देश की एकता व अखंडता के लिये ख़तरनाक है भाषाई विवाद

Language dispute is dangerous for the unity and integrity of the country

निर्मल रानी

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों नई दिल्ली में एक पूर्व आईएएस अधिकारी द्वारा लिखित एक पुस्तक का विमोचन किया। इसी कार्यक्रम के दौरान उन्होंने एक वाक्य बोलकर राष्ट्रीय स्तर पर भाषाई विवाद को जन्म दे दिया। गृह मंत्री ने कहा कि “इस देश में अंग्रेज़ी बोलने वालों को ‘शर्म’ आएगी, ऐसा समाज निर्माण अब दूर नहीं है।” उत्तर से लेकर दक्षिण तक अमित शाह के इस बयान की काफ़ी तीखी आलोचना हुई। कुछ लोगों ने अंग्रेज़ी को रोज़गार परक भाषा बताया तो कुछ का मानना था कि आत्मविश्वास के लिए अंग्रेज़ी का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। जबकि कुछ नेताओं ने इस बयान को भारत की भाषाई बहुलता को कमज़ोर करने और हिंदी थोपने के प्रयास की नज़रों से देखा। आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत सरकार के ही अनेक मंत्री ऐसे हैं जो धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं। कई प्रमुख मंत्री हैं तो ऐसे भी हैं जो अंग्रेज़ी में प्रभावी ढंग से संवाद करने के लिए ही जाने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त और कॉरपोरेट कार्य मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण अंग्रेज़ी में अत्यंत धाराप्रवाह हैं। वे जेएनयू से अर्थशास्त्र की डिग्री धारक है। वित्तीय नीतियों पर वैश्विक मंचों जैसे जी 20 पर उनके भाषण उनके अंग्रेज़ी बोलने के कौशल को दर्शाते हैं। इसी तरह विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर, जो पूर्व राजनयिक भी रहे हैं, अंग्रेज़ी में असाधारण रूप से धाराप्रवाह हैं। वह अंतरराष्ट्रीय मंचों, प्रेस कॉन्फ़्रेंस और कूटनीतिक चर्चाओं में प्रायः अंग्रेज़ी का व्यापक उपयोग करते हैं। इसी प्रकार सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी अंग्रेज़ी बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं, विशेष रूप से बुनियादी ढांचे और निवेश से संबंधित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उनकी धारा प्रवाह अंग्रेज़ी उनकी क़ाबलियत में चार चाँद लगाती है। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, आवासन और शहरी कार्य मंत्री हरदीप सिंह पुरी, यह भी पूर्व राजनयिक हैं तथा अंग्रेज़ी में उत्कृष्ट संवाद का कौशल रखते हैं। वह संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक मंचों पर अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इसी तरह नागरिक उड्डयन और इस्पात मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, जोकि हार्वर्ड और स्टैनफ़ोर्ड से शिक्षित हैं अंग्रेज़ी में अत्यंत धाराप्रवाह हैं और संसद व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसका उपयोग करते हैं। अमेरिका में शिक्षित और प्रशिक्षित चिकित्सक ग्रामीण विकास और संचार राज्य मंत्री डॉ. पेम्मासानी, जो हैं, अंग्रेज़ी में पूरी तरह से पारंगत हैं। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं विशेषकर दक्षिण भारत के अधिकांश सांसद व मंत्री अंग्रेज़ी में संवाद करते हैं।

ऐसे में अमित शाह का यह कहना कि ऐसा समाज निर्माण अब दूर नहीं है कि इस देश में अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्म आएगी,इसका अर्थ निकालना व इसका विश्लेषण करना बेहद ज़रूरी है। क्यों शर्म आयेगी अंग्रेज़ी बोलने वालों को ? स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जब विदेश जाते हैं तो प्रॉम्प्टर पर ही सही परन्तु अंग्रेज़ी में ही भाषण देकर भारत का पक्ष रखते हैं ? कश्मीर से कन्याकुमारी तक आप कहीं भी चले जाइये ,यदि आप क्षेत्रीय भाषा बोल पाने में असमर्थ हैं तो अंग्रेज़ी ही ऐसी भाषा है जो एक दूसरे राज्य के लोगों के मध्य संवाद स्थापित करने का सुगम माध्यम बनती है। देश ही नहीं लगभग पूरे विश्व में अंग्रेज़ी भाषा विभिन्न देशों के लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का काम करती है। आज गृह मंत्री अमित शाह के दर्जनों मंत्रिमंडलीय सहयोगियों,सांसदों व अधिकारियों व राज्य स्तरीय भाजपा नेताओं की संतानें अमेरिका,ब्रिटेन,ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य कई देशों में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। ज़ाहिर है ‘राष्ट्रवादियों ‘ की यह संतानें वहां संस्कृत या हिंदी माध्यम से पढ़ने के लिये नहीं गयी हैं।

बल्कि यह वहां पढ़कर अंग्रेज़ी भाषा में ही पारंगत होंगी। तो क्या आने वाले कल को इन्हें भी अंग्रेज़ी बोलने में शर्म आएगी ?

