ममता की मौन परछाइयाँ

The silent shadows of Mamta

मनीषा मंजरी

माँ – यह मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि एक एहसास है। ममता त्याग, स्नेह, और निःस्वार्थ प्रेम का सबसे शशक्त और पवित्र रूप है। हमारे शास्त्रों में भी माता का महिमागान करते हुए कहा गया है-

‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया’

अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई अन्य आश्रय नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं है। मां जीवन की प्राण वायु है। वह जीवन की जननी, पहली गुरु और सृष्टि के चक्र की केंद्रीय धुरी है। इसलिए कहा भी गया है कि ‘स्त्री ना होगी जग म्हं सृष्टि को रचावै कौण, ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनों, मन म्हं धारें बैठे मौन’। अर्थात् यदि स्त्री नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी।

मातृदिवस एक ऐसा अवसर है जिस दिन सम्पर्ण विश्व माँ की हीं महिमा का गुणगान करता है। उनकी गोद, उनके आँचल, उनके अपार प्रेम को फूलों, आभारों और भावनाओं का उपहार देने की कोशिश की जाती है। परन्तु इस दिन एक ऐसा भी वर्ग समाज में मौजूद है जो खामोशी से अपनी भावनाएं खुद में दबाये निःशब्दिता से बस मुस्कुरा देता है, या किसी अँधेरे कोने में खुद को गायब करने की नाकामयाब कोशिशें करता है, कोना जहां ना कोई बधाई पहुँचती है, न कोई आभार और ना कोई तोहफा- ऐसी स्त्रियां जो माँ नहीं बन सकीं। इन स्त्रियों को अक्सर कोई नाम नहीं दिया जाता, परन्तु इनके भीतर भी वही ममता का सागर लहराता है, जो एक माँ में होता है।

वे स्त्रियां जो माँ बनने की तीव्र इच्छा रखती हैं, पर किसी कारणवश यह अनुभव नहीं पा सकीं- कभी चिकित्सकीय कारणों से, कभी विवाह न हो पाने या टूट जाने के कारण, तो कभी स्वेच्छा से अकेले जीवन को अपनाने के कारण।।इन स्त्रियों की पीड़ा को समाज अक्सर देख नहीं पाता, या देख कर भी अनदेखा कर देता है। क्योंकि माँ न बन पाने को हम अधूरापन मानते हैं, और उस अधूरेपन पर सहानुभूति नहीं, अजीब सी चुप्पी ओढ़ लेते हैं, या फिर कटाक्ष करते हैं। पर क्या ममता केवल उस स्त्री की थाती है जो शारीरिक रूप से माँ बनी हो? क्या माँ बनने की भावना, मातृत्व का भाव, केवल गर्भ धारण करने से ही परिभाषित होता है?

माँ बनने की चाह : एक अनकहा संघर्ष –

माँ बनने प्रबल इच्छा और उसका पूर्ण ना हो पाना, यह एक ऐसा दुःख है जिसे शब्दों में पिरोना आसान नहीं। यूँ तो आज के आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने बहुत कुछ आसान कर दिया है, परन्तु हर स्त्री के लिए ये सफर एक जैसा नहीं हो पता। कुछ स्त्रियाँ कई वर्षों तक संतान के लिए संघर्ष करती हैं- उपचार, दवाइयाँ, मानसिक दबाव, और हर माह एक टूटी हुई उम्मीद। समाज का दबाव, परिवार की अपेक्षाएँ, और अपनी आत्मा के भीतर पलती मातृत्व की पुकार, यह एक ऐसा अदृश्य युद्ध है जो इन स्त्रियों को भीतर से तोड़ देता है, पर वे हर दिन खुद को समेट कर मुस्कुराती हैं।

कुछ स्त्रियाँ विवाह न होने या टूट जाने के कारण माँ नहीं बन पातीं। कुछ ने अपने आत्मसम्मान के लिए अकेलापन चुना, तो कुछ जीवन की परिस्थितियों में उलझ कर उस राह पर जा ही नहीं सकीं, कुछ ने किसी का इंतज़ार किया और समय निकल गया और कुछ ने अकेलेपन को अपनाया क्यूंकि यही उनके सुकून की गारंटी थी। पर इसका मतलब यह नहीं कि उनके भीतर ममता नहीं। उनके भी सपनों में बच्चों की किलकारी गूंजती है, उनके भी घर के कोनों में अधूरी कहानियाँ बसी होती हैं।

