समीक्षा-महेंद्र अग्रवाल की गजल यात्रा में नई गजलें

Review- New ghazals in the ghazal journey of Mahendra Agrawal

प्रमोद भार्गव

गजलों के नौ संग्रह दे चुके महेंद्र अग्रवाल का नया गजल संकलन है ‘महेंद्र अग्रवाल की नई गजलें।‘ महेंद्र एक सशक्त एवं सिद्धहस्त गजलकार के रूप में न केवल अपनी देशव्यापी पहचान बना चुके हैं, अपितु गजल की जमीन पर स्थापित भी हो चुके हैं। गजल सृजन के इस प्रतिस्पर्धा क्षेत्र में वे प्रतिष्ठा के शिखर पर इसलिए पहुंच गए, क्योंकि उनकी गजलों में निम्न और मध्यमवर्गीय व्यक्ति की पीड़ा के साथ पारिवारिक मूल्यों की वह प्रस्तुति भी है, जो सामाजिक विसंगतियों को सहजता से उजागर करते हुए उनकी महिमा और जरूरत को भी रेखांकित करती है। अतएव किसी भी वैचारिक पूर्वाग्रह से मुक्त उनकी निगाह वहां तक जाती है, जहां से सामाजिक जटिलताओं पर गहन दृष्टिपात संभव हो पाता है।

गजल में भाव, लय और तरंग पर सवार उष्मा बनाए रखने की दृष्टि से भाषाई सौष्ठव और कलात्मक गठन अत्यंत आवश्यक है, इस परिप्रेक्ष्य में महेंद्र कोई शब्दाडंबर रचने की बजाय सरल और सहज शब्दों में अपनी रचना का ताना-बाना बुनते हैं और उसकी बोधगम्यता को निरंतर बनाए रखते हुए रचना को अर्थवान बनाते हैं। कोई रचना किसी भी विधा में रची गई हो, वह अर्थवान तभी होती है, जब मानवीय संवेदना का भाव अंतर्निहित रहता है या उसमें परिलक्षित होता है। परख की इस कसौटी पर भी ये गजलें खरी उतरती हैं। तत्पश्चात वे एक प्रयोगधर्मी गजलकार भी हैं। प्रयोग तभी संभव है, जब कोई रचनाकर्मी प्रचलित परंपरा के विरुद्ध अपनी रचना में शिल्पगत परिवर्तन लाने का जोखिम उठाता है। इसके खतरे को उठाने का साहस भी इस संकलन की रचनाओं में स्पष्ट रूप में दिखाई देता है।

बीते दस-बारह वर्षों में राजनीतिक परिदृश्य बदलने के कारण साहित्यक परिदृश्य भी बदला है। अतएव गूढ़ साहित्यक रचनाओं में भारत बोध के संदर्भ में सनातन बोध के आख्यान भी रचे जाने लगे हैं। वह सनातन बोध के माध्यम से कहा जाने वाला राष्ट्र बोध ही था, जिसने मानवता का दम घोंटती इस्लामी सत्ता में नवजागरण का काम किया। भक्तिकालीन कवियों ने इस नवप्रवर्तन की नींव रखी और अंग्रेजी सत्ता के दौरान इस जागृति के अभियान ने इन आख्यानों में वर्तमान संदर्भ को जोड़ते हुए इन्हें राष्ट्रगान तो बनाया ही, सत्ता परिवर्तन का मंत्र भी बना दिया। परिणामतः बंगाल में जहां बंकिमचंद्र ‘वंदे मातरम‘ और टैगोर ‘जन-गण-मन‘ रचकर स्वतंत्रता का अलख जगा रहे थे, वहीं दक्षिण में तमिल के महाकवि सुब्रमण्य भारती स्वतंत्रता के आंदोलन के अग्रदूत बनकर राष्ट्रवाद की ओजस्वी भावना को व्यापकता दे रहे थे। इस राष्ट्रीय वैचारिकता को मार्क्सवादी वामपंथियों ने प्रतिक्रियावादी कहकर नकारने की निर्लज्ज कोशिशें कीं, लेकिन अब देखने में आ रहा है कि भारतीय भावबोध की सनातनता से जुड़े पद्यकार नए बिंब और उपमाओं से ऐसी गजलों का सृजन कर रहे हैं, जो ऋृग्वैदिक मूल्यों की पुनर्स्थानापना का आधार बन रहे हैं,

निराकार हो या कि साकार ईश्वर,
हो कुछ भी, जगत का है आधार ईश्वर।
कहीं नाम कुछ है, कहीं रंग कुछ है,
कबीले हों कितने ही सरदार ईश्वर।