इसमें कोई संदेह नहीं कि क्षेत्रीय भारतीय भाषाएं भारतीय संस्कृति के आभूषण के समान हैं। परन्तु अदालत से लेकर संसद व दूतावासों तक व मेडिकल व विज्ञान शिक्षा में ख़ासकर प्रयुक्त होने वाली अंग्रेज़ी भाषा को ‘शर्म ‘ वाली भाषा तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता। गृह मंत्री के अनुसार यदि शर्म ही आने की संभावना है तो कम से कम अपनी सरकारी योजनाओं का मेक इन इंडिया,डिजिटल इंडिया,स्टार्टअप इंडिया जैसा अंग्रेज़ी नाम तो न रखते ? इस सम्बन्ध में लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि अंग्रेज़ी सीखना आर्थिक रूप से उपयोगी है और इससे रोज़गार के अवसर बढ़ते हैं। राहुल गांधी ने शाह के इस बयान को भारत की भाषाई बहुलता पर हमला बताया। कांग्रेस ने तो इसे सांस्कृतिक आतंकवाद का हिस्सा बताया और कहा कि अंग्रेज़ी वैश्विक संदर्भ में भारत के युवाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसी तरह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और डीएमके ने भी शाह के बयान को हिंदी थोपने की एक और कोशिश के रूप में देखा है । डीएमके ने तर्क दिया कि अंग्रेज़ी भारत की भाषाई विविधता को जोड़ने वाली कड़ी है और इसे कमज़ोर करना देश की एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री पनीरसेल्वम ने अन्नादुरै का हवाला देते हुए कहा कि हिंदी को जबरन थोपना स्वीकार्य नहीं है। इसी तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेताओं ने शाह की टिप्पणी को उनकी “संकीर्ण राजनीति” का परिचायक बताया और कहा कि अधिक भाषाएं सीखने से ज्ञान में वृद्धि होती है, न कि शर्मिंदगी। भारत में लोग अपनी पसंद की भाषा बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। अंग्रेज़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को जोड़ने का एक महत्वपूर्ण सेतु है। यह न केवल रोज़गार के अवसर प्रदान करती है, बल्कि नवाचार, अनुसंधान और वैश्विक सहयोग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके विपरीत अंग्रेज़ी को हटाने या कम करने से भारत की वैश्विक प्रतिस्पर्धा भी प्रभावित हो सकती है।

इसलिये कहा जा सकता है कि अमित शाह का बयान अदूरदर्शी होने के साथ साथ पूर्वाग्रह पूर्ण भी है जोकि भारत की भाषाई विविधता को नज़रअंदाज़ करता है। वैसे भी हमारे समाज में अंग्रेज़ी बोलने वालों को हमेशा इज़्ज़त की नज़र से देखा जाता है, इसलिये भी यह बयान सामाजिक समानता के विरुद्ध है। रहा सवाल अंग्रेज़ी को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ने की मानसिकता को औपनिवेशिक सोच से जोड़ने का परिणाम बताना तो हमारा पहनावा,उपयोग की वस्तुयें,क्रॉकरी,मकानों की बनावट वैज्ञानिक सामग्रियों पर बढ़ती निर्भरता यह सब भी पश्चिमी प्रभाव का ही परिणाम है। हम किन किन चीज़ों को पश्चिमी कहकर ठुकराते रहेंगे ? इस तरह के ग़ैरज़िम्मेदाराना बयानों से हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ का भला तो नहीं होगा बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण ज़रूर बढ़ सकता है। ख़ासकर दक्षिणी राज्यों में इसे क्षेत्रीय अस्मिता पर हमले के रूप में भी देखा जा सकता है। इसलिये देश की एकता व अखंडता के लिये भाषाई विवाद खड़ा करना बेहद ख़तरनाक है।