आपातकाल में दर्ज किए संविधान की प्रस्तावना में संतों को हटाने की जरूरत

There is a need to remove saints from the Preamble of the Constitution which was entered during the Emergency

समाजवादी- धर्मनिरपेक्ष शब्दों की समीक्षा की जरूरत

प्रमोद भार्गव

आपातकाल में जब भारतीय लोकतंत्र कारागारों में बंधक था तब 1976 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संषोधन अधिनियम के तहत बदला गया, जिसमें ‘समाजवादी‘, ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘अखंडता‘ षब्द जोड़ दिए गए थे। अब इन षब्दों को विलोपित करने की मांग राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठा दी है। केंद्र सरकार से इन षब्दों की समीक्षा करने का आवाहन संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने किया है। इस मांग के समर्थन में उपराश्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुर मिलाते हुए कहा कि ‘संविधान की प्रस्तावना परिवर्तनषील नहीं है, लेकिन भारत में आपातकाल के दौरान इसे बदल दिया गया, जो संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता के साथ विष्वासघात का संकेत है, जो षब्द जोड़े गए, वे नासूर थे और उथल-पुथल पैदा कर सकते हैं। यह बदलाव हजारों वर्शों से इस देष की सभ्यतागत संपदा और ज्ञान को कमतर आंकने के साथ सनातन की भावना का अपमान भी है। प्रस्तावना संविधान का बीज होती है। इसी के आधार पर संविधान की मूल भावना विकसित होती है। भारत के अलावा किसी दूसरे देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया। अतएव यह बदलाव न्याय का उपहास है।

भारतीय समाज के बहुलतावादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक गणराज्य की नींव रखी थी। इसीलिए मूल संविधान में भारतीय परंपरा, संस्कृति, आध्यात्म जैसे ऊर्जावान तत्वों का समावेश संभव हुआ। तब संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि भारत की संस्कृति, संस्कार और सभ्यतामूलक इतिहास के प्रवाह को भी विभिन्न छवियों के द्वारा स्थान मिलना चाहिए। तब उस समय के प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस से आग्रह कर हजारों वर्शों की सांस्कृतिक सभ्यता के चित्रों की संविधान में जीवंत प्रस्तुति संभव हुई। इस क्रम में मोहनजोदड़ों के चित्रों से लेकर वैदिक युग के गुरुकुल हैं। मौलिक अधिकार के अध्याय में प्रभु राम, सीता और लक्ष्मण का चित्र है। चूंकि राम मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ रामराज्य के प्रतीक हैं।

इसलिए उनका चित्र तार्किक है। राज्य के नीति-निदेशक तत्व अध्याय में भगवान कृष्ण द्वारा गीता का उपदेश दिए जाने का चित्र है। यह चित्र एक हताश योद्धा को अपने कर्तव्य पालन के प्रति इंगित करता है। भगवान बुद्ध, महावीर, सम्राट विक्रमादित्य और नालंदा विश्वविद्यालय की चर्चा है। शिव के नटराज नृत्य की छवि प्रदर्शित है। मुगल काल में अकबर और मुगलकालीन स्थापत्य के चित्र हैं। लेकिन बाबर औरंगजेब की चर्चा नहीं है। क्योंकि ये क्रूर और मंदिरों के विध्वंसक रहे हैं। इसी क्रम में वीर षिवाजी, गुरू गोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी और नेताजी सुभाश चंद्र बोस के योगदान से जुड़े चित्र हैं। इन चित्रों को छापना इसलिए संभव हुआ, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक गणतंत्र के साथ भारतीय सनातन संस्कृति और सभ्यता को जानने पर जोर दिया था। क्या आज के परिप्रेक्ष्य में इन चित्रों का संविधान में प्रदर्शन संभव था ?

दरअसल स्वतंत्रता के कुछ वर्श बाद से केवल हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को धर्मनिरपेक्षता मान लेने की परंपरा सी चल निकली थी। जबकि वास्तविकता तो यह है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद‘ शब्द थे ही नहीं। ये शब्द तो आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़े गए थे। आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी, प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, ‘गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मो के लिए समान आदर हो,‘ लेकिन लोकसभा से इस प्रस्ताव के पारित हो जाने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्यसभा में गिरा दिया था। अब यह स्पष्ट उस समय के कांग्रेसी ही कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है ? गोया, इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया।

शायद ऐसा इसलिए किया गया जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरुपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे। जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विक्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक परस्पर तालमेल खंडित होता रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभरती रही हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को भी संकीर्ण और अल्प-धार्मिक दृष्टि से देखा जाता रहा है।

