ऋतुपर्ण दवे
दरअसल धर्म को सरल और बेहद कम शब्दों में इस तरह भी समझा कि समाज द्वारा स्वीकृत वो मान्यताएं हैं जिस पर चल कर मनुष्य कितना भी शक्तिशाली हो जाए किसी दूसरे का अहित नहीं कर सकता है तथा संतुलित व मर्यादित रहता है। वह धर्मनीति ही है जो मानवता का बोध कराने, अत्याचार, अनाचार, साधु-संतो के उत्थान के लिए भगवान का अनेकों रूप बनवाती है ताकि दुष्टों का संहार, विश्व कल्याण के साथ धर्म जो मनुष्य को उसकी सीमाओं में रखता है की रक्षा की जा सके। भगवान परशुराम ऐसे ही धर्मपरायण थे जो क्रोध के वशीभूत होकर अनाचारियों के लिए किसी काल से कम न थे। परशुराम ही इतिहास के पहले ऐसा महापुरुष हैं जिन्होंने किसी राजा को दंड देने के लिए दूसरे राजाओं को भी सबक सिखा नई राजव्यवस्था बनाई जिससे हा-हाकार मच गया। परशुराम की विजय के बाद संचालन सही ढ़ंग से न होने से अपराध और हाहाकार की स्थिति बनी।
उससे घबराए ऋषियों ने तपोभूमि से साधना लीन दत्तात्रेयजी को उठा पूरा वृत्तान्त बताया। उनके साथ जाकर कपिल और कश्यप मुनि ने परशुराम को समझाया। पहले तो समझ नहीं आया लेकिन कई वर्षों के क्रोध के बाद जब परशुराम कुछ शांत हुए तो उन्हें समझ आया और अपने कृत्यों पर पश्चाताप करने लगे। परशुराम को, मुनि दत्तात्रेय, कपिल और कश्यप ने इसके लिए बहुत धिक्कारा। ग्लानि में डूबे परशुराम ने संगम तट पर सारे जीते हुए राज्य कश्यप मुनि को दान दे दिया और स्वयं महेन्द्र पर्वत चले गए उसके बाद राजकाज की दोबारा सुचारू शासन व्यवस्था संचालित हो पाई।
भगवान परशुराम को पराक्रम का प्रतीक माना जाता है। उन्हें राम का पर्याय और सत्य सनातन माना जाता है जिनका जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ। ग्रहों के प्रभाव से वो तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी बने। महाप्रतापी व माता-पिता भक्त परशुराम ने जहां पिता की आज्ञा से माता का गला काट दिया वहीं पिता से माता को जीवित करने का वरदान भी मांग लिया। इस तरह हठी, क्रोधी और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वाले परशुराम का लक्ष्य मानव मात्र का हित था। वो परशुरामजी ही थे जिनके इशारों पर नदियों की दिशा बदल जाया करतीं थीं। उन्होंने अपने बल से आर्यों के शत्रुओं का नाश किया, हिमालय के उत्तरी भू-भाग, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, कश्यप भूमि और अरब में जाकर शत्रुओं का संहार किया। उसी फारस जिसे पार्शिया भी कहा जाता था का नाम इनके फरसे पर ही किया गया। इन्होंने भारतीय संस्कृति को आर्यन यानी ईरान के कश्यप भूमि क्षेत्र और आर्यक यानी इराक में नई पहचान दिलाई। गौरतलब है कि पार्शियन भाषी पार्शिया परशुराम के अनुयायी और अग्निपूजक कहलाते हैं और परशुराम से इनका संबंध जोड़ा जाता है। अब तक भगवान परशुराम पर जितने भी साहित्य प्रकाशित हुए हैं उनसे पता चलता है कि मुंबई से कन्याकुमारी तक के क्षेत्रों को 8 कोणों में बांटकर परशुराम ने प्रान्त बना कर इसकी रक्षा की प्रतिज्ञा भी की। अयोध्या, मिथिला, काशी, कान्यकुब्ज, कनेर, बिंग के साथ ही कहते हैं कि पूर्व के प्रान्तों में मगध और वैशाली भी महासंघ में शामिल थे जिसका नेतृत्व भगवान परशुराम ने ही किया। दूसरी ओर हैहृयों के साथ आज के सिन्ध, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, लाहौर, अफगानिस्तान, कंधार, ईरान, ट्रांस-ऑक्सियाना तक फैले 21 राज्यों के राजाओं से युध्द तक किया। सभी 21 अत्याचारी राजाओं और उनके उत्तराधिकारियों तक का परशुराम ने विनाश भी किया जिससे दोबारा कोई सिर न उठा सके।
केरल प्रदेश को बसाने वाले परशुराम ही थे। एक शोध के अनुसार परशुराम में ब्रम्हा की सृजन शक्ति, विष्णु की पालन शक्ति व शिव की संहार शक्ति विद्यमान थी जिससे त्रिवंत कहलाए। उनकी तपस्या स्थली आज भी तिरुवनंतपुरम के नाम से प्रसिध्द है जो अब केरल की राजधानी है। केरल, कन्याकुमारी और रामेश्वरम के संस्थापक भगवान परशुराम की केरल में नियमित पूजा होती है। यहां के पंडित संकल्प मंत्र उच्चारण में समूचे क्षेत्र को परशुराम की पावन भूमि कहते हैं। परशुराम के बारे में पुराणों में लिखा है कि महादेव की कृपा व योग के उच्चतम ज्ञान के सहारे वे अजर, अमर हो गए और आज भी महेंद पर्वत में किसी गुप्त स्थान पर आश्रम में रहते हैं। कई धर्मग्रन्थो में वर्णित नक्षत्रो की गणना से हैहृय-परशुराम युद्ध अब से लगभग 16300 साल के पहले का माना जाता है। वहीं कुछ कथाएं यह भी हैं कि कई हिमालय यात्रियों ने परशुराम से भेंट होने की बात भी कही हैं। भगवान परशुराम की यही गाथा है जिसमें अनीति, अत्याचार, छल-प्रपंच का संहार करने की सच्चाई है जो आज भी प्रासंगिक है और युगों-युगों तक रहेगी।
हर वर्ष वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान विष्णु के अवतार परशुरामजी का जन्मोत्सव मनाया जाता है।