मनोरंजन के नकाब में नैतिकता का पतन!

Decline in morality under the guise of entertainment!

सोनम लववंशी

संस्कृति, चेतना और सामाजिक अनुशासन की तमाम परंपराएं उस समय ठिठककर खड़ी रह जाती हैं, जब किसी समाज में नंगई को ‘स्वतंत्रता’, अश्लीलता को ‘प्रयोग’, और उत्तेजना को ‘रचनात्मकता’ कहकर स्वीकार कर लिया जाता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म के ‘उल्लू एप’ पर प्रसारित हो रहा एक शो ‘हाउस अरेस्ट’ इसी अंधेरे की ओर हमारा ध्यान खींचता है, जहाँ मनोरंजन के नाम पर मूल्यों की अर्थी सजाई जा रही है। 20 अप्रैल, 2025 से प्रसारित यह शो, जिसे होस्ट कर रहे हैं पूर्व बिग बॉस प्रतिभागी एजाज़ खान केवल एक रियलिटी शो नहीं, बल्कि समाज के उस गिरते हुए मानसिक धरातल की गवाही है, जहाँ ‘टास्क’ के नाम पर प्रतियोगियों से अंतरंग मुद्राओं का अभ्यास करवाया जा रहा है। कैमरे के सामने, कपड़े पहनकर गरिमा को तार – तार किया जा रहा है। शो की एक क्लिप में जब एक महिला प्रतिभागी मासूमियत से अपनी जानकारी ‘डॉग पोजीशन’ या ‘अप-डाउन’ जैसे शब्दों में व्यक्त करती है, और दर्शकों की वाहवाही पाती है, तब प्रश्न यह उठता है कि क्या अब शालीनता बासी विषय हो चुका है?

वास्तव में यह शो एक सतही प्रवृत्ति की उपज है, जहाँ न सामाजिक उत्तरदायित्व है, न रचनात्मक विवेक। नारी-पुरुष संबंधों की मर्यादा को जिस चंचलता और अश्लील चेष्टाओं के सहारे टास्क बनाया गया है, वह दर्शाता है कि अब ‘वयस्क’ कंटेंट और ‘विवेकहीन’ कंटेंट में कोई अंतर नहीं रहा। यह केवल शो नहीं, चेतना पर आघात है एक ऐसी पीढ़ी के नाम जो यह देख रही है, सीख रही है, और आगे यही बनना चाह रही है। ऐसी सामग्री का मनोवैज्ञानिक असर गहरा और दीर्घकालिक होता है। किशोरावस्था में जब पहचान और सोच का निर्माण हो रहा होता है, तब इस तरह के दृश्य मस्तिष्क में यौनिकता की विकृत छवियाँ अंकित कर देते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में नाबालिगों द्वारा किए गए यौन अपराधों में पिछले 5 वर्षों में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। क्या यह महज संयोग है कि उसी दौर में इंटरनेट और ओटीटी पर इस तरह की सामग्री की बाढ़ आई? भारत में 2023 के आंकड़ों के अनुसार, 43 प्रतिशत ओटीटी दर्शक वयस्क सामग्री को प्राथमिकता देते हैं। यही तथ्य प्लेटफॉर्म्स की रणनीति बन चुका है जहाँ भावनात्मक संबंध नहीं, केवल शरीर की ‘संभावनाओं’ को भुनाया जाता है और यही वह खतरनाक मोड़ है, जहाँ एक समाज अपने नैतिक संतुलन को खो देता है।

‘हाउस अरेस्ट’ जैसे कार्यक्रम केवल क्षणिक उत्तेजना का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक आदर्शों को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। नारी को केवल दृश्य माध्यम का उपकरण बना देना, उसके अस्तित्व को ‘कंटेंट’ में सीमित कर देना, वह भी स्वयं की स्वीकृति के साथ ये वह चुप्पी है जो आने वाले समय में सामाजिक विस्फोट का कारण बन सकती है। विडंबना यह है कि इसे ‘बोल्डनेस’, ‘ओपन माइंडेडनेस’ और ‘फ्रैंकनेस’ जैसे शब्दों की चमकदार चादर में लपेट दिया गया है और अगर कोई प्रश्न करे, तो वह ‘पिछड़ा’, ‘रूढ़िवादी’ या ‘मॉरल पुलिस’ करार दिया जाता है। लेकिन क्या सभ्यता इतनी उन्नत हो चुकी है कि अब विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाना अपराध हो गया है? ‘हाउस अरेस्ट’ केवल एक मंच नहीं, यह एक समाजशास्त्रीय चेतावनी है जो एक संकेत है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं। आने वाली पीढ़ी अगर इन दृश्यों में ‘टास्क’ देखती है और सम्मान, संबंध, मर्यादा जैसे शब्द उसे बेमानी लगने लगते हैं, तो फिर यह नासमझी नहीं, हमारी चूक है। यहाँ सवाल केवल किसी एक शो का नहीं है, बल्कि उस सोच का है जो इसे जन्म देती है, बढ़ावा देती है और उसे सामान्य मानने लगती है। जब सरकारें केवल ‘आत्म-नियमन’ की बात करती हैं और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स व्यावसायिक लाभ के लिए किसी भी सीमा को लांघते हैं, तब मूल्यों का अपमान भी एक व्यापारिक रणनीति बन जाता है।

‘हाउस अरेस्ट’ जैसे कार्यक्रम यह बताते हैं कि मनोरंजन के नाम पर समाज किस गहराई तक गिर सकता है। यह केवल एक शो नहीं है, यह उस सोच का प्रतिनिधि है, जो स्त्री को उत्पाद, पुरुष को उपभोक्ता, और संस्कृति को वस्त्रहीन कल्पना मानती है। हमें अब यह तय करना होगा कि हम अपने बच्चों को कैसी दुनिया सौंपना चाहते हैं। आज आवश्यकता है एक गहरी, समवेत चर्चा की जो केवल सेंसरशिप की नहीं, बल्कि सामाजिक जवाबदेही की बात करे। ‘स्वतंत्रता’ का अर्थ अगर विवेकहीनता है, तो फिर वह स्वतंत्रता नहीं, सामाजिक अराजकता है। हमें तय करना होगा कि क्या हम उस दिशा में जा रहे हैं, जहाँ मनोरंजन का मतलब केवल उत्तेजना रह जाएगा? यदि हम अब भी नहीं चेतें, तो आने वाले समय में हमें अपनी ही पीढ़ी के सामने यह उत्तर देना होगा कि हमने उन्हें सोचने, समझने और सृजन करने की जगह केवल देखने, भोगने और ताली बजाने की आदत क्यों डाली?