मौन की राजनीति, लोकतंत्र और संवेदना पर हावी!

Politics of silence dominates democracy and compassion!

सोनम लववंशी

हमारा लोकतंत्र बोलने की आज़ादी का दावा करता है, लेकिन धीरे-धीरे यह बोलने से ज़्यादा “कब और क्या न बोलें” का गणित बनता जा रहा है। अब साज़िशें सिर्फ शब्दों में नहीं, खामोशियों में भी लिखी जाती हैं। मौन अब सिर्फ एक निजी प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि राजनीतिक मुद्रा बन गया है —चुनिंदा, सुनियोजित और चौंकाने वाला। लोकतंत्र में मौन रहना कभी-कभी अपराध से बड़ा अपराध हो सकता है। जब कोई सरकार, संगठन या बुद्धिजीवी वर्ग किसी मुद्दे पर लगातार खामोश रहती है, तो यह चुप्पी भी एक बयान बन जाती है—एक ऐसा बयान जो बताता है कि किस जीवन की कीमत है, और कौन-सा जीवन हाशिये पर धकेला जा चुका है।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ अधिनियम को लेकर हाल ही में हुई सांप्रदायिक हिंसा इसका ताज़ा उदाहरण है। मंदिरों को निशाना बनाया गया, हिंदू समुदाय को खुलेआम धमकाया गया, लेकिन तमाम बड़े अख़बार और टीवी चैनल इस पर या तो चुप रहे या फिर इसे ‘स्थानीय विवाद’ कहकर हवा में उड़ा दिया गया। यही मीडिया अगर किसी अन्य राज्य में किसी मस्जिद के बाहर दीवार पर रंग लग जाए, तो ‘सांप्रदायिक तनाव’ की चेतावनी देने लगता है। यह केवल पत्रकारिता की गिरावट नहीं, बल्कि ‘चयनित दृष्टि’ का प्रमाण है। जब खबरें भी धर्म, जाति और राजनीति के चश्मे से छनकर दिखाई जाएं, तो नागरिकों का भरोसा सिर्फ सरकार पर नहीं, अपने ही लोकतंत्र पर से उठने लगता है।

मीडिया का मौन केवल टीआरपी का हिसाब नहीं, बल्कि डर और दबाव का गणित है। पत्रकार अब जनता के लिए नहीं, अपनी नौकरी और संस्थान के हितों के लिए काम करते नज़र आते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या चौथा खंभा गिर चुका है, या वह खुद ही सड़ चुका है? जब पत्रकार, संपादक और न्यूज़रूम में बैठे लोगों की संवेदना केवल कुछ खास घटनाओं पर उमड़े और बाकी समय वो चुप्पी ओढ़ लें, तो लोकतंत्र की असली हार वहीं से शुरू होती है। जिस प्रेस को लोगों की आवाज़ बनना था, वह अब सत्ता की गूंगी परछाई बनता जा रहा है। यह चुप्पी सिर्फ मीडिया तक सीमित नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों, थिंक टैंक और आत्मघोषित ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ ने भी मौन को एक हथियार की तरह चुन लिया है। अगर घटना उनके वैचारिक खांचे में फिट नहीं बैठती, तो वे आँखें फेर लेते हैं। किसी दलित छात्र की आत्महत्या पर मोमबत्तियाँ जलती हैं, लेकिन किसी आदिवासी महिला के बलात्कार पर खामोशी पसरी रहती है। जब इंसान की पीड़ा को भी विचारधारा के तराजू पर तौला जाने लगे, तो समझना चाहिए कि समाज नैतिक रूप से दीवालिया हो चुका है। संवेदना अब सार्वभौमिक न होकर ‘चयनित’ हो गई है और यह चयन ही सबसे बड़ा अन्याय है।

राजनीतिक दल भी अब “सुनियोजित चुप्पी” की कला में पारंगत हो चुके हैं। सत्ता में रहते हुए हर नेता खुद को सर्वसमाज का हितैषी दिखाने के प्रयास में असहज सवालों पर चुप्पी साध लेता है। चुनावी रणनीति का हिस्सा बन चुकी यह खामोशी कई बार उन मुद्दों को भी निगल जाती है जो जनता की बुनियादी ज़रूरतों से जुड़े होते हैं। किसान आत्महत्याएँ, जल संकट, बेरोज़गारी जैसे मुद्दे गायब हो जाते हैं और उनकी जगह धार्मिक या जातीय एजेंडे पर बहस छा जाती है और जब इस बहस के पक्ष या विपक्ष में नेता बोलते हैं, तो जनता को लगता है कि शायद यह ही असली मुद्दा है। चुप रहना अब राजनीति का सबसे प्रभावी हथियार बन गया है कम बोले, कम आलोचना झेलो।

चुप्पियों की यह राजनीति केवल ऊपर से नहीं थोपी जाती, बल्कि जनता भी अब इसमें भागीदार बन गई है। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी अब अपनी ‘आवाज’ का चयन सोच-समझकर करने लगे हैं। जो मुद्दा उनके ‘पसंदीदा’ दल या विचारधारा के अनुकूल हो, उस पर वे मुखर हो जाते हैं; बाकियों पर चुप्पी साध लेते हैं। यह डिजिटल युग की भीतरी दरार है जहां हम लोकतंत्र में रहते हुए भी एक-दूसरे के अन्याय पर आँखें मूँद लेते हैं। इस चुप्पी ने समाज को आत्मकेंद्रित बना दिया है, एक ऐसा समाज जिसे अपने अलावा किसी और की चीख़ सुनाई ही नहीं देती। असल में, आज के भारत में मौन अब ‘माध्यम’ नहीं, ‘संदेश’ बन चुका है। यह तय करता है कि कौन-सी पीड़ा सार्वजनिक होगी और कौन-सी दबा दी जाएगी। यह तय करता है कि किन चेहरों को इंसाफ़ मिलेगा और कौन इतिहास के पन्नों में अनदेखा रह जाएगा। यह मौन अब केवल निजी निर्णय नहीं, बल्कि सामूहिक साज़िश बन चुका है और यही इस समय का सबसे बड़ा पहलू है जिसे देखने और उजागर करने की ज़रूरत है।

ऐसे में सवाल यह नहीं है कि कौन बोल रहा है, सवाल यह है कि कौन नहीं बोल रहा और क्यों? क्या हमारी संवेदनाएं सचमुच मर चुकी हैं, या हमने उन्हें सुविधानुसार गिरवी रख दिया है? अगर चुप्पी हमारी पहचान बन गई है, तो फिर शोर किसके लिए है? लोकतंत्र मौन पर नहीं, संवाद पर जीवित रहता है और अगर यह संवाद केवल कुछ खास चेहरों और खास मुद्दों तक सीमित है, तो यक़ीन मानिए, वह लोकतंत्र अब केवल एक दिखावा है एक ‘साउंडप्रूफ सिस्टम’ जिसमें सच्चाई दम तोड़ रही है।