रोमिता शर्मा “मीतू”
प्राचीन समय से ही जल प्रबन्धन के लिए हमारे पुरखों ने बड़े नायाब तरीके बनाए हैं। भारत की बात ही जाए तो अनेक सम्राज्य के शासकों ने अपनी प्रजा के लिए जलाशयों, कुओं, तालाब और सरोवर के निर्माण किए ताकि जल संकट के समय इन जल भंडारों का जल प्रयोग किया जा सके। मगध साम्राज्य, चेर, चोल वंशों के शासकों के समय निर्मित अनेक जलाशय आज भी उनके जल संरक्षण के प्रति सजगता की गवाही देते हैं। हिमाचल प्रदेश को प्रकृति ने भी खूब नेमत बख्शी है। यहां के कुदरती नजारे सभी का मन मोह लेते हैं। प्राचीन काल में यहां नदी नालों में भरपूर पानी रहता था। अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जहां नदी नाले नहीं है वहां भी लोगों ने कुंए,बावड़ी, सौर(सरोवर) इत्यादि बनाकर जल संग्रह किया। वैसे भी हिमाचल के पहाड़ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहते हैं। इन पहाड़ियों पर स्थित कोई पोखर तब इनकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है जब वहां आस पास चारों तरफ नुर बरस पड़ा हो प्राकृतिक सौंदर्य का। हमारे बुजुर्ग तो अपनी दिनचर्या में ही पहाड़ों पर चढ़ना, प्रकृति के समीप बैठना शामिल कर लेते थे। उनके लिए ट्रैकिंग अपने पशुओं के चारे की व्यवस्था में ही हो जाती थी। धीरे धीरे जब शहरीकरण शुरू हुआ तो प्रकृति से मनुष्य का नाता टूट गया। शहर की आवोहवा में इंसान इस क़दर उलझे रहे कि उन्हें यह भी सुध न रही कि हमारे हाथ से क्या छूटता जा रहा है। फ़िर जब मोबाइल का दौर आया तो कोई एक व्यक्ति यदि पहाड़ी क्षेत्र में जाए तो वहां फोटो खींचना नहीं भूलते। उस फोटो को अपने मित्रों में भेजना तो दीवाली की मिठाई भेजने जितना जरूरी है। एक कि देखा देखी दूसरों का अहम भी जाग उठता है कि हम भी अपने परिवार को अच्छे से हिल स्टेशन पर ले जाएंगे, बस इसी आधुनिकता की चकाचौंध में उलझते रहे हम।
जब हम किसी भी स्थान पर घूमने जाते हैं तो अपने साथ खाने के कितने ही लिफाफे उठाए चलते हैं, फिर एक से हमारा पेट नहीं भरता,इतने दुर जा रहे हैं कोक, पेप्सी, चिप्स, स्नैक्स और न जाने कितने ही नाम…… हमारे जैसे कितने ही लोग रोजाना ऐसी खूबसूरत जगहों पर घूमने जाते हैं। हम तो पार्टी करके घूम फिर कर वापिस अपने घर का रुख अपना लेते हैं लेकिन आपने कभी सोचा है कि जो हम वहां पर अपने चिप्स कुरकुरे के पैकेट, कोक पेप्सी की बोतलें फैंक आए हैं उनका क्या होगा?? साल दर साल वहां पर पैकेट फैंकते जाएंगे लेकिन उनके प्रबन्धन का प्रयास नहीं किया जाएगा । इसी तरह वे कचरे के ढेर में बदल जाते हैं और इसका कुप्रभाव पहाड़ों का सौंदर्य और जलाशय भुगतते हैं।
हाल ही में एक खबर आई थी कि हिमाचल के अनेक तालाब और झीलें सूखने की कगार पर है। जीवनदायिनी नदियों को पानी देने वाले ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अपनी जगह से दस बारह किलो मीटर पीछे खिसक रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हम खुद ही खिलवाड़ करने पर तुले हुए हैं। कोरोना महामारी के दो वर्षों ने हमें प्रकृति की अहमियत अच्छी तरह से समझाई है। इन दो वर्षों में प्रकृति ने भी खुद को फिर से संवारा। रोज़ सैलानियों से भरे पड़े पहाड़ों ने भी चैन की सांस ली। वहां का प्रदूषण भी काफी हद तक कम हो गया था लेकिन सभी बंदिशें हटते ही फिर वही हाल कर दिया हमनें।