गजल का शब्दिक अर्थ प्रेमियों के बीच प्रेम की चर्चा के रूप में लिया जाता है। दुष्यंत के पूर्व यही विषय प्रधान रहा है। हालांकि कुछ गजलकारों ने इसे देश प्रेम और भक्ति से जोड़कर सृजन किया। आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण पर भी कुठाराघात किया। किसी भी विधा का लेखन रहा हो पिछले एक दशक में उसमें बहुत बड़े बदलाव देखने में आ रहे हैं। वह परिवर्तन ही है, जो चीजों को सनातन रखता है। वे सनातन मूल्य और सरोकार ही हैं, जो पिछले एक दशक में साहित्य में प्रखरता से उभरे हैं। इन मूल्यों के समावेशन का उभार महेंद्र की गजलों में भी स्पष्ट रूप में दिखाई देता है। इस उभार में वसुधैव कुटुम्बकम का पुनीत भाव अंतर्निहित है। आज का विश्व ग्राम अर्थात ग्लोबलाइजेशन जहां उपभोक्ता खड़े करके पूंजी के व्यक्तिगत केंद्रीयकरण के रूप में सामने आया है, वहीं वसुधैव कुटुंबकम का सनातन संदेश समूची धरती को ही परिवार मानकर चलता है। ‘मां‘ की आंतरिक पुकार के माध्यम से महेंद्र ने यह संदेश कुछ इस ढंग से दिया है कि मात्र दो पंक्तियों में सांप्रदायिक सद्भाव मां की करुणा में फूटता दिखाई देता है..,

तुम सब मेरे दिल के टुकड़े खूनखराबा बंद करो
हिंदु मुस्लिम सिख ईसाई सबको समझाती मां।
इसी तरह पिता की वेदना को देखिए,
जीवन भर करते आए हैं पल-पल मेहनत बाबूजी,
तंगी में भी लाए खुशियां हर दिन बरकत बाबूजी।

वैश्वीकरण के पूर्व परिवार की धुरी ‘कुटुंब‘ हुआ करता था, लेकिन अमेरिकी अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के विचार की कुटिल चतुराई ने कुटुंब को परिवार की लघु इकाइयों में बदल दिया। ऐसे में कुटुंब की भीतरी ताकत बिखर गई। मुसीबत में कौटुम्बिक सहारा नहीं रहा। इस निराशा के भंवर की पीड़ा को सटीक व सार्थक अभिव्यक्ति कोई संवेदनशील कवि ही दे सकता है..,

घर के अंगन में पसर जाता है घर,
न रहे मुखिया तो मर जाता है घर।
भूख ढूंढेगी हजारों रास्ते
जिंदगी ये सोच डर जाता है घर।

इसी गजल का एक शेर हैं, यह सामाजिक आचरण का ऐसा मूल्यांकन है, जो यथार्थ की कसौटी पर समाज के भीतर प्रच्छन्न छाया के रूप में पसरा रहता है। घर पर जब आर्थिक बद्हाली छा जाती है, तब नकारात्मक सन्नाटे को महेंद्र की नजर कुछ यूं देखती है,

घर नहीं चल पाए जब घर की तरह
सबकी नजरों से उतर जाता है घर।

रचना किसी भी विधा की हो उसकी सार्थकता तब है, जब लेखक की चिंताएं सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित हों। इस परिप्रेक्ष्य में देखने में आ रहा है कि गजल रूमानियत और मोहब्बत की प्रचलित परिपाटी से मुक्त हो रही है। या फिर वे ऐसा प्रभाव नहीं छोड़ पा रही हैं, जो अंतर्मन की गहराइयों को छू लें। अतएव प्रेम संबंधी महेंद्र की गजलें भी इस उलझन के इर्द-गिर्द परिक्रमा करती दिखाई देती हैं,

दिल उलझन में है रातें दुश्वारी में
जीते रहते हैं यूं दुनियादारी में।
एक और गजल का शेर देखिए..,
ये जवां रात है, सपनों का सफर है, गम हैं,
जिंदगी जो भी मिला तुझसे लगा कम है।
एक अन्य गजल में अतीत के भंवर हैं,
मुहब्बतों की पुरानी कहावतें लेकर,
मैं जी रहा हूं, किताबों की चाहतें लेकर
जहन में ख्वाब उभरते हैं कई रंगों के
तुम्हारी शोखियां मीठी शरारतें लेकर।

किंतु महेंद्र की सामाजिक सरोकारों से जुड़ी चिंताएं कटाक्षपूर्ण होने के साथ, उस यथार्थ की प्रस्तुति हैं, जिसे आदमी एक जटिल त्रासदी के रूप में भोगने को विवश है। इस नाते न्यायालय में खड़े पक्षकार की चिंता अत्यंत व्यावहारिक है..,

खड़ा हुआ हूं कचहरी में कितने सालों से
किसी उम्मीद की जलती हुई चिता लेकर।

हम उपरोक्त संदर्भ में देख रहे हैं कि पीढ़ियां गुजर जाती हैं, लेकिन समय रहते न्याय की अट्टलिकाओं से न्याय नहीं मिलता। एक शेर में ऐसा ही कटाक्ष देखिए,

फैसला इजलास ने कैसा किया है
कह दिया कातिल को ही कातिल नहीं।

न्याय व्यवस्था पर इससे कठोर और क्या कटाक्ष हो सकता हैं ?

