
अजय कुमार
भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा मौलिक अधिकार है, जो नेताओं को अपनी बात कहने का अवसर देता है। लेकिन जब यही स्वतंत्रता जिम्मेदारी से अलग होकर घमंड, असंवेदनशीलता और तुच्छ राजनीतिक लाभ का औजार बन जाए, तब यह न केवल लोकतंत्र की आत्मा को घायल करती है, बल्कि देश की एकता और संस्थानों की गरिमा पर भी प्रहार करती है। हाल के दिनों में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसे ही बयान सामने आए हैं, जो न केवल राजनीतिक मर्यादा की सीमा लांघते हैं, बल्कि उन संस्थाओं को भी घसीट लाते हैं, जिन्हें राजनीति से ऊपर माना जाता है खासकर देश की सेना।
मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार के वरिष्ठ मंत्री विजय शाह ने एक चुनावी सभा में सेना की महिला अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर जिस तरह की टिप्पणी की, वह शर्मनाक ही नहीं, बल्कि निंदनीय भी है। उन्होंने सेना में सेवा दे रहीं एक सम्मानित अधिकारी को आतंकवादी की बहन कह डाला। यह शब्द महज राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का परिणाम नहीं था, बल्कि यह उस मानसिकता का परिचायक था, जिसमें सत्ता की ललक नैतिकता को कुचल देती है। सोफिया कुरैशी, जिन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय सैन्य अभियानों में भारत का नेतृत्व किया है, उनके लिए इस तरह के शब्द एक पूरे सैन्य समुदाय के मनोबल पर कुठाराघात हैं। यह केवल एक अफसर नहीं, बल्कि उस महिला की भी बेइज्जती है, जो भारत की सीमाओं की सुरक्षा में दिन-रात तैनात है।
इस बयान के बाद देशभर में आक्रोश की लहर दौड़ गई। सोशल मीडिया पर लोगों ने मंत्री को बर्खास्त करने की मांग उठाई। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने इसे भाजपा की सोच करार देते हुए पूरे प्रकरण पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर भी सवाल खड़े किए। वहीं, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को भी कटघरे में खड़ा किया गया कि क्या वे अपनी कैबिनेट के मंत्री की इस स्तरहीन भाषा से सहमत हैं? लेकिन इससे भी अधिक गंभीर बात यह थी कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से इस बयान पर कोई ठोस कार्यवाही देखने को नहीं मिली। बयानबाजी की राजनीति में मानवीय गरिमा, संस्थागत सम्मान और संवैधानिक मर्यादा को ताक पर रख देना आज के समय की सबसे बड़ी राजनीतिक त्रासदी बन चुकी है।
इसी बीच एक और विवाद खड़ा हुआ जब मध्य प्रदेश के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने एक सभा में यह कह दिया कि “पूरा देश और सेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक है।” यह कथन न केवल अतिशयोक्ति से भरा हुआ था, बल्कि यह सीधे-सीधे भारतीय सेना की स्वायत्तता और गरिमा पर हमला था। सेना एक संवैधानिक संस्था है, जो न किसी दल की है, न किसी व्यक्ति की। वह केवल राष्ट्र की है। उसका समर्पण संविधान, राष्ट्र और उसकी अखंडता के प्रति है किसी नेता या सरकार के प्रति नहीं। इस तरह की तुलना, जिसमें सेना को एक राजनीतिक व्यक्तित्व के अधीन बताया जाता है, गहरी चिंता का विषय है। विपक्ष ने इस पर भी तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि भाजपा अपनी ‘व्यक्ति पूजा’ की राजनीति में सेना जैसे पवित्र संस्थान को भी लपेटने से नहीं चूकती।
उत्तर प्रदेश में भी राजनीतिक बयानबाजी ने नई हदें पार कीं जब समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव ने भारतीय वायुसेना की विंग कमांडर व्योमिका सिंह के लिए जातिसूचक टिप्पणी की। उन्होंने सार्वजनिक मंच से उन्हें “चमार” कहकर संबोधित किया। यह टिप्पणी न केवल अभद्र और अपमानजनक थी, बल्कि यह सामाजिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न करने वाली थी। एक तरफ तो दलित समुदाय को सम्मान देने की बात होती है, दूसरी ओर जब एक महिला अधिकारी जिसने अपनी मेहनत, योग्यता और साहस के दम पर एक अहम पद हासिल किया है को केवल उसकी जाति के आधार पर संबोधित किया जाता है, तो यह जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका प्रमाण बन जाता है।
इस बयान ने समाज के भीतर जातिगत द्वंद्व को फिर से सतह पर ला खड़ा किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे सेना और समाज दोनों का अपमान करार दिया। भाजपा के कई अन्य नेताओं ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। वहीं, रामगोपाल यादव ने बाद में सफाई दी कि उन्होंने ऐसा किसी दुर्भावना से नहीं कहा, लेकिन सवाल फिर वही उठता है क्या इतने वरिष्ठ नेता को यह नहीं पता कि सार्वजनिक मंच से जातिसूचक शब्द कहना सामाजिक और संवैधानिक दोनों स्तरों पर अपराध है? क्या राजनीति की भाषा इतनी असंवेदनशील हो चुकी है कि उसमें न महिला सम्मान बचा है, न जातीय समरसता और न ही संस्थागत मर्यादा?
इन तीनों घटनाओं में एक बात समान है नेताओं की गैर जिम्मेदाराना भाषा, सस्ती लोकप्रियता की भूख, और संवैधानिक संस्थाओं का बार-बार अपमान। यह स्थिति केवल एक दल विशेष की नहीं, बल्कि आज की संपूर्ण राजनीति का दर्पण बन गई है। सेना, जो हमेशा राजनीतिक टकरावों से दूर रही है, उसे भी आज बयानबाजी की जंग में खींचा जा रहा है। यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या है, बल्कि यह उस राष्ट्र भावना का भी क्षरण है, जिस पर भारत की पहचान टिकी हुई है।
यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल अपने नेताओं को केवल चुनाव जिताने वाली मशीनें न समझें, बल्कि उन्हें संवैधानिक जिम्मेदारी, भाषा की मर्यादा और सामाजिक संतुलन का पाठ पढ़ाएं। चुनाव आयोग को भी ऐसे बयानों पर स्वतः संज्ञान लेते हुए कठोर निर्देश और दंड का प्रावधान करना चाहिए ताकि यह संदेश स्पष्ट हो जाए कि कोई भी व्यक्ति संविधान से ऊपर नहीं है। मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, उसे भी चाहिए कि वह टीआरपी की दौड़ में इन बयानों को सनसनी की तरह परोसने के बजाय इन पर सार्थक बहस करे और जवाबदेही तय करने में भूमिका निभाए।
जनता को भी अब यह तय करना होगा कि वह किन नेताओं को मंच दे रही है। क्या वे ऐसे लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेज रही है जो सेना का अपमान करते हैं, महिलाओं को नीचा दिखाते हैं और जातिगत जहर फैलाते हैं? या फिर वे उन नेताओं को चुन रही है जो राष्ट्रहित, संविधान और सामाजिक समरसता को सर्वोपरि मानते हैं? क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत वोट होती है और यदि वोट देने वाला जागरूक है, तो कोई भी नेता देश की गरिमा से खिलवाड़ करने की हिम्मत नहीं कर सकता।
इसलिए, अब समय आ गया है कि देश के राजनीतिक विमर्श में मर्यादा, नैतिकता और उत्तरदायित्व फिर से स्थापित किया जाए। सेना को सेना रहने दिया जाए, राजनीति को राजनीति, और समाज को इंसानियत का आईना। यदि यह संतुलन नहीं बना, तो बयानबाजियों का यह ज़हर धीरे-धीरे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर देगा और तब उसका इलाज किसी कोर्ट, आयोग या मीडिया के पास नहीं होगा।