प्रकृति भी शुद्धता चाहती है। अभी एक खबर आई थी मण्डी जिला की पराशर झील में तैरते टापू के बारे में, जिसमें कहा गया था कि टापू अब एक जगह पर ही स्थिर हो गया है। पराशर झील अपने तैरते हुए टापू के लिए प्रसिद्ध है। कोरोना काल में अनेक लोग इस टापू के एक जगह से दूसरी जगह हिलने के साक्षी बने थे, लेकिन अभी ना जाने किन कारणों से यह एक जगह पर स्थिर हो गया। पूरी चांशल घाटी को पानी देने वाली पब्बर नदी का उद्गम स्थल चंद्रनाहन झील पूरी तरह से सूखने लगी है। यदि यह झील सुख जाए तो पब्बर नदी मात्र एक बरसाती नाला बनकर रह जाएगी। अपने अद्भुत नज़ारों, गुलाबी बुरांस के लिए प्रसिद्ध घाटी आगामी समय में रेगिस्तान जैसी भी हो सकती है। इसके लिए सभी जिम्मेदार होंगे क्योंकि चांशल घाटी में गुलाबी बुरांस,और प्राकृतिक नजारों का लुत्फ़ लेने तो हम सभी चले जाते हैं और जाते जाते वहां के निर्मल सौंदर्य को कचरे की सौगात देकर आते हैं।
मैं सभी से निवेदन करती हूं कि हिमाचल हम हिमाचल वासियों का है। इसे बचाने के लिए हमें पहल करनी होगी। हम कब तक यह आस लगाए बैठे रहेंगे कि कब पर्यावरण संरक्षण की कमेटियां आकर यहां बहस करेंगी,कब पर्यावरणविद् कोई आंदोलन करें, कब इन दम तोड़ते झीलों, तालाबों पर बात उठनी शुरू हो?
अरे जब तक गोष्ठियां होंगी तब तक तो यह दम तोड़ गए होंगे। फिर मुर्दों पर कैसी बहस? सबसे पहले तो हुड़दंग मचाने वाले पर्यटकों से आग्रह है कि पहाड़ दारू पीकर मस्ती करने का कोई बार नहीं है। यहां पर आने के लिए एक सादा मन लेकर आइए। यदि आप पैक बन्द चीजें लेकर जाते हैं तो कृप्या लिफाफे अपने साथ वापिस लेकर आएं।
स्थानीय लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि पहाड़ों पर किस तरह के लोग आ रहे हैं। हिमाचली लोगों की पहचान सीधे सादे लोगों के रूप में है लेकिन अब हमें अपने पहाड़ों और अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए भोलापन त्याग देना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि हम दो चार मिलकर क्या कर सकते हैं तो मैं कहना चाहती हूं कि किंकरी देवी जी अकेले ही सरकारी ठेकेदारों के खिलाफ खड़ी हुई थी। उनके हौंसले को देख उनसे अन्य महिलाएं, पुरुष जुड़े थे। हम अपनी संस्कृति, प्रकृति और स्वर्ग रूपी हिमाचल को बचाने के लिए अकेले ही बहुत है। जहां तक संभव हो जल स्त्रोतों के आस पास का कचरा कम करने की कोशिश करें ताकि हम हिमाचल की वादियों को हरा भरा ही देख पाएं। जितना जल स्तर कम होना था हो गया है लेकिन इससे कम न हो इसके लिए प्रयास करने होंगे । आइए सभी की प्यास बुझाने वाले जल स्रोतों के हृदय में जो प्रदूषण से आग लगी है उसे बुझाने का जरा सा प्रयास करके जीवनदायिनी नदियों, तालाब, पोखरों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें।