
सोनम लववंशी
हर साल 22 अप्रैल को हम बड़ी श्रद्धा से पृथ्वी दिवस मनाते हैं। स्कूलों में भाषण होते हैं, दफ्तरों में पौधे लगाए जाते हैं, सोशल मीडिया पर ‘गो ग्रीन’ वाले फिल्टर लगाकर तस्वीरें डाली जाती हैं। सब कुछ इतना हराभरा लगता है, मानो पृथ्वी वाकई मुस्कुरा रही हो। लेकिन क्या वह वाकई मुस्कुरा रही है या सिर्फ खांस रही है, प्लास्टिक, प्रदूषण, पेट्रोल और पाखंड की धूल में लिपटी हुई? जब एक ओर हम सौर ऊर्जा के महत्व पर सेमिनार कर रहे होते हैं, ठीक उसी समय कोई कॉर्पोरेट दफ्तर एयर कंडीशनर की बर्फीली ठंडी हवा में कार्बन उत्सर्जन बढ़ा रहा होता है। जिन हाथों में ‘पृथ्वी बचाओ’ का पोस्टर होता है, उन्हीं हाथों में मिनरल वाटर की प्लास्टिक बोतलें होती हैं। ये बोतलें कभी गलती से भी रीसाइक्लिंग की राह नहीं पकड़तीं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह जागरूकता है या आत्ममुग्धता?
सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घोषणाएं करती हैं, बजट में बड़ी राशि ‘हरित विकास’ के लिए घोषित होती है। मगर ज़मीनी हालात क्या कहते हैं? यह किसी से छिपा नहीं है। भारत में ही 2023 में 6.7 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हुआ। वह समुद्रों में डूब गया, नदियों में तैर गया, खेतों की मिट्टी में जहर बनकर मिल गया। फिर भी हम दावा करते हैं कि हम पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार नागरिक हैं। यह दावा क्या किसी प्रयोगशाला में जांचा गया है? दिल्ली की हवा में सांस लेना अब सिगरेट पीने से ज़्यादा खतरनाक हो गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 20 में से 14 सबसे प्रदूषित शहर हैं। फिर भी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री तेजी से बढ़ रही है, और हम ‘इलेक्ट्रिक वाहन क्रांति’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं जैसे कोई देवदूत आसमान से उतरेगा और सारा धुआँ चमत्कारिक तरीके से साफ हो जाएगा। क्या हमें तकनीक के भरोसे छोड़कर अब चिंता करना बंद कर देना चाहिए?
शहरी विकास के नाम पर हजारों पेड़ काट दिए जाते हैं, और फिर मुआवज़े में कहीं किसी बंजर ज़मीन पर 10 पौधे रोप दिए जाते हैं। क्या पेड़ों का जीवन भी अब सरकारी आंकड़ों की तरह हो गया है। जहां कटाई को विकास और रोपण को संतोष माना जाता है? 2024 में भारत में जंगलों का कुल क्षेत्रफल 21.7 प्रतिशत था, जो अब घटकर 21.3 प्रतिशत रह गया है, लेकिन कागजों पर यह भी ‘संतोषजनक प्रगति’ घोषित कर दिया गया है। क्या हम खुद से झूठ बोल-बोलकर इतने कुशल हो गए हैं कि अब सच का सामना करने की हिम्मत भी नहीं बची? लगता तो ऐसा ही है, तभी तो महाराष्ट्र के नासिक जिले के बोरीचिवारी गांव की वायरल हो रही वीडियो जैसे हमारे गाल पर करारा तमाचा है। वहां की महिलाएं 70 फीट गहरे सूखे कुएं में उतरकर गंदा पानी भरने को मजबूर हैं। न कोई सुरक्षा, न कोई विकल्प। ज़िंदगी को दांव पर लगाकर वे पानी की वो आख़िरी बूंदें खोजती हैं, जो किसी सरकारी योजना की स्लाइड में ‘उपलब्ध’ घोषित की जा चुकी हैं। क्या यही वह ‘जल जीवन मिशन’ है जिसके करोड़ों के विज्ञापन टीवी पर रोज़ आते हैं? क्या यही वह ‘नया भारत’ है जिसमें एक ओर बुलेट ट्रेन दौड़ने वाली है और दूसरी ओर महिलाएं कुएं में झांककर अपने बच्चों की प्यास बुझा रही हैं?
वैसे ये सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं है, ये उस पूरे तंत्र का आईना है जो आंकड़ों की चाशनी में लपेटकर कड़वे सच को निगलवा देना चाहता है। रिपोर्ट कहती है कि भारत के 19 करोड़ लोग अब भी ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां साल भर में एक बार भी सुरक्षित जल नहीं पहुंच पाता। गांवों में कुएं सूख रहे हैं, कस्बों में पानी खरीदकर पीने की नौबत है और शहरों में टैंकर माफिया का साम्राज्य है। फिर भी हम कहते हैं कि जल संरक्षण हमारी प्राथमिकता है। यदि वाकई होती, तो क्या जल जीवन मिशन जैसी योजनाएं भी केवल फाइलों और स्लोगनों तक सिमट जातीं? जब जल जीवन का मूल है, तो क्यों देश की 40 फीसदी आबादी को अब भी पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता?
हम बच्चों को पेड़ लगाने की सीख देते हैं, पर खुद पेड़ों की छाया में बनी सरकारी नीतियों को हथौड़े से तोड़ते हैं। स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य है, लेकिन क्या वहां रटाया गया पाठ बच्चों को धरती से जोड़ता है या सिर्फ परीक्षा पास कराने का औजार बन गया है? जब पूरी शिक्षा व्यवस्था ही प्रकृति से कट चुकी है, तो बच्चों से पर्यावरणप्रेम की उम्मीद करना क्या छल नहीं है? पृथ्वी दिवस दरअसल अब एक ‘फेस्टिवल ऑफ इको-हाइपोक्रेसी’ बन चुका है, जहां नीयतें हरी नहीं, बल्कि स्याह होती हैं। लोग अपने ग्रीन वॉश किए हुए विचारों को चमकाते हैं, और वास्तविक समाधान की बात करने वालों को आदर्शवादी कहकर किनारे कर दिया जाता है। क्या हमने यह मान लिया है कि पृथ्वी बचेगी नहीं, इसलिए बस इतना करें कि मरते वक़्त हम पर दोष न आए?
पृथ्वी को बचाने के लिए केवल योजनाएं नहीं, चरित्र चाहिए। पर जब सारा तंत्र ही आंकड़ों के हेरफेर में लगा हो, और नीतियों की जड़ें मुनाफे में दबी हों, तो किससे उम्मीद की जाए? क्या वह नेता जो खुद फाइव स्टार होटल में ‘ग्रीन इंडिया’ पर भाषण देता है? या वह आम आदमी जो 500 मीटर दूर भी कार से जाता है और फिर अपने इंस्टाग्राम पर पेड़ की फोटो पोस्ट करता है? शायद अब वक़्त आ गया है कि हम पृथ्वी दिवस को उत्सव नहीं, आत्मग्लानि के दिन की तरह मनाएं, अपने पाखंड पर शर्मिंदा होकर। प्रश्न पूछें सिर्फ दूसरों से नहीं, खुद से भी, क्योंकि पृथ्वी को बचाने की लड़ाई अब नीतियों की नहीं, नीयत की है। और जब तक हमारी नीयत प्लास्टिक में लिपटी रहेगी, पृथ्वी की सांसें भी इसी प्लास्टिक में घुटती रहेंगी।