दीपक कुमार त्यागी
देश की आंतरिक सुरक्षा को बेहतर बनाए रखने और उससे जुड़े हुए विभिन्न मामलों के निस्तारण के उद्देश्य से वर्ष 1971 में भारतीय संसद के द्वारा एक कानून ‘मैंनेटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा)’ को पारित किया गया था। उस वक्त इस कानून के माध्यम से देश में कानून व्यवस्था को बनाये रखने वाली विभिन्न छोटी व बड़ी संस्थाओं को बहुत ही ज्यादा अधिकार दे दिये गये थे। हालांकि कुछ वर्ष बाद ही मीसा कानून के तहत प्राप्त अधिकारों का देश में राजनीतिक विरोधियों के दमन के लिए तत्कालीन सरकार व सिस्टम के द्वारा जमकर दुरुपयोग किया गया था, जिस पर उस समय देश में जमकर हंगामा बरपा था। यहां आपको याद दिला दें कि वर्ष 1971 में जब ‘आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा)’ कानून पारित हुआ था, तो उसके कुछ वर्षों के पश्चात ही हमारे देश में छात्रों व युवाओं के एक विशाल आंदोलन की नींव रखने का कार्य 18 मार्च 1974 को पटना में हुआ था, जो कि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना में एक गैर राजनीतिक छात्र आंदोलन की एक शुरूआत थी, हालांकि बहुत कम समय में ही यह आंदोलन देश भर में फैल गया और जेपी आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। तत्कालीन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन के चलते ही हमारे देश को लोकतंत्र का सबसे काला समय यानी की ‘आपातकाल’ का सामना करना पड़ा था। देश में जेपी आंदोलन के तेजी से बढ़ते प्रभाव की वजह से ही उस वक्त सत्ता में बैठे लोगों ने भयग्रस्त होकर के देश में आपातकाल लगवाने के बारे सोचा, जिसके परिणामस्वरूप 25 जून 1975 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल लगाने की घोषणा कर दी थी।
*”वैसे तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 में देश में विशेष परिस्थितियों के चलते राष्ट्रीय आपातकाल लगाने का प्रावधान मौजूद है। यह देश की सुरक्षा को सुनिश्चित रखने के उद्देश्य के लिए युद्ध, देश पर बाहरी आक्रमण या हथियारों के दम पर विद्रोह के समय राष्ट्रपति द्वारा लगाया जाता है। जिसको हमारे संविधान में ‘आपातकाल की उद्घोषणा’ के रूप में दर्शाया गया है। हालांकि
जब युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार पर देश में आपातकाल की घोषणा की जाती है, तो इस प्रकार के आपातकाल को ‘बाहरी आपातकाल’ के रूप में जाना जाता है और जब इसे देश के अंदर हथियार के दम पर विद्रोह की स्थिति में घोषित किया जाता है तो इसे ‘आंतरिक आपातकाल’ के रूप में जाना जाता है। वैसे देश में राष्ट्रीय आपातकाल अब तक तीन बार घोषित किया जा चुका है, वर्ष 1962, वर्ष 1971 व वर्ष 1975 में आपातकाल लगाया गया था। जिसमें की वर्ष 1962 और वर्ष 1971 में युद्ध की स्थिति में बाहरी आपातकाल लगाया गया था, जबकि वर्ष 1975 में आंतरिक आपातकाल लगाया गया था। आपातकाल को देश के आंशिक भाग में भी लगाने का प्रावधान है”*
लेकिन देश में 25 जून 1975 को घोषित आपातकाल लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बड़े ख़तरे के एक भयावह अध्याय के रूप मे इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया है। देश में यह कालखंड 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की लंबी अवधि का है, जो अपने हर प्रकार के विरोधियों के दमन करने की नीतियों व मंशा के साथ जारी रहा था। इस कालखंड को स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश का सबसे विवादस्पद दौर माना जाता है। इस भयावह दौर को भारतीय राजनीति के इतिहास का एक काला अध्याय भी कहा जाता है। क्योंकि जैसे ही 25 जून 1975 की आधी रात को लोकतांत्रिक व्यवस्था को मानने वाले देश में जब आपातकाल की घोषणा की गई थी, तब ही संविधान के द्वारा प्राप्त होने वाले देशवासियों के सभी प्रकार के मौलिक अधिकार सरकार के द्वारा निलंबित कर दिए गए थे। आम व खास सभी लोगों से अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार पूर्णतः छीन लिए गए थे, धरातल पर बन रहे हालात देखकर ऐसा लगता था कि अब लोगों के जीवन जीने के अधिकार पर भी उसका कोई हक नहीं रह गया है। इस दौरान सिस्टम के द्वारा सत्ताधारी राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए एक लाख से अधिक लोगों को विवादास्पद कानून ‘मीसा’ के तहत बंदी बनाकर जेल की सलाखों के पीछे नजरबंद रखने का कार्य किया गया था, जो कि सिस्टम में बैठे चंद लोगों के द्वारा देश में नियम कायदे कानूनों को ठेंगा दिखाकर राजनेताओं की कठपुतली बनकर नाचने की एक सबसे बड़ी नज़ीर बन गया है। आज भी लोगों के द्वारा ऐसा माना जाता है कि उस वक्त की सरकार ने अपने गुप्त एजेंडे व राजनीतिक विरोधियों के सफाए के लिए आपातकाल के दौरान मीसा जैसे कानून के माध्यम से दमनकारी नीतियों से सिस्टम को परिपूर्ण करके, सरकार व सिस्टम में बैठे हुए चंद ताकतवर लोगों ने हर हाल में