सेना की वर्दी पर राजनीति की छींटाकशी!

Politics taunting the army uniform!

सोनम लववंशी

सियासत अब बयानबाज़ी की रस्साकशी में उलझी वह बेतुकी नुमाइश बन गई है, जहाँ तर्क, गरिमा और शालीनता का वध सार्वजनिक मंचों पर खुलेआम होता है और तालियाँ बजती हैं, जैसे कोई हास्य का प्रहसन चल रहा हो। मध्यप्रदेश सरकार में जनजातीय कार्य मंत्री एवं भोपाल गैस त्रासदी व लोक परिसंपत्ति मंत्री विजय शाह ने हाल ही में महू में ऐसा ही एक ‘राजनीतिक तमाशा’ पेश किया जिसमें न सेना की गरिमा बची, न महिलाओं की मर्यादा, न संविधान की आत्मा। उन्होंने मंच से गरजते हुए कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकियों को जवाब देने के लिए “उनकी बहन” को भेजा। ज़रा रुकिए, सोचिए, यह मंत्री हैं। यह वही मंत्रालय है, जहाँ से हमें उम्मीद होती है कि आदिवासी समाज के संवेदनशील मुद्दों पर शालीन, जागरूक और विचारशील नेतृत्व मिलेगा। लेकिन जब वही कुर्सी किसी ‘जुबानी जिहाद’ के योद्धा के हवाले हो जाए, तो मंत्रालय की गरिमा भी बयानबाज़ी की भेंट चढ़ जाती है। बयान सुनकर पहले तो लगा कि शायद मंत्रीजी ने किसी फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ ली है, लेकिन फिर समझ आया कि यह तो राष्ट्रवाद का नया संस्करण है, जिसमें बहादुर महिला सैन्य अधिकारी को भी लिंग के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। क्या सेना की कोई महिला अधिकारी अब एक ‘प्रतिशोध की बहन’ बनकर परोसी जाएगी? क्या उसका पराक्रम, उसकी वर्दी, उसका प्रशिक्षण सब केवल इसीलिए था कि उसे एक पुरुषवादी राजनीतिक कल्पना का औज़ार बना दिया जाए? यह बयान न सिर्फ अशालीन है, बल्कि सैन्य मर्यादाओं का मखौल उड़ाने वाला भी है। क्या मंत्रीजी को यह ज्ञान है कि सेना का हर अभियान गोपनीय रणनीति, अनुशासन और प्रशिक्षण की उपज होता है, न कि घरेलू झगड़े की तरह “किसकी बहन किसके घर गई” वाले मौहल्ले के विमर्श पर आधारित? और यदि उनकी भाषा इतनी ही ‘वीर रस’ में डूबी हुई है, तो उन्हें संस्कृति मंत्री क्यों नहीं बना दिया जाता, जहाँ वे महाभारत और रामायण की पुनर्रचना कर सकें?

इस देश में नारी को देवी का रूप कहा जाता है, लेकिन जब वही महिला किसी पद या शक्ति की भूमिका में आती है, तो उसके अस्तित्व को भी उसके लिंग से जोड़कर ही परिभाषित किया जाता है। विजय शाह का बयान इस विकृति की जीवंत मिसाल है। उन्होंने सेना की महिला अधिकारी को न सिर्फ ‘किसी की बहन’ कहा, बल्कि उसे ‘यौनिक प्रतीक’ के तौर पर इस्तेमाल किया, जिससे बदला लिया गया। यह सिर्फ अश्लीलता नहीं, यह वैचारिक दरिद्रता है। और सबसे विडंबनापूर्ण बात यह है कि यह सब उस व्यक्ति ने कहा है जो राज्य सरकार का एक जिम्मेदार मंत्री है। लेकिन असली सवाल सिर्फ मंत्री की जुबान का नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था का है जो ऐसी जुबानों को बढ़ावा देती है। ऐसे वक्तव्यों पर पार्टी की ओर से कोई सार्वजनिक आलोचना नहीं होती। कोई नेता मंच से यह नहीं कहता कि “शब्द वापस लो, यह मर्यादा नहीं।” क्या यह चुप्पी संकेत है कि ये विचार पार्टी के भीतर स्वीकार्य हैं? या फिर हम अब उस दौर में आ गए हैं जहाँ विचारधारा की लड़ाई नहीं, बयानबाज़ी की प्रतियोगिता चल रही है?

सोचिए, कर्नल सोफिया जैसी अधिकारी जिन्होंने अपनी काबिलियत से सेना में स्थान पाया, अब एक राजनीतिक बयान में सिर्फ किसी की बहन बनकर रह जाएँ, तो क्या यह उस ‘न्यू इंडिया’ का चेहरा है जिसे हम गर्व से देखते हैं? क्या स्त्री सशक्तिकरण अब केवल नारे बनकर रह जाएंगे, और मंच पर ‘नग्न प्रतिशोध’ के कल्पना-चित्रों से जनता का मनोरंजन होगा? राजनीति अब विचारों की लड़ाई नहीं रही। अब यह शब्दों की तलवारबाज़ी बन गई है, जिसमें जितनी भड़काऊ भाषा, उतनी तालियाँ। विजय शाह ने कोई चूक नहीं की उन्होंने पूरी तैयारी से बोला। और उनके शब्द सिर्फ उन्हें नहीं, पूरी व्यवस्था को बेनकाब करते हैं। बयानबाज़ी का यह खेल लोकतंत्र को धीरे-धीरे एक हास्य-व्यंग्य में बदल रहा है, जहाँ हर गंभीर बात भी तमाशा बनकर रह जाती है। जब नेतृत्व भाषा की गरिमा नहीं संभाल सकता, तब जनता को खुद तय करना होगा कि वोट ‘बयान वीरों’ को देना है या ज़िम्मेदार प्रतिनिधियों को। नहीं तो आने वाले कल में शायद संसद भी किसी स्टैंडअप कॉमेडी शो का विस्तार लगने लगे। और तब हमें कोई बताएगा कि हमने ‘उनकी बहन’ से बदला लिया मगर यह नहीं बताएगा कि हमारी चेतना कब की मारी जा चुकी है।