अंग्रेजी का पूर्ण उन्मूलन और संस्कृत या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना ‘हिंदू राष्ट्र’ के निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है

Complete elimination of English and making Sanskrit or Hindi the national language is an important part of building a 'Hindu Rashtra'

अशोक भाटिया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड’, ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। आज भाषाओं पर बहस जिस दिशा में जा रही है, ऐसे समय उनके विचारों पर ध्यान देने की जरुरत है ।

बीसवीं शताब्दी में जिन राष्ट्र-पुरुषों, मनीषियों एवं चिंतकों ने भारत के समग्र विकास एवं उसे शक्तिपुंज बनाने के लिए जो विचार-दर्शन दिया, उनमें महात्मा गांधी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा है। श्रीगुरुजी के पास हिंदू राष्ट्र, संस्कृति एवं परंपरा की संकल्पना थी तथा हिंदू समाज की एकात्मता एवं संगठन तथा उसके समग्र विकास के लिए पूर्णत: तर्कसंगत विचार-दर्शन था। इस विचार-दर्शन के अनुसार भारत हिंदू राष्ट्र था, और है। उनके राष्ट्र-दर्शन का आधार राष्ट्रीयता थी। इसके लिए वे वाणी और कर्म में एकता चाहते थे, जिससे कार्य को सजीव रूप देकर जीवन की पद्धति को उचित दिशा में मोड़ा जा सके।श्रीगुरुजी ने कोझीकोड के प्रांतीय शिविर में फरवरी,1966 में कहा था, ‘‘हमारे कार्य में कोरी बातों का कोई स्थान नहीं। भाषणों में हमारी रुचि नहीं, लगातार बोलने रहने में हमारा विश्वास नहीं, शब्दों का जाल खड़ा करना हमें भाता नहीं, फिर भी बोलना तो पड़ता ही है पर हम निश्चयपूर्वक बोलते हैं और जो बोलते हैं, उसे अपने कार्य द्वारा सजीव रूप देते हैं। अपने कार्य द्वारा जीवन की पद्धति में मोड़ लाते हैं।’’

उनका यह विचारांश महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने संस्कृत, हिंदी तथा प्रांतीय भाषाओं के उद्भव एवं विकास तथा उनकी महत्ता को रेखांकित किया है। उन्होंने अपने कई व्याख्यानों में हिंदी भाषा के अनेक गुणों का उल्लेख किया है। वे मानते हैं कि संस्कृत से जन्मी हिंदी संस्कृत के बाद सार्वदेशिक भाषा है तथा उसे प्रखर स्वाभिमान की भावना को जागृत करने वाली जगत की सर्वश्रेष्ठ भाषा बनाना है। हिंदी ही इस देश की राजभाषा या राज्य-व्यवहार की भाषा बन सकती है, क्योंकि वह देश में अधिकतर समझी जाती है और दक्षिण में भी थोड़ी मात्रा में समझी जाती है।

अत: हिंदी भाषा को हम सबको मिलकर व्यवहार भाषा के रूप में समृद्ध करना चाहिए। श्रीगुरुजी मराठी भाषी थे, लेकिन उन्हें हिंदी भी अपनी मातृभाषा ही प्रतीत होती थी। उन्होंने दिल्ली में फरवरी, 1965 में कहा था, ‘‘हिंदी को स्वीकार करने में कौन-सी कठिनाई है। मैं तो मराठी भाषी हूं, पर मुझे हिंदी पराई भाषा नहीं लगती। हिंदी मेरे अंत:करण में उसी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का स्पंदन उत्पन्न करती है जिसका प्रसार मेरी मातृभाषा मराठी द्वारा होता है।’’ श्रीगुरुजी इस प्रकार मराठी और हिंदी को समान प्रेम और आदर देते हैं, परंतु हिंदी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा मानने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैं मानता हूं कि अपनी सभी भाषाएं राष्ट्रीय हैं। ये हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं।