मातृत्व की अदृश्य परछाइयाँ –

मातृत्व को धारण करना सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया नहीं बल्कि एक भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभूति भी है। कुछ स्त्रियां भले हीं माँ ना बनी हो पर उन्होंने मातृत्व को धारण किया है, कभी छोटे भाई-बहन को माँ की परवरिश देकर, कभी किसी अनाथ बच्चे की देखभाल कर, या कभी समाज की सेवा में स्वयं को समर्पित कर।
ऐसी महिलाएँ कभी तो शिक्षिका बनकर सैकड़ों बच्चों को संवारती हैं, तो कभी डॉक्टर बनकर मरीजों को ज़िन्दगी देती हैं, तो कभी परामर्शदाता बनकर टूटे दिलों को जोड़ती हैं, क्या यह सब मातृत्व नहीं है? ममता केवल गर्भ से नहीं, हृदय से जन्म लेती है।

वे जो खो चुकीं अपनी संतति –

एक तरफ माँओं का वो वर्ग है, जिन्होंने अपने संतानों को खोया है। कभी गर्भ में, कभी जन्म के बाद कोई दुर्घटना, या कोई बीमारी – ऐसी त्रासदी जिनका कोई शब्द नहीं, कोई सांत्वना नहीं। वे स्त्रियाँ माँ बनीं, पर उनके बच्चों का साथ कुछ पल, कुछ दिनों, या कुछ वर्षों का ही रहा। वे भी माँ थी और रहेंगी, बस उनका बच्चा उनकी दुनिया में ना हो कर, उनकी यादों में है।
वे उस हर पल में माँ हैं, जब वे बच्चों के छोटे कपड़ों को देखकर अपने आंसुओं को रोकती हैं, जब वो एक कोना पकड़ कर खामोशी से बैठ जाती हैं, जब वे रास्ते पर बिना कुछ कहे किसी की मुस्कराहट में अपने बच्चे की हंसी तलाशती हैं। उनकी ममता मौन होकर भी अन्नंत होती हैं।

अकेलेपन में ममता की गूंज

समाज में कई स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया, या विवाह के बाद मातृत्व का विकल्प नहीं चुना, पर उनके भीतर भी मातृप्रवृत्ति जीवंत होता है। वे पशुओं की सेवा करती हैं, वृद्ध माता-पिता का सहारा बनती हैं, या किसी ऐसे बच्चे को पढ़ाती हैं जिसे कोई नहीं पूछता। वे चुपचाप किसी के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाती हैं, वो भी बिना किसी अपेक्षा के।
उनके आँचल में भी ममता की वही कोमलता है, जो किसी माँ के आँचल में होती है।

मातृत्व को पुनर्परिभाषित करना

समाज को चाहिए कि वह माँ के अर्थ को पुनः परिभाषित करे। माँ केवल वह नहीं जो बच्चे को जन्म दे, माँ वह भी है जो जीवन को सहेजती है, उसे संवारती है, और दूसरों को निःस्वार्थ प्रेम देती है। मातृत्व एक भावना है, न कि कोई औपचारिक पहचान।
मदर्स डे पर जब हम उपहार खरीदते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हैं, तब कुछ पल उन स्त्रियों को भी याद करें —
“जो माँ बनना चाहती थीं, पर बन न सकीं।

जो किसी परिस्थिति या फैसले के कारण मातृत्व से दूर रह गईं।”

जिन्होंने बच्चे को खो दिया, पर ममता आज भी उनके भीतर जीवित है। जिन्होंने बिना संतान के भी दुनिया को प्रेम दिया, सहारा दिया।

यह आलेख उन स्त्रियों को समर्पित है जिनकी ममता को समाज ने अक्सर अनदेखा किया, जिन्होंने अपनी भावनाओं को चुपचाप जीया, और जिनके आँचल में कभी कोई सिर नहीं आया, पर उन्होंने फिर भी उस आँचल को फैलाए रखा, किसी उम्मीद, किसी सपने, किसी दुआ के लिए। जो माँ नहीं बनीं, पर जिनके भीतर की ममता माँ से कम नहीं। जो अधूरी नहीं, बस एक अलग प्रकार की पूरी हैं। इस मातृ दिवस, हम सब आपको “एक मौन नमन देते हैं, आपके स्नेह को, आपकी इच्छाओं को, आपकी चुप्पियों को।”