
सुनील कुमार महला
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना ने हाल ही में बेंगलुरु में एक आयोजन के दौरान वैवाहिक विवादों के बढ़ते मामलों पर चिंता जताई है और यह बात कही है कि देशभर में वैवाहिक विवादों के बढ़ते मामले न्यायालयों पर अत्यधिक बोझ डाल रहे हैं। वास्तव में न्यायमूर्ति का कहना बिलकुल ठीक है कि आज के समय में हमारे देश में वैवाहिक विवाद बढ़ते ही चले जा रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि वैवाहिक विवाद मामलों से जहां एक ओर देश के न्यायालयों पर अनावश्यक बोझ बढ़ता है वहीं दूसरी ओर इससे परिवार के बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। आज घरेलू हिंसा, दहेज, अत्याचार,गुजारा भत्ता को लेकर अनेक याचिकाएं न्यायालयों में लगतीं हैं।यह विडंबना ही है कि आज छोटी-छोटी बातों को लेकर याचिकाएं दायर की जातीं हैं। मामूली असहमति भी आज बड़े विवाद में बदल रहीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भी हमारे देश में फैमिली कोर्ट की संख्या अपर्याप्त है और इन पर ज़्यादा दबाव है। दरअसल,विवादों की रोकथाम के लिए पूर्व-वाद निपटान और मध्यस्थता की ज़रूरत है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2022 में भी उच्चतम न्यायालय ने यह बात कही थी कि’ देश में वैवाहिक विवादों से संबंधित मुकदमों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और अब वैवाहिक संस्था के प्रति नाखुशी और कटुता ज्यादा नजर आ रही है।’गौरतलब है कि उस समय न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि ‘इसका नतीजा यह हो रहा है कि पति और उसके रिश्तेदारों के साथ अपना हिसाब चुकता करने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए जैसे प्रावधानों का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।’ यहां पाठकों को बताता चलूं कि धारा 498-ए ससुराल में पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा स्त्री के उत्पीड़न से संबंधित अपराध के बारे में है और इसका अक्सर दुरूपयोग किया जाता है, जिस पर देश के सबसे बड़े न्यायालय द्वारा चिंता जताई गई थी। बहरहाल, उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति नागरत्ना बेंगलौर में सुप्रीम कोर्ट की फैमिली कोर्ट्स कमेटी द्वारा आयोजित साउदर्न जोन रीजनल कॉन्फ्रेंस को संबोधित कर रही थीं, जिसका विषय था, ‘फैमिली : द बेसिस ऑफ इंडियन सोसाइटी’। क्या यह गंभीर होने के साथ ही विडंबना नहीं है कि आज के समय में वैवाहिक विवाद इस स्तर पर पहुंच जा रहे हैं कि पति-पत्नी के बीच समझौते की कोई हल्की सी भी संभावनाएं नजर नहीं आतीं हैं। इससे बड़ी बात भला और क्या हो सकती है कि आज के समय में एक ही मामले में घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता जैसी याचिकाओं का अंबार लगता जाता है और इसका नतीजा छोटे-छोटे बच्चे भुगतते हैं। आखिर इसमें बच्चों का क्या दोष होता है जो पति-पत्नी के आपसी झगड़ों के बीच पिसते हैं ? न्यायमूर्ति का यह कहना था कि ‘ तलाक और वैवाहिक विवादों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता कतई जिम्मेदार नहीं है। आज शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार का क्षेत्र हो, लड़कियों की इन दोनों तक पहुंच में तेजी से इजाफा हुआ है। समय के साथ महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता में भी तेजी से वृद्धि हुई है। बढ़ते हुए शहरीकरण, औधोगिकीकरण तथा पाश्चात्य संस्कृति के आगमन से आज भारतीय परिवारों का पारंपरिक ढांचा बहुत तेजी से बदल रहा है। न्यायमूर्ति के मुताबिक महिलाओं की यह सामाजिक-आर्थिक मुक्ति स्वागतयोग्य भी है और आज के समय में आवश्यक भी। यह अच्छी बात है कि आज के समय में शिक्षा व रोजगार तक बढ़ती पहुंच के कारण स्त्रियां लगातार सामाजिक-आर्थिक रूप से स्वतंत्र बन रही हैं। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि इस बदलाव का स्वागत हो, पर यह दुखद है कि आज हमारा समाज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है, जिससे देश में तलाक के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और इसका व्यापक असर हमारे समाज, देश और अदालतों पर पड़ रहा है। यहां यह लेखक कहना चाहता है कि आज भी हमारे देश में मुकदमों के हिसाब से पर्याप्त संख्या में जज भी नहीं हैं, जबकि अदालतों में पर्याप्त संख्या में जज होने चाहिए। यहां यह भी कहना ग़लत नहीं होगा कि देर से मिलने वाला न्याय भी अन्याय के समान ही होता है, इसलिए इस ओर भी ध्यान केंद्रित किए जाने की आवश्यकता है। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना हो, और इस पर पूरी गंभीरता से काम करना होगा। सरकार को यह चाहिए कि वह देश में और अधिक पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना करें। गौरतलब है कि पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 के तहत, आबादी 10 लाख से ज़्यादा वाले शहरों में पारिवारिक न्यायालय स्थापित किए जाते हैं।इन न्यायालयों में विवाह और पारिवारिक मामलों से जुड़े विवादों का निपटारा होता है।इन मामलों में भरण-पोषण, तलाक, संतान अभिरक्षा, दांपत्य जीवन के अधिकारों की बहाली, न्यायिक पृथककरण वगैरह शामिल हैं। अधिक पारिवारिक न्यायालय होंगे तो न्याय भी जल्द मिल सकेगा। बहरहाल , ऐसा भी नहीं है कि देश में फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना नहीं हुई है। निर्भया कांड के बाद काफी फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना हमारे देश में हुई है लेकिन आज अदालतों में छोटे-छोटे पारिवारिक मामले भी आने लगे हैं, जिससे अदालतों पर अनावश्यक बोझ बढ़ा है।
यह बात भी बिल्कुल सही है कि आज के समय में हमारे देश की न्याय व्यवस्था में सुधार के कई प्रयास किए गए हैं। ऑनलाइन काम होने लगा है, जिसमें लोगों का श्रम और समय, दोनों बच रहा है।यह भी सच है कि आज ऑनलाइन प्रक्रिया होने से पारदर्शिता भी काफी हद तक बढ़ गई है, लेकिन फिर भी, लेट-लतीफी की समस्या बदस्तूर बनी हुई है, जो चिंतनीय है। आज मुकदमों का बोझ कम करने के लिए राष्ट्रीय लोक अदालत की व्यवस्था की गई है, जहां हर तरह के मुकदमों के निस्तारण की व्यवस्था होती है, जो स्वागत योग्य कदम कहा जा सकता है।इतना ही नहीं,सरकार और संबंधित तंत्र की ओर से आज समय समय पर जन-जागरूकता बढ़ाने की दिशा में भी लगातार काम किया जा रहा है, ताकि लोग बेवजह की मुकदमेबाजी से बचें। वास्तव में इस तरह के प्रयास होने चाहिए कि अदालतों से त्वरित न्याय का आम लोगों का सपना पूरा हो सके और इसके लिए किसी कानून में संशोधन की भी जरूरत महसूस होती है, तो केंद्र सरकार को इस दिशा में तत्परता दिखानी चाहिए और जल्द से जल्द संशोधन करना चाहिए,तभी जरूरतमंदों को समय पर न्याय मिल सकेगा। छोटे छोटे पारिवारिक मामलों को गांव शहर स्तर पर भी आसानी से विभिन्न पारिवारिक संगठनों, संस्थाओं द्वारा निपटाया जा सकता है। वास्तव में सच तो यह है कि छोटे छोटे पारिवारिक मामलों को निपटाने के लिए, आपसी बातचीत, मध्यस्थता, या काउंसलिंग की मदद ली जा सकती है। आपसी समझाइश से परिवारों को जोड़ा जा सकता है और विवादों को खत्म किया जा सकता है।फैमिली रिलेशनशिप एडवाइस लाइन से भी संपर्क स्थापित किया जा सकता है। इतना ही नहीं, आज जरूरत इस बात की भी है कि महिलाओं के इस रूपांतरण (सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता)को भी हमारे समाज द्वारा प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता महत्ती है। बेंगलुरु में न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना ने यह बात कही है कि ‘ महिलाएं सिर्फ अपने परिवारों के लिए नहीं कमा रहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए भी योगदान कर रही हैं, लेकिन हमारा समाज इस बदलाव को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। वास्तव में हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार समय के अनुरूप अद्यतन नहीं हो रहे हैं और ऐसे में, पारिवारिक विवाद बढ़ रहे हैं। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि इस संबंध में आंकड़ा पेश करते हुए उन्होंने यह बात कही है कि ‘बीते दशक में लगभग 40 प्रतिशत शादियां तलाक के कारण प्रभावित हुई हैं।’ न्यायमूर्ति के मुताबिक आज भारतीय परिवारों तथा समाजों को अपना रवैया और व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। उन्होंने यहां तक कहा है कि ‘ परिवार अदालतों में दोनों पक्षों की मुलाकात के दौरान वकील की मौजूदगी मशीनी नहीं होनी चाहिए, इसके विपरीत माहौल ऐसा होना चाहिए, जिससे दोनों पक्ष अच्छी तरह बातचीत कर सकें।’ इतना ही नहीं उनका यह भी कहना था कि-‘ यदि दोनों विवादित पक्ष एक दूसरे को समझें, एक दूसरे का सम्मान करें तथा खुद आत्मनिरीक्षण करें, तो तलाकों के मामलों में निश्चित तौर पर कमी आ सकती है।’ यदि हम इन सभी बातों पर समय रहते ध्यान दे पाए तो कोई दोराय नहीं कि हम एक खुशहाल व समृद्ध भारत की ओर अग्रसर न हो पाएं।