अपने सत्ताधारी शीर्ष राजनीतिक आकाओं के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही आपातकाल के वर्ष 1975 से वर्ष 1977 तक के भयावह कालखंड में मीसा जैसे कानून में कई महत्वपूर्ण संशोधन करने का कार्य किया था। कानून में इन संशोधनों के दम पर ही देश में आपातकाल के कालखंड में सत्ता पक्ष ने अपने विरोधी लोगों के दमन के लिए इस मीसा कानून का उपयोग बड़े पैमाने पर करने का कार्य किया था। इस मीसा कानून के तहत देश में सत्ता पक्ष के विरोध में उठने वाली प्रत्येक आवाज को चुप कराने का प्रयास किया गया था। हालांकि उस दौरान कुछ लोगों को ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स,1971)’ के तहत डीआईआर बंदी के रूप में भी जेलों में रखा गया था। लेकिन उस वक्त फिर भी आवाज उठाने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के बहुत सारे छोटे व बड़े राजनेताओं, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व आम लोगों को पुलिस के द्वारा मीसा कानून के तहत जेलों में नजरबंद करके उन पर जमकर अत्याचार किया गया था। जिसके चलते भारतीय संसद द्वारा पारित एक कानून मीसा देश व दुनिया में एक बेहद चर्चित और विवादास्पद कानून बन गया था।
*”आज भी जब लोग किसी व्यक्ति के मुख से यह सुनते हैं कि वह मीसाबंदी रहे हैं, तो लोगों के मन में आपातकाल व मीसा कानून के बारे में जानने की बहुत ही ज्यादा उत्सुकता पैदा हो जाती है। लोग जानना चाहते हैं कि उस वक्त सरकार ने मीसाबंदियों पर कैसे-कैसे अत्याचार करके उनकी आवाज को दबाने व कुचलने का प्रयास किया था। हालांकि बाद में मीसाबंदी रहे अधिकांश छोटे-बड़े राजनेताओं ने किसी ना किसी स्तर पर सत्ता में भागीदारी अवश्य की है, देश में मीसाबंदी वाले कुछ राजनेता तो सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पर पहुंचने में भी सफल रहे हैं।”*
आपातकाल में इंदिरा गांधी के रवैए के खिलाफ आवाज उठाने वालों में दिग्गजों में जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण देश में एक सर्वमान्य प्रमुख नेता बनकर उभरे थे। इसके अलावा उस कालखंड में राज नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, ताऊ देवीलाल, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, नानाजी देशमुख, के.आर. मलकानी, पीलू मोदी, भैरों सिंह शेखावत, बीजू पटनायक, जयपुर राजघराने की राजमाता गायत्री देवी, ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयराजे सिंधिया, एच डी देवेगौड़ा, रामकृष्ण हेगड़े, अरुण जेटली, राम विलास पासवान, डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं ने भारतीय राजनीति में अपना एक अहम स्थान बनाते हुए समय-समय पर कांग्रेस को सत्ता से हटाने का कार्य किया था। लालू यादव ने तो अपनी पुत्री का नाम ही मीसा रख दिया था, जो आज स्वयं राजनीति में हैं। आज भी आपातकाल के यह नायक कांग्रेस को सत्ता से दूर करने के इस कार्य को लगातार अंजाम दे रहे हैं, केंद्र की नरेंद्र मोदी की सरकार हाल में इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वैसे दशकों का समय बीतने के बाद भी आज के समय में भी देश में आपातकाल व मीसा कानून पर जब चाहे तब बहस छिड़ जाती है। देश के अधिकांश कानून व राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आपातकाल व मीसा कानून के दुरुपयोग के दंश को कांग्रेस पार्टी आज तक भी धरातल पर एक बड़े विरोध के रूप में झेल रही है। आपातकाल का यह कालखंड तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा देश में अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज को दबाने के प्रयास के रूप में इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। आपातकाल के कालखंड में दमनकारी नीतियां तत्कालीन सरकार की एक सबसे बड़ी भूल थी, जिसका खामियाजा कांग्रेस पार्टी को आज तक भी भुगतना पड़ रहा है, हालांकि बाद में देश में हुए लोकसभा के आम चुनावों में आम जनता ने आपदाकाल में उत्पन्न आक्रोश के चलते ही इंदिरा गांधी सरकार को सत्ता से बेदखल करते हुए स्वयं इंदिरा गांधी को भी चुनावों में हराने का कार्य कर दिया था। वैसे भी जन भावनाओं के मुताबिक यह माना जाता है कि आपातकाल के कालखंड में मीसा कानून का उपयोग करना, आजाद भारत में सबसे कुख्यात व दमनकारी कानून के इस्तेमाल का अभी तक भी सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसके अन्तर्गत लोगों की सरकार के खिलाफ उठ रही आवाजों को दबाने के लिए एक लाख से अधिक लोगों को जेल की सलाखों के पीछे कैद कर दिया गया था। लेकिन आज के दौर में सभी देशभक्त देशवासी चाहते हैं कि देश में फिर कभी आपातकाल जैसे हालात ना बने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर फिर कभी ऐसा सख्त कानून बनाकर पहरा ना लगाया जाये और देश में फिर कभी मीसा जैसे कानून बनाकर अलोकतांत्रिक ढंग से आम जनमानस व राजनेताओं का दमन किया जाये।