
सोनम लववंशी
बीते दिनों केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना कराने की मंजूरी दे दी है। पहली बार देश में डिजिटल जनगणना होगी जो अपने आपमें स्वागतयोग्य कदम है, क्योंकि “जो दिखता नहीं, वो गिना नहीं जाता और जो गिना नहीं जाता, वो सत्ता और संसाधनों की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाता है।” भारत में जाति एक सामाजिक सत्य है, जिसे नजरअंदाज करना असंभव है। आजादी के 75 वर्ष बाद भी जाति भारतीय समाज की संरचना, अवसरों की उपलब्धता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और संसाधनों के वितरण का निर्धारक बनी हुई है। ऐसे में जातिगत जनगणना केवल एक प्रशासनिक कवायद नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ा हुआ सवाल है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में पहली बार व्यवस्थित जातिगत जनगणना 1871 में की गई थी, जिसे बाद की जनगणनाओं में 1931 तक जारी रखा गया। लेकिन 1951 के बाद से स्वतंत्र भारत में जातिगत आंकड़ों को जानबूझकर इकट्ठा नहीं किया गया। केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गणना होती रही। 1931 के बाद से ओबीसी की जनसंख्या का कोई प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी आबादी का अनुमान 52 फीसदी लगाया था, पर यह अनुमान आज के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं रह गया है। लगभग एक सदी पुराने आंकड़ों के आधार पर सामाजिक न्याय की नीतियां बनाना न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों के विरुद्ध भी है।
सामाजिक न्याय की दृष्टि से अनिवार्यता
जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय के लिए आधारभूत आवश्यक है। यह जानना जरूरी है कि कौन सी जातियाँ कितनी संख्या में हैं, उनकी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति क्या है। सामाजिक न्याय का अर्थ केवल आरक्षण देना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर, सम्मान और भागीदारी प्राप्त हो। जब तक पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति का आंकलन नहीं होगा, तब तक नीतियों की प्रभावशीलता संदेहास्पद रहेगी। जातिगत जनगणना के बिना यह जानना संभव नहीं कि-
1) कौन सी जातियाँ आरक्षण का वास्तविक लाभ ले रही हैं?
2) किन समुदायों को आज भी हाशिए पर रखा गया है?
3) क्या वर्तमान आरक्षण नीति सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को पूरा कर रही है?
आर्थिक आधार बनाम जाति आधारित असमानता
आर्थिक आधार पर पिछड़ापन तय करने की मांग लगातार उठती रही है। लेकिन भारतीय संदर्भ में यह तर्क अधूरा है। गरीब तो सभी वर्गों में हो सकते हैं, लेकिन हर गरीब की सामाजिक स्थिति समान नहीं होती। एक सवर्ण गरीब और एक दलित गरीब के बीच जमीन-आसमान का फर्क होता है। दलित या ओबीसी गरीब को सामाजिक भेदभाव, उत्पीड़न, और प्रतिनिधित्व आदि वंचनाओं का सामना करना पड़ता है। इसके उलट, सवर्ण गरीब को सामाजिक नेटवर्क, सम्मान और अवसरों की सांस्कृतिक पूंजी प्राप्त होती है। इसलिए केवल आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाना, जातिगत असमानताओं की अनदेखी करना है। जाति और आर्थिक स्थिति दोनों को समग्रता में समझना होगा। और इसके लिए जातिगत आंकड़े अनिवार्य हैं।
संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रश्न
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय की अवधारणा निहित है। अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करे, लेकिन सवाल यह है कि बिना आंकड़ों के हम यह कैसे तय करेंगे कि पिछड़ा वर्ग कौन है और कितना पिछड़ा है? क्या यह उचित है कि 90 साल पुराने आंकड़ों के आधार पर 140 करोड़ की आबादी के लिए नीतियां बनाई जाएं? जातिगत जनगणना संविधान की उस आत्मा को सशक्त करती है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात करती है। लोकतंत्र का अर्थ केवल मतदान का अधिकार नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक को बराबरी के अवसर देना भी है।
राजनीतिक संदर्भ और सत्ता की जटिलता
जातिगत जनगणना केवल सामाजिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक मुद्दा भी है। यह चुनावी गणित और सत्ता संतुलन को प्रभावित कर सकती है। यही कारण है कि केंद्र की सरकारें वर्षों से इसे टालती रही हैं। अगर जातिगत आंकड़े सामने आ जाए और यह साबित हो जाएगा कि ओबीसी वर्ग की आबादी 50 फीसदी से कहीं अधिक है, तो यह मांग उठेगी कि आरक्षण भी उस अनुपात में बढ़ाया जाए। इससे संविधान में तय 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा (इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1992) को चुनौती दी जा सकती है। यह राजनीतिक दलों, खासकर सत्तारूढ़ दलों के लिए असहज स्थिति पैदा करता है। बीजेपी जैसी पार्टी, जो एक ओर तो ओबीसी नेतृत्व को उभारने का दावा करती है, वहीं दूसरी ओर उच्च जातियों के पारंपरिक वोट बैंक को भी बनाए रखना चाहती है। ऐसे में जातिगत जनगणना उनके लिए ‘डबल एज्ड स्वॉर्ड’ बन जाती है।
बिहार का उदाहरण: एक साहसी कदम
2023 में बिहार सरकार ने एक साहसी निर्णय लेकर जातिगत सर्वेक्षण कराया। इसमें यह सामने आया कि ओबीसी और ईबीसी की संयुक्त आबादी 63 फीसदी से अधिक है। यह आंकड़ा सामाजिक और राजनीतिक दोनों दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण है। बिहार के इस कदम ने यह दिखा दिया कि यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो जातिगत गणना संभव है। साथ ही इसने अन्य राज्यों और केंद्र सरकार पर नैतिक दबाव भी बनाया कि वे भी यह पहल करें। इस सर्वेक्षण से यह भी स्पष्ट हुआ कि ओबीसी और ईबीसी वर्गों के भीतर भी भारी विषमता है। कुछ जातियाँ बार-बार प्रतिनिधित्व पा रही हैं, जबकि कई अभी भी उपेक्षित हैं। यह ‘सामाजिक न्याय के भीतर न्याय’ की मांग को जन्म देता है।
जातिवाद बनाम जाति चेतना
जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले अक्सर यह तर्क देते हैं कि इससे समाज में जातिवाद बढ़ेगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। जातिवाद तब तक रहेगा जब तक सामाजिक असमानताएं रहेंगी। जातिगत आंकड़ों को सामने लाना इन असमानताओं से लड़ने का एकमात्र वैज्ञानिक तरीका है। जातिगत जनगणना जातिवाद को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि उसे तर्क, आंकड़ों और योजनाओं के माध्यम से चुनौती देती है। यह एक उत्तरदायी और जागरूक लोकतंत्र की निशानी है कि वह अपने भीतर की असमानताओं को न केवल देखे, बल्कि उन्हें स्वीकार कर सुधार की दिशा में कदम भी उठाए।
नीति निर्माण, बजट और योजनाओं में भूमिका
सरकार जब भी कोई योजना बनाती है, तो उसका लाभ किन्हें मिलेगा, यह आंकड़ों के आधार पर तय किया जाता है। लेकिन जब जातिगत आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि योजनाएं वंचितों तक पहुँच रही हैं?
जातिगत जनगणना से:
1) योजनाओं का लक्षित क्रियान्वयन संभव होगा,
2) बजट आवंटन अधिक न्यायपूर्ण होगा,
3) आरक्षण की समीक्षा और पुनर्संरचना के लिए मजबूत आधार मिलेगा,
4) और सामाजिक समरसता के लिए ठोस रणनीति बन सकेगी।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य और भारत की अलग स्थिति
अक्सर कहा जाता है कि दुनिया के किसी लोकतंत्र में जाति आधारित जनगणना नहीं होती, तो भारत में क्यों हो? लेकिन भारत की सामाजिक संरचना अद्वितीय है। पश्चिमी समाजों में जातिगत भेदभाव जैसी जटिलताएँ नहीं हैं। वहाँ नस्लीय या क्षेत्रीय आधार पर गणनाएँ होती हैं। भारत में जाति जन्म से जुड़ी सामाजिक स्थिति को परिभाषित करती है। यहाँ तक कि विवाह, पेशा, शिक्षा, और राजनीतिक पहुँच भी जाति से जुड़े हैं। इस वास्तविकता को नकारना आत्मवंचना है।
समावेशी विकास की कसौटी
‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘सबका विश्वास’ तभी संभव है जब हम जानें कि कौन अब तक विकास की मुख्यधारा से बाहर रहा है।
जातिगत जनगणना से:
1) नीति निर्माण अधिक समावेशी होगा,
2) योजनाएं धरातल पर प्रभावशाली ढंग से उतरेंगी,
3) और लोकतंत्र में सहभागिता का स्तर बढ़ेगा।
जातिगत जनगणना केवल संख्या का प्रश्न नहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व, भागीदारी और अवसरों की समानता का आधार है।
ऐसे में जातिगत जनगणना को लेकर जो भ्रम और भय फैलाए जाते हैं, वे वास्तव में सत्ता के भीतर छिपी असहजता को दिखाते हैं। यदि भारत को वाकई में सामाजिक न्याय पर आधारित समावेशी लोकतंत्र बनाना है, तो उसे अपनी सच्चाइयों से डरना नहीं, उन्हें स्वीकार करना होगा। जातिगत जनगणना कोई चमत्कार नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की दिशा में एक तार्किक और आवश्यक कदम है। यह इस देश के करोड़ों नागरिकों को यह विश्वास दिलाने का माध्यम बन सकती है कि उनकी गिनती भी लोकतंत्र में मायने रखती है। सवाल यह नहीं है कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए या नहीं। सवाल यह है कि अब तक क्यों नहीं हुई? और अब समय आ गया है कि भारत अपने भीतर झांके, खुद को गिने, और सबको गिन कर ही सबको साथ लेकर चले, क्योंकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में, जहां जाति केवल सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि अवसरों, संसाधनों और सत्ता तक पहुंच की कुंजी बन चुकी है, वहां जातिगत जनगणना सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की बुनियाद है।