हिंदी भी उन्हीं में से एक है, परंतु उसके बोलने वालों की संख्या अधिक होने से उसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। यह दृष्टिकोण कि हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा है और अन्य भाषाएं प्रांतीय हैं, वास्तविकता के विपरीत और गलत है।’’ अत: सभी भाषाएं जो हमारी संस्कृति के विचारों का वहन करती हैं, शत-प्रतिशत राष्ट्रीय हैं। इस प्रकार श्रीगुरुजी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएं मानकर छोटी-बड़ी भाषा के अहंकार को समाप्त करके श्रेष्ठता के उन्माद एवं हीनता-ग्रंथि को भी नष्ट करते हैं। इसलिए वे हिंदी को अन्य देशी भाषाओं की तुलना में श्रेष्ठ नहीं मानते। वे कहते हैं कि तमिल तो 2,500 वर्ष से एक सुसंस्कृत भाषा के रूप में प्रचलित थी। अत: हिंदी अन्य प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में न तो पुरानी है और न ही श्रेष्ठ है, परंतु राष्ट्रीय एकता, संस्कृति की संवाहिका, स्वत्व-बोधक, आत्मसम्मान की रक्षक तथा सार्वदेशिक होने के कारण वे हिंदी के वैशिट्य को स्वीकार करते हैं और उसे ही राजभाषा तथा प्रांतों से संपर्क एवं व्यवहार की भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं।

उनका कहना है कि इस देश से अंग्रेजी को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए और संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए। वे लिखते हैं, “भाषाओं की रानी, देववाणी संस्कृत इन सभी भाषाओं की प्रेरणा है। यह भाषा बहुत समृद्ध है और इसकी पवित्रता के कारण, केवल यही भाषा राष्ट्रीय मामलों का माध्यम बन सकती है। (पृ. 104)। जब गृह मंत्री कहते हैं, ‘हम एक बार फिर अपने देश की सरकार अपनी भाषा में चलाएंगे’, तो उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं है कि वह किस भाषा की उम्मीद करते हैं।

जानबूझ कर यह कहने की जरूरत नहीं है कि संस्कृत को इस देश की राष्ट्रभाषा बनाना कितना अव्यावहारिक है। इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीयों की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है और इसके लिए संस्कृत के अध्ययन की आवश्यकता है। लेकिन जो भाषा नियमों से बंधी हुई है, जो व्यवहार से पूरी तरह गायब हो चुकी है, अगर वह आकाश में बैठी है तो पृथ्वी पर अनगिनत भारतीय बहुजनों की भाषा कैसे हो सकती है? क्या यह देश मुट्ठी भर संस्कृतवादियों या अरबों लोगों का है? संस्कृत के ‘मृत’ भाषा बनने या न होने पर क्या होगा, इसका हास्य-व्यंग्य करने के लिए आचार्य अत्रे या पीएल देशपांडे की प्रतिभा की जरूरत होती है।

शायद गुरुजी ने भी संस्कृत के बारे में इस तथ्य पर ध्यान दिया होगा, इसलिए वे लिखते हैं, “…दुर्भाग्य से, आज संस्कृत भाषा दैनिक व्यवहार में नहीं है। जब तक संस्कृत उस स्थान को प्राप्त नहीं कर लेती, तब तक हिंदी को एक सुविधाजनक स्थान के रूप में प्राथमिकता देनी होगी। स्वाभाविक रूप से, हम जो हिंदी चुनते हैं, वह अन्य सभी भारतीय भाषाओं की तरह संस्कृत-व्युत्पन्न होना चाहिए। हिंदी हम में से एक बड़े वर्ग की बोली है और इसे सीखना और बोलना भी सभी भाषाओं की तुलना में आसान है… अतः हमें राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए हिन्दी को अपनाना चाहिए… यह विचार कि हिंदी पर अन्य भाषाओं द्वारा आक्रमण किया जा रहा है, घटिया राजनेताओं द्वारा तैयार की गई एक काल्पनिक कहानी है।

अब यह देखा जा सकता है कि महाराष्ट्र में शुरू से ही हिंदी को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर क्यों दिया जाता है। हिंदी हिंदू राष्ट्र की राष्ट्रभाषा बनी रहेगी, जो ‘हिंदी राष्ट्र’ के निर्माण में संघ और भाजपा के महत्वपूर्ण एजेंडे में से एक है।

सच तो यह है कि अच्छी अंग्रेजी जानने का बुद्धिमत्ता और उपलब्धियों से कोई लेना-देना नहीं है। प्रधानमंत्री खुद एक अच्छे उदाहरण हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए अंग्रेजी भाषा से जुड़ी सभी बाधाओं को पार कर लिया है। लेकिन आप कितना भी ना कहें, अच्छी अंग्रेजी का आना हमारे देश में प्रशंसा का विषय बन गया है। यह एक तथ्य है। साथ ही, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ब्रिटिश और अंग्रेजों ने हमारे ज्ञान के आधार को बढ़ाने में महान भूमिका निभाई है। इतना ही नहीं अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों के लिए मानव जीवन के कुछ ही द्वार खोले गए हैं। साथ ही, भारतीयों ने यह भी माना कि उनके ज्ञान के प्रसार के लिए अंग्रेजी का कोई विकल्प नहीं है। ‘मैं मराठी भाषा का शिवाजी हूं’, विष्णु शास्त्री चिपलूणकर ने अंग्रेजी में कहा। जस्टिस रानाडे अंग्रेजी में लेक्चर देते थे। देखो। तिलक ने अंग्रेजी में ‘द ओरियन’ और ‘आर्कटिक होम इन द वेद’ लिखे। एम.एम. पी. नहीं तो। केन ने अंग्रेजी में सबसे प्रसिद्ध पांच-खंड पुस्तक हिस्ट्री ऑफ थियोलॉजी लिखी। विद्वान भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी को बंगाली भाषा की उत्पत्ति विकास पर उनकी बहुत ही व्यावहारिक थीसिस के लिए डी।लिट प्राप्त हुआ। कई अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा की तरह अंग्रेजी लेखकों का हमारे लेखकों पर एक मजबूत प्रभाव है। यह उपन्यासों और नाटकों पर भी लागू होता है। हम मराठी लेखक अंग्रेजी से इतने मोहित हैं कि हमें विश्वास हो गया है कि हमारी विद्वता तब तक साबित नहीं हो सकती जब तक कि हमारे लेखन में अंग्रेजी विचारकों के चार या दो उद्धरण या उप-उद्धरण न हों। मराठी लेखकों से पश्चिमी साहित्य के और अधिक अध्ययन की अपेक्षा और आवश्यकता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘हम इतने संक्षिप्त हैं कि हम अभी तक पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं हैं।

संक्षेप में, हमें अंग्रेजी के सांस्कृतिक ऋण को स्वीकार करना चाहिए। आज, अंग्रेजी हमारी हड्डियों में इतनी गहरी है कि हम अंग्रेजी के बिना काम करने की कल्पना नहीं कर सकते। कुछ मराठी शब्दों के बजाय, हमें अर्थ की भावना मिलती है। इसलिए लिखते समय, हम कई बार मराठी शब्द लिखते हैं और उनके अंग्रेजी समानार्थी शब्द देते हैं। आज, अधिकांश मंत्रियों के बच्चे शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं, उनके पी।ए। सचिव विदेश जाते हैं, वे अपने आप जाते हैं। अगर उन्हें अंग्रेजी बोलने में शर्म आती है, तो एक-दूसरे के साथ भाषाई संचार कैसे हो सकता है? अंग्रेजी दुनिया के साथ बेहतर तरीके से जुड़ती है, कई तरीके और विकल्प बनाती है। एक अवलोकन यह भी बताता है कि जो लोग अच्छी अंग्रेजी जानते हैं वे नौकरियों की मांग में अधिक हैं और अंग्रेजी नहीं बोलने वालों की तुलना में उच्च वित्तीय आय रखते हैं ।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार