बैलों से खेती: छोटे व सीमांत किसानों को प्रोत्साहन

Farming with oxen: encouragement to small and marginal farmers

सुनील कुमार महला

राजस्थान सरकार की ओर से छोटे और सीमांत किसानों के लिए कुछ समय पहले ही एक शानदार व अच्छा फैसला आया है। पाठकों को बताता चलूं कि सरकार के इस फैसले के अनुसार अब राजस्थान सरकार बैलों से खेती करने वालों को 30 हजार रुपए वार्षिक सहायता देगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि राजस्थान सरकार का यह कदम न केवल बैलों के संरक्षण की दिशा में एक अहम् और महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि इससे छोटे और सीमांत किसानों को आर्थिक संबल भी मिल सकेगा। आज के इस आधुनिक दौर में जब खेती-बाड़ी आधुनिक कृषि यंत्रों ट्रैक्टर, कंबाइन हार्वेस्टर, रोटावेटर, पावर टिलर, सीड ड्रिल, स्प्रेयर, ड्रिप सिंचाई सिस्टम आदि और तकनीक से की जाने लगी है, उस दौर में खेती के पारंपरिक तौर-तरीकों पर एकबार पुनः ध्यान केंद्रित किए जाने से आर्गेनिक व जैविक खेती को भी बढ़ावा मिल सकेगा। पाठकों को बताता चलूं कि राजस्थान के नागौर ज़िले में बैल ज़्यादा पाए जाते हैं तथा यहां के बैल अपनी ताकत, तेज़ रफ़्तार, और सुंदरता के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं, लेकिन वर्तमान में इन बैलों की पहले के जमाने की भांति अब खेतों में उतनी वैल्यू नहीं रही है, क्यों कि लगातार बढ़ते शहरीकरण, कृषि में आधुनिक कृषि यंत्रों व तकनीक के प्रयोग से तथा लगातार कम होते चरागाहों व वन्य क्षेत्र में पहले की तुलना में कमी के कारण, किसान भी बैल पालने से अब कतराने लगे हैं, ऐसे में वर्तमान में राजस्थान सरकार की ओर से जो खबर आई है, राजस्थान के किसानों में पशुपालन (बैलों) के प्रति जोश व मोह पैदा करेगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि सरकार के इस कदम से रामदेव जी पशु मेला, तेजाजी का मेला(परबतसर उपखंड), बलदेवराम जी का मेला(मेड़ता सिटी उपखंड) के अस्तित्व को भी बल मिलेगा, क्यों कि ये मेले बैलों की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अब इस सरकारी योजना से उम्मीद जगी है कि बैलों की मांग बढ़ेगी और पशु मेले फिर से जीवंत हो सकते हैं। इससे पारंपरिक पशुपालन को भी बढ़ावा मिलेगा और किसानों को नई आर्थिक संभावनाएं मिलेंगी।सरकार के निर्णय से कृषि यंत्रों से होने वाले प्रदूषण पर भी कुछ हद तक लगाम लग सकेगी और किसान परंपरागत जैविक खेती की ओर अग्रसर होंगे। कहना ग़लत नहीं होगा कि पिछले कुछ वर्षों में बैलों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही थी, सरकार की इस योजना के बाद बैलों से खेती पुनर्जीवित हो सकेगी। गोपालन को भी इससे बढ़ावा मिलेगा। साथ ही बैलों के पालन-पोषण पर होने वाले खर्च में इस प्रोत्साहन राशि से काफी सहयोग मिल सकेगा। इस योजना से छोटे किसान रासायनिक उर्वरकों की बजाय खेती में प्राकृतिक तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित होंगे।अक्सर यह देखा जाता है कि अब तक आर्थिक समस्याओं के चलते छोटे बछड़ों को निराश्रित छोड़ दिया जाता था, लेकिन अब ये उपयोगी साबित हो सकेंगे।खेती की लागत में भी इससे कमी आएगी, क्यों कि आधुनिक कृषि यंत्रों के उपयोग से खेती पर किसानों का काफ़ी खर्च हो जाता है। पारंपरिक खेती को बढ़ावा मिलने से मिट्टी की उर्वरता तो बनी ही रहेगी साथ ही साथ इससे पर्यावरण संरक्षण भी हो सकेगा। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि इस संबंध में कुछ समय पहले ही कृषि विभाग के कृषि आयुक्त ने बजट घोषणा की पालना में एक आदेश जारी कर बैलों से खेती करने वाले किसानों की जानकारी हर जिले से मांगी गई है। जानकारी के अनुसार जिलों में बैलों से खेती करने वाले किसानों की जानकारी एकत्रित कर उच्चाधिकारियों को भेजी जाएगी, ताकि अधिकाधिक लोगों को सरकार की इस शानदार योजना का फायदा मिल सके। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की तर्ज पर यह प्रोत्साहन राशि किसानों को दी जाएगी। यहां यह भी गौरतलब है कि बैलों से खेती पर मिलने वाली प्रोत्साहन राशि के साथ ही बैलों और गायों से मिलने वाले गोबर का उपयोग करने के लिए किसानों द्वारा गोबर गैस प्लांट लगाने पर भी सब्सिडी का प्रावधान है।