जवाहरलाल नेहरू विष्वविद्यालय में वामपंथी मानसिकता के चलते जिस तरह से देष के हजार टुकड़े करने के नारे लगते रहे और उन्हें अभीव्यक्ति की आजादी के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक ठहराने की कोषिषें हुईं, उस संदर्भ में लगता है कि धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी के मायने राश्ट्रद्रोह को उकसाने और उन्हें संरक्षित करने के उपाय ही साबित हुए हैं। अतएव इस तरह की विकृतियों को आधार देने वाले संविधान के अनुच्छेदों में बदलाव जरूरी है।

भारतीय संविधान जिस नागरिकता को मान्यता देता है, वह एक भ्रम है। सच्चाई यह है कि हमारी नागरिकता भी खासतौर से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों में बंटी हुई है। लिहाजा इसका चरित्र उत्तरोत्तर सांप्रदायिक होता रहा है। हिंदु, मुसलमान और ईसाई भारतीय नागरिक होने का दंभ बढ़ता है। जबकि नागरिकता केवल देशीय मसलन भारतीय होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि भारत में 4635 समुदाय हैं। जिनमें से 78 प्रतिशत समुदायों की न सिर्फ भाषाई एवं सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक श्रेणियां भी हैं। इन समुदायों में 19.4 प्रतिशत धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। गोया, धर्मनिरपेक्षता शब्द को विलोपित किया जाना जरूरी है। हालांकि आजादी के ठीक बाद प्रगतिशील बौद्धिकों ने भारतीय नागरिकता को मूल अर्थ में स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के फेर में मूल अर्थ सांप्रदायिक खानों में विभाजित होता चला जा रहा है, जिसका संकट अब कुछ ज्यादा ही गहरा गया है।

वर्तमान में हमारे यहां धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में इसका अर्थ ‘ईश्वर’ विरोधी दिया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलंबी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलंबी चीन और जापान जरूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्रप्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने जरूर इतना कहा है, ‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’ इसी क्रम में यह भी कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’ संभवतः इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा था कि ‘गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्रनिर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’ अब यहां संकट यह भी है कि भारत राष्ट्र का निर्माता कोई एक नायक नहीं रहा। गरम, नरम और नेताजी सुभाष के सैन्य दलों के विद्रोह से विभाजित स्वतंत्रता संभव हुई। नतीजतन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को किसी एक इबारत में बांधना असंभव है। इसीलिए श्रीमद्भागवत गीता में जब यक्ष धर्म को जानने की दृष्टि से प्रश्न करते हैं तो धर्मराज युधिष्ठिर का उत्तर होता है, ‘तर्क कहीं स्थिर नहीं हैं, श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं है, जिसका प्रमाण माना जाए। धर्म का तत्व गुफा में निहित है। अतः जहां से महापुरुष जाएं, वही सही धर्म या मार्ग है।’

इसी संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ‘सत्य एक है। विद्वान उसे अलग-अलग तरीके से कहते हैं। भारतीय दर्शन इसे ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना‘ कहता है। अर्थात सर्वधर्म सद्भाव भारतीय-संस्कृति का मूल है, धर्मनिरपेक्ष हमारी संस्कृति का मूल नहीं है। इसलिए इसे हटाने पर विचार होना चाहिए।‘ वैसे भी भारतीय परंपरा में धर्म कर्तव्य के अर्थ में प्रचलित है। यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म, इस संदर्भ में कर्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है ? सेक्युलर के लिए शब्दकोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। अतएव यह आवश्यक हो गया है कि संविधान में जो भी ठूंसे गए विकार और विसंगतियां हैं, उन्हें जम्मू-कश्मीर को अलग करने वाली धारा 370 की तरह विलोपित कर देना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने ठीक ही कहा है कि ‘डॉ आंबेडकर ने देष को एकजुट रखने के लिए एक संविधान की कल्पना की थी। उन्होंने कभी भी किसी राज्य के लिए अलग संविधान के विचार का समर्थन नहीं किया। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र के फैसले को बरकरार रखते हुए एक संविधान के तहत एकजुट भारत से संबंधित डॉ आंबेडकर के दृश्टिकोण से प्रेरणा ली है।‘ गवई पांच न्यायाधीषों की उस संविधान पीठ के सदस्य थे, जिसकी अध्यक्षता तब के प्रधान न्यायाधीष डीवाई चंद्रचूड़ ने की थी। इस पीठ ने सर्वसम्मति से अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया था। अतएव धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से विलोपित करके उसे मूल स्वरूप में लाने की जरूरत है।