
सोनम लववंशी
कभी किताबें धरोहर होती थीं, अब वे सिर्फ सजावट बनकर रह गई हैं। दीवारों पर टंगी तस्वीरों और दराज में पड़ी पुरानी डायरी की तरह किताबें भी बीते समय की ‘याद’ भर हैं। यूनेस्को ने 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस घोषित किया था ताकि समाज किताबों की अहमियत को दोबारा समझे, मगर आज सवाल ये है कि क्या हम वाकई समझना चाहते हैं? अब किताबें पढ़ी नहीं जातीं, खरीदी जाती हैं ताकि इंस्टाग्राम पर उनकी तस्वीर लगाई जा सके। पढ़ने की जगह ‘स्क्रॉल’ करने का चलन है। औसतन एक भारतीय प्रतिदिन 2.36 घंटे सोशल मीडिया पर बिताता है, जबकि पढ़ने में महज 2.7 मिनट खर्च करता है। इससे ज़्यादा किसी समाज की बौद्धिक दरिद्रता का प्रमाण और क्या होगा? पहले पढ़ा हुआ ज्ञान होता था, अब सुना हुआ भ्रम है। गूगल पर ‘किताबों के बिना ज्ञान’ खोजिए, सैकड़ों वीडियो मिल जाएंगे जो साबित करने पर आमादा हैं कि बिना पढ़े भी दुनिया बदली जा सकती है। पर क्या सचमुच ऐसा है? क्या न्यूटन, टॉलस्टॉय, अंबेडकर या प्रेमचंद ने किताबों के बिना क्रांति की थी? नहीं। तो फिर आधुनिक भारत क्यों इस भ्रमित दिशा में बढ़ चला है? हम विश्वगुरु बनने को आतुर हैं, जबकि युवा पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है। असर-2023 की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत के 14–18 वर्ष के 25 प्रतिशत विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में कक्षा दो की किताब तक नहीं पढ़ सकते। यह वही भारत है जहाँ शारदा पीठ, नालंदा और तक्षशिला जैसे ज्ञान केंद्रों ने विश्व को दिशा दी थी। एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि भारत में हर तीसरा ग्रेजुएट अपनी डिग्री के बाद फिर कभी कोई किताब नहीं पढ़ता। फिर भी हम समाज में विवेक, तार्किकता और आलोचनात्मक सोच की अपेक्षा करते हैं? आज पढ़ना ‘बोरिंग’ और रील्स ‘एंटरटेनिंग’ हो गई हैं। क्या यह मनोरंजन की लत हमारी मानसिक आज़ादी को नहीं निगल रही?
आज का युवा ऐतिहासिक उपन्यास नहीं पढ़ता, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर शॉर्ट्स जरूर देखता है। नतीजा ये है कि मोबाइल में ‘डेटा’ तो भरपूर है, लेकिन मानव सोचने समझने की ‘दृष्टि’ से रिक्त हो चला है। किताबें केवल सूचना नहीं देतीं, सोचने की कला सिखाती हैं। जो समाज किताबों से दूर होता है, वह आलोचना को सह नहीं पाता, वह भीड़ का हिस्सा बन जाता है, विचार का नहीं। तकनीक तात्कालिक ज्ञान देती है, जबकि किताबें स्थायी सोच रचती हैं। आजकल के युवा तकनीक से पढ़ाई कर समय बचाने पर गर्व करते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि मानव ने समय बचाया या सोचने की क्षमता गंवा दी? एक समय था जब किताबें आंदोलन खड़ा करती थीं। स्वतंत्रता संग्राम में ‘गीता रहस्य’, ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और ‘हिंद स्वराज’ जैसे ग्रंथों ने विचार और विद्रोह दोनों को जन्म दिया। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 10 में से 4 सरकारी स्कूलों में पुस्तकालय ही नहीं हैं, और जहां हैं भी, वहाँ किताबें बंद अलमारी में कैद हैं। यह शिक्षा है या दिखावा? विश्व बैंक की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2023 कहती है कि किताबों से दूरी, रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच को कुंद कर रही है। लेकिन हमने पुस्तकालयों को ‘बोझ’ मान लिया है। शिक्षा नीतियों में डिजिटल लर्निंग के नाम पर किताबों को हाशिए पर डाल दिया गया है। यह कैसा ‘न्यू इंडिया’ है जो ज्ञान का मंदिर ही समाप्त कर रहा है?
हम किताबों को आदर तो देते हैं, पर पढ़ते नहीं। साहित्य महोत्सवों में लोग लेखक के साथ सेल्फी लेने आते हैं, किताबों पर चर्चा करने नहीं। यह ज्ञान का उत्सव है या लोकप्रियता का तमाशा? प्रश्न केवल यह नहीं कि हम पढ़ क्यों नहीं रहे, बल्कि यह है कि बिना पढ़े हम बन क्या रहे हैं? क्या तकनीक के भरोसे हम इंसान रह पाएंगे या डेटा-संचालित रोबोट बनते जाएँगे? किताबें केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, चेतना का आधार हैं। जो किताबें छोड़ते हैं, वे सोचने की शक्ति भी खो बैठते हैं। और जो सोच नहीं सकते, वे केवल भीड़ का हिस्सा बनते हैं। क्या हम फिर से किताबों की ओर लौटेंगे या उन्हें सिर्फ ‘बुकशेल्फ़’ में कैद रखेंगे? क्योंकि अगर हमने पढ़ना बंद कर दिया, तो अगली पीढ़ी सोचने से भी डरने लगेगी। और तब किताबें नहीं, शून्यता शेष रह जाएगी। सोचिए किताबें नहीं पढ़ी जाएँगी तो विचार कहाँ बचेंगे?