
संजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति का मामला लंबे समय से अधर में लटका हुआ है। यह देरी न केवल पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में अनिश्चितता पैदा कर रही है, बल्कि 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी पर भी सवाल उठा रही है। भूपेंद्र सिंह चौधरी का कार्यकाल जनवरी 2023 में समाप्त होने के बाद से ही नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया बार-बार अटक रही है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें आंतरिक गुटबाजी, सामाजिक समीकरणों का संतुलन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ समन्वय और राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए हमेशा से एक महत्वपूर्ण राज्य रहा है। देश की सियासत में यूपी का प्रभाव किसी से छिपा नहीं है। 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाला यह राज्य केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता की कुंजी माना जाता है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को यूपी में अप्रत्याशित नुकसान उठाना पड़ा। समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस के गठबंधन ने पार्टी को कड़ी चुनौती दी, जिसके बाद हार के कारणों की समीक्षा के लिए 15 पेज की एक विस्तृत रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व को सौंपी गई। इस रिपोर्ट में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, संगठनात्मक कमजोरी और सामाजिक समीकरणों में चूक को प्रमुख कारण बताया गया। इस हार ने पार्टी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया है, और नया प्रदेश अध्यक्ष चुनना इस रणनीति का एक अहम हिस्सा है।
प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति में देरी का सबसे बड़ा कारण पार्टी के भीतर चल रही आंतरिक खींचतान और गुटबाजी है। यूपी भाजपा में कई प्रभावशाली नेता हैं, और प्रत्येक गुट अपने पसंदीदा उम्मीदवार को आगे बढ़ाने की कोशिश में है। कुछ नेता ओबीसी समुदाय से किसी मजबूत चेहरे को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, ताकि सपा के पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) मॉडल का मुकाबला किया जा सके। वहीं, कुछ नेता दलित समुदाय से किसी युवा चेहरे को मौका देने के पक्ष में हैं, क्योंकि दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा 2024 में भाजपा से छिटक गया था। इसके अलावा, कुछ नेताओं का मानना है कि अगड़े समुदाय से किसी अनुभवी नेता को जिम्मेदारी दी जाए, जो संगठन को एकजुट रख सके। इस तरह सामाजिक समीकरणों का संतुलन बनाना भाजपा के लिए एक जटिल चुनौती बन गया है।
पार्टी के सामने एक और बड़ी चुनौती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ समन्वय की है। भाजपा और आरएसएस के बीच राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर पर अध्यक्षों के चयन को लेकर लंबे समय से विचार-विमर्श चल रहा है। कुछ सूत्रों का कहना है कि आरएसएस यूपी में किसी ऐसे चेहरे को चाहता है, जो संगठनात्मक अनुभव के साथ-साथ जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोड़ने की क्षमता रखता हो। लेकिन इस पर सहमति बनाना आसान नहीं रहा। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने भी संगठनात्मक गतिविधियों को प्रभावित किया है, जिसके कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को टाल दिया गया। यूपी में नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन के बाद ही पूरी होने की संभावना है।
2027 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा यूपी में अपनी रणनीति को और मजबूत करना चाहती है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल के वर्षों में अपने पीडीए मॉडल के जरिए गैर-यादव ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक वोटरों को एकजुट करने में सफलता हासिल की है। इसका मुकाबला करने के लिए भाजपा सोशल इंजीनियरिंग पर जोर दे रही है। पार्टी ने हाल ही में 98 में से 70 जिलों में नए जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की है, जिसमें अगड़े समुदाय को प्राथमिकता दी गई। लेकिन 28 जिलों में अभी भी नियुक्तियां लटकी हुई हैं, जिसका कारण भी आंतरिक असहमति और गुटबाजी को माना जा रहा है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी में भाजपा सरकार भले ही मजबूत स्थिति में हो, लेकिन संगठन स्तर पर कई चुनौतियां हैं। कार्यकर्ताओं में असंतोष की खबरें समय-समय पर सामने आती रही हैं। लोकसभा चुनावों में हार के बाद कई नेताओं ने संगठन की कमजोरियों को उजागर किया था। ऐसे में नया प्रदेश अध्यक्ष न केवल संगठन को एकजुट करने की जिम्मेदारी लेगा, बल्कि उसे जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और मतदाताओं को फिर से पार्टी की ओर आकर्षित करने का काम भी करना होगा।
बहरहाल, भाजपा की रणनीति में यूपी का महत्व देखते हुए यह देरी कई सवाल खड़े करती है। पार्टी को न केवल संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करना है, बल्कि मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता को भी फिर से स्थापित करना है। नए अध्यक्ष का चयन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा, लेकिन इसके लिए पार्टी को आंतरिक मतभेदों को दूर करना होगा। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इस पेंच को कैसे सुलझाती है और यूपी में अपनी सियासी जमीन को फिर से मजबूत करने के लिए कौन सा चेहरा सामने लाती है।