगे, उसके बल पर वे इतने काबिल हो सकेंगे कि अपने क्षेत्र में हर चुनौती का मुकाबला कर सकें। यह मामला स्कूल, • कालेजों और प्रतिष्ठानों में दी जा रही शिक्षा की खराब गुणवत्ता का है। कुछ ही वर्ष पहले पीयर्सन नामक कंपनी ने देश के 527 शहरों के उच्च उच्च शिक्षा प्रतिष्ठानों और स्कूलों के बीच एक सर्वेक्षण किया था। इसमें कहा गया था कि देश की राजधानी दिल्ली तक में शिक्षक इसका खयाल नहीं रखते कि शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को प्रशिक्षण मुहैया करा पा रही है या नहीं। यही कारण है कि देश में लाखों युवा पढ़े-लिखे होने के बावजूद खुद को किसी ठीक-ठाक नौकरी के लिए तैयार नहीं कर पाए या उसमें अपनी योग्यता नहीं दिखा पाए। जाहिर है, इसमें एक बड़ी समस्या मौजूदा शिक्षा तंत्र की है, जो छात्रों को वैसी शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं पा रहा है, जो अच्छी नौकरी पाने या अपना कोई व्यवसाय खड़ा करने में उनकी मदद करे
आज सबसे अहम बात यह है कि युवाओं की रोजगार क्षमता मांग के हिसाब से होनी चाहिए। यानी वे ऐसे हुनर से लैस हों, जिसकी उद्योग को जरूरत है और जिसे नवीनतम तकनीक के अनुसार ढाला जा सके। यह बात चीन, जापान, कोरिया और जर्मनी जैसे देशों ने सीखी है। लिहाजा, वहां का अधिकतर मानव संसाधन दक्ष है और यही उनकी सफलता का राज है। असल में, दक्ष लोगों में एक अलग तरह का आत्मविश्वास होता है। वे एक चीज को सीखने के बाद दूसरी नई चीज सीखना चाहते हैं और यही ललक उन्हें दूसरों से अलग करती है। इस पैमाने पर भारत को देखें, तो यहां के शहरों में ही इस नएपन की थोड़ी-बहुत झलक मिलती है। शहरों के युवा अच्छे जीवन की चाह में नए कौशल सीखते हैं और नई चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करने की कोशिश करते हैं। जैसे, इधर एआइ से जुड़ी डिग्री लेने का चलन शहरों में बढ़ा है। लेकिन देश के गांव- कस्बों में ऐसी इच्छा का घोर अभाव है।

गांव-कस्बों और छोटे शहरों में बेरोजगारी की समस्या इसीलिए तेजी से विकराल होती जा रही है। यदि वहां के युवा शहर जाकर कोई तकनीकी डिग्री हासिल कर लेते हैं, तो गांव-कस्बों में लौटने के बाद वे वहां अपने हुनर को आजमा नहीं पाते हैं। इस कारण उनके व्यावहारिक अनुभव में कमी रह जाती है, जिससे नौकरी की होड़ में वे पिछड़ जाते हैं। इसका परिणाम देश में हुनरमंद लोगों की कमी के रूप में सामने आता है। यदि लोगों के पास कोई कौशल हो लेकिन वह उद्योग की मांग के मुताबिक न हो, पाता है। ऐसी स्थिति में दक्षता होने के बावजूद लोगों को रोजगार नहीं रहा है। निश्चय ही ऐसे निष्कर्ष चिंताजनक हैं और सरकारों इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर वह अपनी युवा आबादी को किस तरह की शिक्षा मुहैया करा रही है। सर्वेक्षणों के नतीजे हमें यह सोचने को भी मजबूर करते हैं कि आखिर हम युवा पीढ़ी को उनके सपने साकार करने के लिए क्यों तैयार नहीं कर पा रहे हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब