
- दहेज़ लेने वालो के मुंह पे थूकने से फुर्सत मिल गई हो तो
- थोड़ा एकलौता मालदार लड़का ढूंढने वालो के मुंह पे भी थूक दो। यह दोहरी सोच ही हमारे समाज का असली चेहरा है, जहां दहेज का विरोध सिर्फ भाषणों तक सीमित है, पर बेटियों की शादी में बड़ा बैंक बैलेंस और सरकारी नौकरी ही मापदंड बन जाते हैं। अगर बदलाव सच में चाहिए, तो यह दोहरापन भी मिटाना होगा। शादी रिश्तों का बंधन है, सौदेबाजी का खेल नहीं। सिर्फ दिखावा छोड़ो, सोच बदलो।
- सिर्फ नारे नहीं, असल बदलाव चाहिए।
डॉ सत्यवान सौरभ
भारत में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो आज भी गहरे तक जड़ें जमाए हुए है। दहेज लेना न सिर्फ एक अपराध है, बल्कि यह उस महिला के सम्मान का अपमान है जिसे एक बेटी, पत्नी और बहू के रूप में समाज में उच्च स्थान दिया जाता है। परंतु, यह प्रथा केवल पुरुषों के लालच तक सीमित नहीं है, बल्कि कई बार इसे बढ़ावा देने में खुद परिवार और समाज की सोच भी शामिल होती है।
दहेज के विरोध में बोलना एक बात है और अपने घर की बेटियों के लिए एकलौता मालदार दूल्हा ढूंढना दूसरी। यह विरोधाभास हमारी मानसिकता की गहरी खाई को उजागर करता है। हम एक ओर दहेज का विरोध करते हैं, पोस्ट लिखते हैं, नारे लगाते हैं, और दूसरी ओर जब अपनी बेटियों की शादी की बात आती है, तो संपन्न परिवार और मोटी तनख्वाह वाले लड़के की खोज में जुट जाते हैं। यह दोहरी सोच एक ऐसी सामाजिक बीमारी है जो हमें अपने मूल्यों से दूर कर रही है।
यह मानसिकता केवल दहेज तक सीमित नहीं है। यह हमारी सोच का एक व्यापक हिस्सा है जो समाज के हर पहलू में दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी लड़की के लिए लड़का देखते हैं, तो हम उसकी शिक्षा, विचारधारा, और चरित्र से अधिक उसकी आर्थिक स्थिति को महत्व देते हैं। यह सोच न केवल लड़कियों को वस्तु की तरह पेश करती है, बल्कि लड़कों पर भी आर्थिक दबाव डालती है कि वे एक ‘आदर्श वर’ बनने के लिए अपने कैरियर और कमाई पर अधिक ध्यान दें।
इस सोच का सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिलता है जब शादी के विज्ञापनों में ‘अच्छे परिवार’, ‘सरकारी नौकरी’, और ‘खूब कमाने वाले लड़के’ की मांग की जाती है। यह केवल एक आर्थिक सुरक्षा की मांग नहीं है, बल्कि एक गहरी मानसिकता का परिचायक है, जो यह मानती है कि लड़की को खुश रखने के लिए धन ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह न केवल विवाह को एक व्यापार बना देता है, बल्कि एक सच्चे रिश्ते की नींव को भी कमजोर करता है।
ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि क्या हम सच में इतने असुरक्षित हैं कि हमें अपनी बेटियों की खुशियों के लिए एक मात्र आर्थिक स्थिरता की जरूरत है? क्या हमें यह समझने में अब भी देरी है कि एक अच्छे इंसान का मोल उसके चरित्र, विचार और व्यवहार से आंका जाना चाहिए, न कि उसकी जेब की गहराई से?
इस मानसिकता से बाहर निकलना जरूरी है। यह तब ही संभव है जब हम अपने बेटों को यह सिखाएं कि उनकी कीमत उनके चरित्र से है, न कि उनके वेतन से। हमें अपनी बेटियों को यह सिखाना होगा कि उनका मूल्य उनकी खुद की पहचान से है, न कि किसी के नाम के साथ जुड़ने से।
इसके लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। हमें अपने समाज में इस दोहरे मापदंड को समाप्त करना होगा और ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना होगा जो सच्चे अर्थों में समानता और सम्मान का अर्थ समझे।
हमारे समाज में दहेज की परंपरा का इतना गहरा प्रभाव है कि लोग इसे सम्मान का प्रतीक मानते हैं। कई बार तो इसे शान और प्रतिष्ठा की बात समझा जाता है, और जो इसे नहीं मानता, उसे समाज में कमतर माना जाता है। यह सोच केवल बेटियों को नहीं, बल्कि पूरे समाज को कमजोर करती है। यह परिवारों को कर्ज में डुबोती है, रिश्तों में दरारें डालती है और समाज की नींव को हिला देती है।
दहेज के खिलाफ लड़ाई तब ही सफल होगी जब हम इस समस्या को केवल कानून से नहीं, बल्कि अपनी मानसिकता से भी मिटाएंगे। हमें ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहां लड़कियों की शिक्षा, आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।
इसके अलावा, हमें अपने बेटों को यह सिखाना होगा कि वे अपने जीवनसाथी का चयन केवल उनकी योग्यता, चरित्र और विचारधारा के आधार पर करें, न कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति को देख कर। यह बदलाव केवल एक व्यक्ति की सोच से नहीं, बल्कि पूरे समाज की सोच में बदलाव लाने से संभव है।
समय आ गया है कि हम दहेज की इस बिमारी को जड़ से उखाड़ फेंके और एक ऐसे समाज की नींव रखें जहां विवाह एक समान और सम्मानजनक बंधन हो, न कि आर्थिक सौदेबाजी का माध्यम। हमें यह समझना होगा कि शादी एक पवित्र संबंध है, न कि व्यापार।
सिर्फ कानून बनाना ही काफी नहीं है। हमें अपने विचारों, परंपराओं और सोच में बदलाव लाना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे घरों में बेटियों और बेटों को समान रूप से महत्व दिया जाए। हमें अपने बेटों को यह सिखाना होगा कि वे अपने जीवनसाथी का सम्मान करें, उन्हें एक समान साथी मानें, न कि एक वस्तु के रूप में।
सच्चे बदलाव की शुरुआत हमारे घरों से होनी चाहिए। जब हम अपने बेटों को यह सिखाएंगे कि वे किसी के साथ सिर्फ उसके चरित्र और विचारधारा के आधार पर जुड़ें, तभी समाज से दहेज की इस बुराई को मिटाया जा सकेगा। हमें यह याद रखना चाहिए कि बेटियां किसी के लिए बोझ नहीं, बल्कि एक आशीर्वाद हैं।