
कभी जो कलम थी आग सी,
अब फ़िल्टरों में खो गई।
जो चीखती थी अन्याय पर,
वो चुपचाप अब सो गई।
न सवाल हैं, न बात है,
बस ट्रेंड की सरकार है।
जो रील बनाए युद्ध पर,
वो आजकल अख़बार है।
जो सत्ता से डरता नहीं,
वो अब स्पॉन्सर से डरे।
जो सच दिखाए आईना,
वो अब व्यूज को गिन मरे।
“नमस्ते फैम!” से शुरू,
हर दिन का संवाद है।
जहाँ ख़बर नहीं, बस
कॉलेब का व्यापार है।
जहाँ ‘भाई लोग’ की जय जयकार,
और ‘हेटर्स’ का बहिष्कार।
जहाँ लोकतंत्र की बहस नहीं,
सिर्फ़ गिवअवे और अवतार।
हाशिये की चीख अब
मीम बनकर रह गई।
जो ज़मीर हुआ करता था,
वो प्रोफाइल में बह गई।
कविता भी अब सोचती है,
क्या लिखूं इस दौर में?
जब कवि बिके ब्रांड बनें,
हर शब्द हो चटख़ौर में।
तो लो मनाओ दिवस नया,
‘इन्फ्लुएंसर महोत्सव’ हो।
जहाँ चरित्र से बड़ा कन्टेन्ट,
और सत्य से बड़ी पोस्ट हो।
— डॉ. सत्यवान सौरभ