भारतीय समाज पर पाश्चात्य मूल्य जिस तरह से हावी हो रहे हैं, इस विषयक किसी अन्य देश का उदाहरण देना असंभव सा है। इस बाबत एक नया संकट यह है कि स्त्री कुछ ज्यादा ही मुखर, उन्मुक्त और उद्दण्ड दिखाई दे रही है। इस अमार्यादित आचरण को महेंद्र लघु बहर के माध्यम से अत्यंत सशक्त रूप में अभिव्यक्त करते हैं,

कपड़े तंग
खुलते अंग

लघु बहर की संरचना आसान नहीं होती, लेकिन जो शब्दों का खेल, खेलने में अभ्यस्त होते हैं, उनके लिए सीमित शब्दों में शेर कहना मुश्किल नहीं होता। बदलती पीढ़ियां किस तेजी से अप्रासंगिक हो रही हैं, इस बहर में अत्यंत संजीदगी से देख सकते हैं,

बच्चे कल के भी
समकालीन हुए।
पिछली पीढ़ी के
सब प्राचीन हुए।

बदलते नेतृत्व के प्रभाव में राजनीतिक प्रतिबद्धताएं कितनी आसानी से बदलती हैं, इस शेर में स्वार्थसिद्धि की यह स्थिति स्पष्ट है,

घर का झंडा बदल लिया समझा,
आ गया इंकलाब क्या करिये।

पर्यावरण की चिंता आज वैश्विक हो गई है। इन चिंताओं में प्रकृति के संरक्षण की चिंताएं, जितनी मुखर हैं कि उसी अनुपात में प्रकृति का दोहन बढ़ रहा है। कल जहां जंगल और पहाड़ थे, वहां आज अट्टलिकाएं हैं, जो आज शिखर को छूती हुई निर्लज्जता से प्रकृति के विनाश की कहानी कह रही हैं,

उठते रहे मकान पहाड़ां को चीरकर,
फिर से हों ये पहाड़ जरूरत भी आएगी।

बहरहाल, जैसा कि इस संग्रह के शीर्षक ‘डॉ महेंद्र अग्रावाल की नई गजलें‘ से ही आभास होता है कि इस संग्रह में दर्ज गजलें किसी एक रूप में ढली नहीं होंगी ? उनमें विविधता होगी, विषयगत भी और शिल्पगत भी। इन दृष्टियों से इस संग्रह में पर्याप्त विविधताएं हैं। रचना संबंधी विविधता इस बात का संकेत है कि रचनाकार के सोच और सामर्थ्य में व्यापकता है। उसमें संवेदनशीलता है, इसलिए संग्रह की आरंभिक गजलों में ईश्वर, माता-पिता और घर की चिंताएं हैं, जो सामाजिक सरोकार और व्यक्ति के दायित्व बोध से जुड़ी हैं। दूसरी तरफ गजलकार की चिंताएं पर्यावरण, भारतीय मूल्य और न्याय व्यवस्था की चिंताओं से जुड़ी हैं, जो दूरगामी दृष्टि का बोध कराती हैं।

महेंद्र की भाषा सरल और बोधगम्य है। उर्दू-फारसी के जो शब्द वे प्रयोग में लाए हैं, वे आम आदमी के दैनंदिन बोल-चाल में शामिल हैं, इसलिए गजलों में कहीं भाषाई जटिलता बाधा नहीं बनती है। अतएव उपमाओं और प्रतिबिंबो के सहारे गढ़ी गजलें पाठक पर असर छोड़े बिना नहीं रहती। चूंकि इस संग्रह की अनेक गजलों में सनातन मूल्यों का बोध है, अतएव इस संग्रह की गजलें इस बात का प्रमाण हैं कि वैचारिक प्रतिबद्धताएं इकतरफा नहीं रह गईं हैं। गजल नई चेतना और ऊर्जा से आप्लावित होकर नूतन चेतना की वाहक बन रही है।

पुस्तक का नाम- डॉ महेंद्र अग्रवाल की नई गजलें। लेखक-डॉ महेंद्र अग्रवाल। प्रकाशक-जे.टी.एस पब्लिकेशन्स वी-508, गली नं 17, विजय पार्क दिल्ली-110053। मूल्य-500 रुपए।