इस संबंध में जिला कृषि विभाग कार्यालय या नजदीकी कृषि सेवा केंद्र में सम्पर्क किया जा सकता है। वास्तव में यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह योजना ग्रामीण भारत की खेती-किसानी को भी एक नया जीवन प्रदान करने में बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। योजना से कृषि उत्पादन में भी सुधार होगा और यह योजना कहीं न कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ व मजबूत बनाएगी।जैविक खेती को बढ़ावा देने में मदद मिलने से खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता भी बेहतर होगी। ऊपर बता चुका हूं कि आज बढ़ते खर्च, शहरीकरण, आधुनिकता की आड़ में राजस्थान के अधिकतर किसानों ने बैलों को त्याग दिया है। सिंचाई के साधनों से वंचित किसानों ने भी आधुनिक उपकरणों का सहारा लेकर बैलों की उपयोगिता को भुला सा दिया है। शायद यही कारण भी है कि पिछले कुछ समय से पशुधन की संख्या में भी तेजी से गिरावट आई है। यह योजना इस समस्या का समाधान बखूबी कर सकती है और बैलों के महत्व को फिर से स्थापित कर सकती है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि राजस्थान सरकार ने जो योजना राजस्थान में शुरू की है, वह यदि पहाड़ी क्षेत्रों में भी छोटे किसानों के लिए शुरू की जाए तो पहाड़ी क्षेत्रों के किसानों की तकदीर बदल सकती है, क्यों कि पहाड़ों में(विशेषकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में) अक्सर कृषि जोतें एक-दो हैक्टेयर से छोटी होतीं हैं। आज हिमाचल प्रदेश में पॉवर टिलर को 50 फीसदी तक सब्सिडी देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है।पावर टिलर जैसे यंत्र हमारे पर्यावरण को भी कहीं न कहीं नुकसान पहुंचाते हैं, क्यों कि ये धुंआ छोड़ते हैं और शोर भी करते हैं और इन पर लागत भी कम नहीं है। वैसे भी गरीब किसानों के लिए पावर टिलर खरीदना एक बड़ी बात है।ऐसे में पूरे भारतवर्ष में ही जो कृषि जोतें एक या दो हेक्टेयर से छोटी हैं, उनके लिए आत्मनिर्भर होने का मार्ग बैलों से खेती के माध्यम से ही निकल सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी पहाड़ी क्षेत्रों में तो यह और भी ज्यादा जरूरी इसलिए है, क्योंकि यहां की 80 से 85 फीसदी जोतें एक हेक्टेयर से भी छोटी हैं, इनमें से कुछ तो एक एकड़ से भी छोटी हैं। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो हिमाचल प्रदेश में औसत जोत का आकार 0.95 हेक्टेयर है।राज्य में 88.86 प्रतिशत किसान सीमान्त और लघु वर्ग के हैं।इन किसानों के पास बोई जाने वाली ज़मीन का 55.93 प्रतिशत हिस्सा है। राज्य में 10.84 प्रतिशत किसान मध्यम श्रेणी के हैं।केवल 0.30 प्रतिशत किसान ही बड़े किसानों की श्रेणी में आते हैं।राज्य में कुल भौगोलिक क्षेत्र 55.673 लाख हेक्टेयर है। राज्य में 64 प्रतिशत भूमि जोत एक हेक्टेयर (सीमांत) से कम है। राज्य में 21 प्रतिशत भूमि जोत 1-2 हेक्टेयर के बीच है। राज्य में 70 प्रतिशत लोग सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं। ठीक इसी प्रकार से यदि हम उत्तराखंड की बात करें तो यहां भी कृषि भूमि का औसत आकार 0.95 हेक्टेयर है।राष्ट्रीय औसत की तुलना में उत्तराखंड में लघु और सीमांत जोतों का हिस्सा ज़्यादा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार उत्तराखंड में सीमांत, छोटी, और बड़ी कृषि जोतों का क्षेत्रफल क्रमशः 36.23%, 27.6%, और 36.16% है। बहरहाल, यहां यह ठीक है कि बड़ी जोत वाले किसानों के लिए बैलों से कृषि कार्य करना काफी कठिन है, किन्तु छोटी व सीमांत जोत वाले किसानों के लिए ऐसी योजनाएं लाभकारी सिद्ध हो सकतीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि खेती- किसानी यदि आत्मनिर्भर होगी तो किसानों के लिए कर्ज से मुक्ति का रास्ता भी बनेगा, जिसके कारण कृषक आत्महत्याओं पर भी रोक लगेगी। आज जरूरत इस बात की है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भी छोटे व सीमांत किसानों को ऐसी योजनाओं का लाभ मिले, ताकि कृषि घाटे का सौदा न रहे और पहाड़ी क्षेत्रों के किसान भी कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकें।